रविवार, 24 मार्च 2024

सूचना सेठ... सूचना बहुत लाउड है, गर सुन सको?

सूचना सेठ, एक हाईली एजुकेटेड इंडिपेंडेंट महिला. जिंदगी में जो चाहा वो हासिल किया. मनपसंद करियर, मनपसंद ब्वॉयफ्रेंड, मनपसंद शादी और मनपसंद जिंदगी, लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि Mindful AI की ceo सलाखों के पीछे हैं.

AI एथिक्स के 100 प्रभावशाली लोगों में शुमार रहीं सूचना सेठ बेंगलुरू बेस्ड माइंडफुल AI लैब की फाउंडर और सीईओ हैं, लेकिन निजी आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं ने आज उसकी पर्सनल ही प्रोफेशनल लाइफ तबाह कर दी है. सूचना सेठ एक बेटी, बहन, बीवी, माता से.. कुमाता बन गई है?

कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है,लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि आवश्यकता की बहन महत्वाकांक्षा अविष्कार की मौसी है,जो आविष्कार की आवश्यकताओं को अनंत कर देती हैं. अवध में एक कहावत है, माई मरे मौसी जिए' इसका शाब्दिक अर्थ है कि महत्वाकांक्षाओं (मौसी) के सामने आवश्यकताएं (मांएं) बौनी हो जाती हैं.

सूचना सेठ को अगर अति महत्वाकांक्षा की शिकार महिला कहें तो गलत नहीं होगा.क्या नहीं था सूचना सेठ के पास,जीवन में जो चाहा, उससे अधिक मिला.साल 2010 में मनचाहे लड़के संग लव मैरिज के 9 साल तक सूचना और पति वेंकटरमण की जिंदगी सुहानी थी, लेकिन साल 2019 में मदर बनीं सूचना और वेंकट की शादीशुदा जिंदगी अपसाइड डाउन हो गई, जबकि सब कुछ कैनवास पर प्लान करके उकेरा गया था.

सूचना-वेंकट की लव मैरिज कुल 9 सालों तक अच्छा चला, सब कुछ अच्छा रहा, लेकिन 2019 में घर नन्हा मेहमान आया तो शादी संकट में आ गई. अंततः  9 साल पुराना प्रेम विवाह 9 महीने में टूट गया. लव मैरिज के दुखद अंत की वजह घर में आया नन्हा मेहमान बना, जो अब इस दुनिया में नहीं रहा.

सूचना सेठ,साल 2019 में केरल मूल के पति वेंकटरमण से तलाक ले लेती है. पति से हुआ अलगाव भी सूचना सेठ के काम नहीं आया, क्योंकि कस्टडी में मिले नन्हें मासूम की शक्ल पति से मिलती है.अंततः मासूम से दूरी बनाने के लिए सूचना सेठ ने वह किया,जिसके लिए मां और मां की ममता दोनों सदमे में है.

सवाल है 4 वर्षीय मासूम की मौत का असली गुनहगार कौन है? क्या तलाकशुदा पति के जैसा दिखना मासूम का कसूर था? अमूमन संतानें अपने पिता और मां जैसी शक्ल लेकर पैदा होते हैं? सूचना सेठ को पति की शक्ल वाला इतना नागवार गुजरा कि वह अपने ही बेटे की दुश्मन बन गईं और उसकी हत्या कर देती है.

लव मैरिज, मदरहुड, पैरंटहुड और डाइवोर्स आधुनिक दौर में आश्चर्यजनक घटनाएं नहीं रह गई हैं.आधुनिक समाज में इसकी स्वीकार्यता बढ़ी है.यह अब पहले जैसा टैबू सब्जेक्ट नहीं रहा. अड़ोस-पड़ोस में ऐसे खुशहाल लोग मिल जाते हैं, जो अकेले खुश हैं. लोग-बाग अब इस पर नाक-भौंह नहीं उचकाते हैं, बल्कि यह फैशन बन चुका है.फिर ऐसा क्या हुआ कि एक सिंगल मदर को बेटे का कत्ल करना पड़ गया?

यह अकेली घटना नहीं है,जिसके लिए हम आरोपी सूचना सेठ पर डायन बताकर टूट पड़ें. नई सोसाइटी में यह एक ट्रेंड्स सा बन गया है.अकेले बेंगलुरु शहर में पिछले कुछ महीनों में ऐसे तमाम केस देखने को मिले हैं,जो यह सोचने को मजबूर करते हैं कि आखिर समाज में यह कैसी विकृति जन्म ले रही है और हमें इसके जवाब तलाशने होंगे?

ऐसी घटनाओं की एक पूरी फेहरिस्त है. 4 अगस्त को एक डेंटिस्ट महिला ने अपनी 4 साल की बेटी को चौथी मंजिल से फेंक दिया, 6 अगस्त को एक अन्य महिला ने अपनी 10 साल की बेटी की हत्या के बाद खुदकुशी कर लिया, 22 अगस्त को एक 24 वर्षीय महिला ने अपनी 3 साल की बेटी को बाथ टब में डुबाकर मारा और फिर सुसाइड कर लिया.दिलचस्प यह है कि उपरोक्त सारी घटनाएं बेंगलुरू की है और सूचना सेठ भी बेंगलुरू में रहती है.
ऐसा संभव है कि सूचना सेठ ने पति और उसके जैसे दिखने वाले बच्चे दोनों से एक बार में पीछा छुड़ाने के लिए क्रूरता की हद पार करते हुए अपने 4 वर्षीय मासूम की निर्ममता से हत्या कर पति का फंसाने की कोशिश की हो, ताकि पति का जीवन बर्बाद हो जाए और उसकी बाकी जिंदगी जेल में कटे.

साइकोलॉजी कहती है कि महिला अपने पति से बदला लेने के लिए अपने ही बच्चे की हत्या कर सकती है. ऐसा करके महिला पति को इमोशनली हर्ट करना चाहती है.वह देखकर खुश भी हो सकती है कि बच्चे की मौत से उसका पति कितना दुखी है.

सूचना सेठ के मामले में यह थ्योरी सटीक हो सकती है. सूचना का तलाक 2020 में हो चुका था, उसका पति अपने बेटे से बहुत प्यार करता था. कोर्ट ने पिता वेंकट को बच्चे से फोन या वीडियो कॉल के जरिए बात करने की इजाजत दे दी थी.यही नहीं, सूचना सेठ की इच्छा के विरूद्ध जाकर कोर्ट ने नवंबर 2023 को पिता को हर रविवार घर पर बच्चे से मिलने की अनुमति भी दे दी.

मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो सूचना को बाप-बेटे की मुलाकात पसंद नहीं थी, ऐसे में न चाहते हुए भी सूचना सेठ को पति वेंकट की शक्ल देखनी पड़ती थी, जिसकी वजह से पति की कुढ़न ने मासूम को भी आगोश में ले लिया.रिपोर्ट बताते हैं कि कई बार इस सिंड्रोम बचने के लिए सूचना सेठ ने प्रयास भी किए, लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ.  

पति के वकील के मुताबिक पिछले एक साल से बंगलुरू के एक फैमिली कोर्ट में दोनों के बीच बच्चे की कस्टडी की लड़ाई भी चली.घटना से पहले रविवार को सूचना सेठ का पति वेंकट बेटे से मिलने आने वाला था. यही वह वजह रही होगी कि सूचना सेठ शनिवार को ही बच्चे को लेकर गोवा चली गई.

रिपोर्ट कहती है मासूम की मौत से पहले सूचना सेठ के पति वेंकट का वीडियो कॉल आया था और दोनों बाप-बेटे ने बात की थी.पति ने गोवा पुलिस को दिए बयान में बताया है कि उन्हें पिछले पांच रविवार से बेटे से नहीं मिलने दिया.सूचना सेठ को पति और बेटे के बीच मुलाकातों और बातों का सिलसिला कुरेद रहा था. संभव है इसीलिए सूचना सेठ ने मामले को जड़ से समाप्त करने का निर्णय कर लिया और पति को बड़ा दुख देने के लिए गोवा पहुंचकर उसने अपने ही चार साल के मासूम की हत्या कर दी.

ऐसी ही एक घटना 22 फरवरी 2023 को मध्य प्रदेश के हरदा जिले में हुई थी,जब संजू नामक एक महिला ने अपनी 9 दिन की बच्ची की इसलिए हत्या कर दी थी,क्योंकि वह अपने पति को सजा देना और दुखी देखना चाहती थी. इसे एक घटना की तरह देख कर आगे बढ़ा जा सकता है, लेकिन अब ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले अपराधियों की मनोवृतियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जरूरी हो गया है.

नि:संदेह हम तकनीकी रूप से विकसित हुए हैं, आगे और भी मुकाम बनेंगे, लेकिन एक समाज के रूप में हम पिछड़ते जा रहे हैं. परिवारिक और सामाजिक ढांचों में पड़ रही दरार के सुराख बड़े हो जाए, इससे पहले हमें संभलना होगा. वरना मशीनी युग में रिश्तों की सिर्फ दुहाई दी जाएगी, निभाना हम सब भूल चुके होंगे. सूचना सेठ के बरक्स यह सूचना उन सभी के हित में जारी हैं, जिन्होंने महत्वाकांक्षा में अपनी आश्यकताएं अनंत कर ली हैं.

शुक्रवार, 19 मई 2023

रोक सको तो रोक लो, जल्द ऐसी सच्ची घटनाओं से प्रेरित फिल्मों की बाढ़ आने वाली है...

90 के दशक में कश्मीर की घाटी से कश्मीरी पंडितों की पलायन की सच्ची घटना को कैमरे के कैनवॉस पर दिखाने की हिम्मत करने वाले निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म “द कश्मीर फाइल्स” ने ऐसा लगता है बॉलीवुड सिनेमा को अपसाइड डाउन कर दिया है। ऐसा लगता है कि सच को सेक्यूलर की चाश्नी में लपेटकर बेचने वाले मुंबईया फिल्मकारों के दिन अब लद गए हैं, क्योंकि सच को सच कहने वाली फिल्मों और फिल्मकारों पर दर्शक लहालोट होने लगी है।


इसकी ताजा बानगी है सुदीप्तो सेन निर्देशित फिल्म “द केरला स्टोरी”। द केरला स्टोरी एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है, जो केरल में कट्टर मुस्लिमों द्वारा हिंदू और ईसाई लड़कियों को “लव जेहाद” का शिकार बनाने और फिर उन्हें आंतकवादी गतिविधियों में संलिप्त करने की कहानी को उजागर करती है। यह फिल्म सच को दिखाने की वजहों से चर्चा में है और सेक्यूलर फिल्मकारों की आंखों में खटक रही है। ऐसा ही दुस्साहस विवेक रंजन अग्निहोत्री द कश्मीर फाइल्स के जरिए पहले किया था और अब “द केरला स्टोरी” दूसरी कड़ी है।

उल्लेखनीय है पारंपरिक बॉलीवुडिया फिल्में सच को सेक्यूलर की चाश्नी में डूबोकर परोसने की हिमायती रही है, जिसमें आतंकी को साधू की तरह पेश करने की मजबूरी होती है। सच को दबाने की यह परिपाटी वाली फिल्में पिछले 7 दशकों तक दर्शकों को परोसा गया है, लेकिन जैसे फोड़े को छुपाने से फोड़ा नासूर बन जाता है, ठीक वैसा ही हाल बॉलीवुड सेक्यूलर फिल्मों के साथ हो रहा है। हकीकत से दूर फसाना परोसने वाली पारंपरिक फिल्मों की हाल उनकी रिलीज के बाद हुए बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से आसानी से समझा जा सकता है।

अब इसी कड़ी में जल्द ही एक औऱ सच्ची घटना पर आधारित फिल्म “टीपू” जुड़ने जा रही है, जो 40 लाख से हिंदुओं को जबरन धर्मांतरण करने और मौत के घाट उतारने वाले आततायी मैसूर के सुल्तान टीपू सुल्तान पर आधारित है। 8000 हिंदू मंदिरों के विध्वंश के दोषी टीपू सुल्तान को महान बताने वाली वामपंथी और कांग्रेसी प्रेरित जुगलबंदी वाले फिल्मकारों ने यह झूठ परोस कर दर्शकों को खूब गुमराह किया, लेकिन अब जब सच का सामना दर्शकों को टीपू के जरिए होगा, तो ऐसे फिल्मकार कहां जाकर मुंह छिपाएंगे। कहते हैं “सांच को आंच नहीं” जैसे ही द कश्मीर फाइल्स को दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया, ठीक वैसा ही दर्शकों का प्यार द केरला स्टोरी को मिलता दिख रहा है। फिल्में समाज का आईना होती हैं, लेकिन सेक्यूलरिज्म के ठेकेदार फिल्मकारों ने इतिहास की तमाम घटनाओं की असलियत छुपाई और उनमें झूठ की मिलावट करके कई दशकों तक दर्शकों को गुमराह करने का पाप किया है, लेकिन देर से ही सही, उनकी कलई खुलने लगी है।

ऐसी उम्मीद है कि आने वाले भविष्य में सच्ची घटना पर आधारित ऐसी फिल्मों की बाढ़ आने वाली है, जिसको दर्शकों का भरपूर साथ मिलेगा और उन तथाकथित सेक्यूलर को मुंह काला होगा। कहने का मतलब है कि दर्शक अब सेक्यूलर फिल्मकारों द्वारा छुपाए गए सच को जानने में कामयाब होंगे। सभी जानते हैं कि इतिहास में ऐसे बहुत राज हैं, जिन्हें सेक्यूलर की चाश्नी में डूबोकर दर्शकों को मूर्ख बनाया गया। आशा है कि नई पीढ़ी के फिल्मकार उन पर भी अब जरूर काम करेंगे, लेकिन दर्शकों की भूमिका भी गंभीर हो जाती है, उनको थियेटर में जाकर ऐसी फिल्मों को देखकर ऐसी फिल्मों का साथ देना होगा, ताकि उन्हें ऐसे विषयों को पर्दे पर लाने और झूठ के आवरण को उन तक पहुंचाने की हिम्मत मिलती रहे।     

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फिल्म फ्लॉप हो या हिट, सलमान खान जैसे स्टार्स की सेहत पर क्यों नहीं होता है असर?

आज का दौर ऐसा है कि फिल्म निर्माण में बड़े ही नहीं, छोटो-छोटे कलाकार भी हाथ आजमाने लगे हैं। तो क्या फिल्म निर्माण में अंधाधुंध कमाई है। हालांकि कईयों को फिल्म प्रोड्यूसर बनने के साथ जेल तक चक्कर लगाने पड़े हैं और कई तो फिल्म प्रोड्यूसर बनने के बाद कंगाली के दौर में पहुंच गए हैं। अब सवाल है कि मुंबई में बनने वाली बॉलीवुड फिल्मों की कमाई का फार्मूला क्या है और सफल फिल्मों का फिल्म प्रोड्यूसर और फिल्म वितरकों के बीच शेयरिंग का क्या फार्मूला है?

 मौजूदा दौर में खान तिकड़ी शाहरूख, सलमान और आमिर खान का अपना प्रोडक्शन हाउस है और तीनों ने अपने प्रोडक्शन में बनी फिल्मों सफलता का स्वाद भी चखा है। हालांकि इस मामले में सबके चहेते सलमान खान शाहरूख और आमिर की तुलना में थोड़ा दुर्भाग्यशाली रहे हैं। उनकी प्रोडक्शन कंपनी एसकेएफ के बैनर तले अब तक 10 फिल्में बनीं हैं, लेकिन अफसोस कि बजरंगी भाईजान को छोड़ सारी फिल्में घाटे का सौदा रही हैं। एसकेएफ की हालिया रिलीज फिल्म ‘किसी का भाई, किसी की जान’ के हश्र से कौन अनभिज्ञ है।

अब लौटते हैं असल मुद्दे पर...सवाल था कि फिल्मों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन और फिल्म निर्माण में पैसा लगाने वाले प्रोड्यूसर्स की कमाई कैसे वितरित होती है। जैसे किसी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ रुपए कमाती है तो उसका डिस्ट्रीब्यूशन कैसे होता है और कोई फिल्म को हिट करार देने का गणित क्या होता है।

हम अभी मौजूदा दौर के फिल्म निर्माण के फार्मूले पर ही बात करेगें, क्योंकि पूर्व में फिल्म प्रोड्यूसर ही अपनी फिल्मों का मालिक होता था, लेकिन अब फिल्म प्रोड्यूसर्स फिल्म बनाकर डिस्ट्रीब्यूटर्स को बेंचकर किनारे हो लेते हैं और कमाई का असली प्रेशर डिस्ट्रीब्यूटर्स के सिर पर होता है, जो वह लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और थियेटर मालिकों को दे देता है।

मान लीजिए सलमान खान प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बनी एक के निर्माण की लागत 200 करोड़ रुपए है। चूंकि फिल्म सलखान खान प्रोडक्शन की है तो 200 करोड़ रुपए में निर्मित फिल्म 250 से 300 करोड़ रुपए में बिकेगी। अब सलमान खान की प्रोडक्शन हाउस ने बिना अतिरिक्त पैसा खर्च किए 50-100 करोड़ रुपए अपनी में जेब में डाल लिया। अब फिल्म चले न चले सलमान खान को कुछ लेना-देना नहीं, क्योंकि फिल्म अब डिस्ट्रीब्यूटर्स द्वारा खऱीद ली गई है।  

 अब डिस्ट्रीब्यूटर्स फिल्म के प्रमोशन पर 20-40 करोड़ खर्च करके लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स के जरिए थियेटर में रिलीज करवाती है और फिल्म की साप्ताहिक कमाई के आधार पर बॉक्स ऑफिस कलेक्शन निर्धारित किया जाता है। अब अगर 20 करोड़ रुपए प्रमोशन का जोड़ दें तो डिस्ट्रीब्यूटर्स को यह फिल्म 270 करोड़ रुपए में पड़ती है। हालांकि अगर फिल्म के म्युजिक राइट्स और सेटेलाइट की कमाई डिस्ट्रीब्यूटर्स के लागत जीरो बना देती है।

जी हां, फिल्म के सेटेलाइट और म्युजिक राइट्स बेंच कर ही अधिकांश डिस्ट्रीब्यूटर्स की लागत जीरो हो जाती है। आपने भी सुना और पढ़ा होगा कि रिलीज से पहले ही फलां फिल्म ने 400 करोड़ की कमाई कर ली, अब चाहे फिल्म थियेटर में चले न चले डिस्ट्रीब्यूटर्स को कानों में जूं नहीं रेंगता। यह ठीक वैसे ही है, जैसे फिल्म प्रोडक्शन हाउस डिस्ट्रीब्यूटर्स को अपनी फिल्म को एक अच्छी रकम पर बेंचकर कर नफा-नुकसान से मुक्त हो जाते हैं।

 अब बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और थियेटर मालिक की कमाई सुनिश्चित होती है। यानी दर्शक फिल्म देखने पहुंचे तो फिल्म कमाई करेगी और फिल्म कमाई करेगी तभी लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिकों को लाभ होगा। अगर फिल्म थियेटर पर चलती है और प्रमोशन लागत के साथ 270 करोड़ की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर 210 करोड़ रुपए भी कमाने में कामयाब हो जाती है, तो फिल्म को सुपरहिट करार दे दिया जाता है और फिल्म की साप्ताहिक कमाई को टैक्स अदायगी के बाद को लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक के बीच 60-40 फीसदी (पहला सप्ताह) फिर 50-50 फीसदी (दूसरा सप्ताह) और 40-60 फीसदी (तीसरा सप्ताह) के बीच बंटता जाता है।  



उदाहरण सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘किसी का भाई, किसी की जान’ का लेते है। सलमान खान अभिनीत इस फिल्म की लागत 150 करोड़ प्रमोशन समेत रुपए थी, लेकिन फिल्म ने 20वें दिन घुटने टेक दिए हैं, और उसकी कुल कमाई 110 करोड़ तक भी नहीं पहुंच सकी है। इस तरह फिल्म लागत से 40 करोड़ रुपए घाटे में पहुंच गई है। इससे लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक दोनों को लंबा चपत लग चुका है।

सलमान खान और उनके डिस्ट्रीब्यूटर पार्टनर के लिए यह किसी बड़े धक्के से कम नहीं है। भले ही सलमान और उनके पार्टनर जी स्टूडियो को नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक अगली बार सलमान की फिल्मों पर आगे भी रूचि दिखा पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी। 

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2024 लोकसभा चुनाव: बीजेपी के लिए सिरदर्द बनेगा मोदी Vs योगी की प्रतियोगिता

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के निहितार्थ यह बात कितनी ही खरी या खोटी हो, लेकिन अभी यह लोग सोचने को तैयार नहीं होंगे कि आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी को योगी टेकओवर करने को तैयार हो गए हैं। इसकी बानगी उत्तर प्रदेश में हुए निकाय चुनाव के रिजल्ट हैं, जिसमें प्रदेश के 17 नगर निगमों में बीजेपी के चुनकर आएं है। यह बहुत बड़ी जीत है। यह जीत गुजरात विधानसभा से भी प्रचंड जीत कही जा सकती है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पूर्व बीजेपी हिमाचल विधानसभा चुनाव और पंजाब विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी है, जिसका श्रेय और सेहरा प्रधानमंत्री मोदी को ही दिया जाएगा। इसमें बीजेपी अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा की भूमिका सिर्फ चुनाव मैनेजमेंट ही आया है, चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ा गया था, तो धूल-धूसरित उनका ही चेहरा होगा।



तो क्या यह माना जा सकता है कि यह चुनाव प्रधानमंत्री को आखिरी चुनाव होगा और अगर यह प्रधानमंत्री मोदी का आखिरी चुनाव है, तो प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे में बीजेपी लोकसभा चुनाव 2024 की वैतरणी पार कर पाएगी। निः संदेह बीजेपी आलाकमान प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही लोकसभा चुनाव 2024 का चुनाव लड़ेगी, लेकिन क्या कर्नाटक, हिमाचल और पंजाब के चुनाव परिणामों के मद्देनज़र यह दांव निशाने पर लगेगा।

उत्तर प्रदेश में दूसरी बार पूर्ण बहुमत से चुनकर आए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की छवि दिनोंदिन बेहतर होती गई है। एक कुशल प्रशासक के रूप में सीएम योगी की प्रसिद्ध प्रादेशिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर फैली है। सवाल है ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में बीजेपी आलाकमान योगी को मोदी के विकल्प के रूप में सोचने के लिए मजबूर कर सकती है।

यह बात कड़वी भले हो, लेकिन सच है कि कई मोर्चे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई कार्यशैली ने बहुसंख्यक हिंदुओं को परेशान किया है। इसका कारण बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रधानमंत्री मोदी से बढ़ती अपेक्षाएं दोषी हो सकती है। इसे भारतीय क्रिकेट के सबसे करिश्माई कप्तान एमएस धोनी के करियर की ढलान और आखिरी ओवर में चौके-छक्के लगाकर टीम को अपेक्षित जीत नहीं दिला पाने की असमर्थता से देखा जा सकता है।

प्रधानमंत्री मोदी संभवतः उसी दौर से गुजर रहे हैं, जहां उनके करिश्में पर ग्रहण सा लगता दिखा है। अब ऐसे में बीजेपी आलाकमान के लिए 2024 लोकसभा चुनाव मंथन का विषय बन गया है। बीजेपी के खिलाफ यह मोमेंटम लोकसभा चुनाव के लिए घातक साबित हो जाए, इससे पहले बीजेपी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव से पूर्व कुछ नया सोचना पड़ेगा। वरना तीनों प्रदेशों में जीती हुई बाजी बीजेपी के हाथ से फिसलते देर नहीं लगेगी।

यह बात दीगर है कि 2024 लोकसभा चुनाव से पूर्व तीनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए सेमीफाइनल मैच की तरह होंगे और 2024 लोकसभा चुनाव में जीत के लिए इन तीनों प्रदेशों में बीजेपी का नॉकआउट ही उसे फाइनल में बड़ी जीत की ओर ले जा सकता है। ऐसे में यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ 2024 लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए तुरूप को इक्का साबित होंगे, इसमें किसी को संदेह नहीं होगा।      

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अब आएगा मजा, जब कर्नाटक के दो बड़े नेता काम करेंगे कम और चिल्लाऐंगे ज्यादा

अब आएगा असली मजा...जब कर्नाटक में पावर गेम के लिए दो कांग्रेसी नेताओं का नाटक हर दिन वहां की जनता फ्री में देख सकेगी। प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का मजा वहां की जनता को कांग्रेस अब अपने दो बड़े नेताओं की नूराकुस्ती से दिलाएगी। जहां "अब चील उड़ेगी कम, चिल्लाएगी ज्यादा।"
मतलब अब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह कर्नाटक में भी प्रदेश सरकारें विकास कार्यों के लिए नहीं, बल्कि दो नेताओं की मुर्गा युद्ध से जनता का मनोरंजन करेगी। यह तमाशा राजस्थान की जनता पिछले 5 साल से देख रही है, जहां जनता से मिले पूर्ण जनादेश को कांग्रेस ने अपने दो नेताओं की निजी पावर गेम की भेंट चढ़कर प्रदेश को मिट्टी में मिला दिया है।

पिछले 5 साल से वहां की जनता सचिन पायलट और अशोक गहलोत की नूराकुश्ती देख रही है और सिर धुन रही है। कर्नाटक की जनता ने राजस्थान से सबक नहीं लिया, और लगता है निकट भविष्य में कर्नाटक में मध्य प्रदेश दोहराया जाने वाला है, जहां वैसा ही सत्ता परिवर्तन करके डीके शिवकुमार कांग्रेस को ठेंगा दिखा सकते हैं।
मजेदार यह है कि आखिर कांग्रेस जनता से मिले अच्छे खासे जनादेश का कबाड़ा क्यों कर देती है। सचिन पायलट, ज्योतिरा सिंधिया और डीके शिवकुमार की मेहनत को दरकिनार कर वो बूढ़ों को क्यों आगे कर देती है, और ऐसे बचकाना फैसले जनादेश की मटियामेट कर वह क्या हासिल करती है। जबाव सबको पता है, लेकिन सवाल है ऐसे वह अपनी तिजोरी कब तक भरेगी।


अव्वल तो कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार चलेगी नहीं, और अगर राजस्थान की तरह चल भी गई तो डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया की आपसी टशन में कर्नाटक की जनता का भला होने वाला नहीं है। अधिक संभावना है कि मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह डीके शिवकुमार कांग्रेस को एक और झटका देंगे।
कांग्रेसी आलाकमान इन सभी राजनीतिक उठापटक और गुजाइशों से परिचित है, लेकिन फिर भी वो जनता के जनादेश का अपमान करके नूराकुश्ती वाली सरकार का गठन करती हैं ताकि वह गांधी परिवार के नमक हलाल नेताओं में शुमार हो सकें। सरकार बच गई तो विपक्ष को दोषी ठहरा कर वो भोली भाली जनता को फिर ठग लेंगे और अपने नकारेपन से फारिग हो चुनाव में चले जाएंगे।

मंगलवार, 2 मई 2017

दहेज को कोसिए, लेकिन खुद को भी कोसना जरूरी है?


शिव ओम गुप्ता
भारतीय परंपरा में पैतृक संपत्ति में पुत्रियों का हक दहेज के रुप में देने का प्रचलन रहा है, क्योंकि शादी के बाद पुत्र ही पैतृक संपत्ति में बंटवारा करते हैं, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि पुत्री को पैतृक संपत्ति में उसका हिस्सा दहेज में दिया जा चुका होता है?

क्योंकि बहन व बेटी की शादी होने के बाद भाई व पिता (कानून कुछ भी हो) वैयक्तिक रुप से घर-जायदाद में बेटी व बहन को हिस्सा देना अथवा उन्हें हिस्सा बनाना कभी मंजूर नहीं करते? वहीं, बहन, बेटी और स्त्री (आधीन) में बंटी लड़की कभी समझ ही नहीं पाती कि "बेटी की घर से डोली और ससुराल से अर्थी उठती है" वाला जुमला क्यों गढ़ा गया है?

बेचारी बनीं ऐसी बेटियां, बहनें और महिलाओं को हमारा समाज त्याग और बलिदान की मूर्ति बनाकर ऐसे बलि बेदी पर चढ़ा देता है कि वो उफ तक नहीं कर पातीं! शायद यही कारण होता है जब ससुराल पहुंचते ही बहू, बेटी और लड़की धन-जायदाद पर अपना स्वाभाविक हक हासिल करने के लिए पहले पति और फिर उसके परिवार के इमोश्नल ड्रामें में नहीं फंसती है?

तो अब किसी भी बहू, बेटी और महिला पर परिवार तोड़ने का आरोप लगाने से पहले अपनी बौद्धिक क्षमता को टटोलिए, फिर अपनी जड़ हो चुकी सामाजिक मान्यताओं को कोसिए और बाद में उसकी तुच्छ सोच की लानत-मलानत कीजिए, क्योंकि मायके में हकों और अधिकारों से महरूम व असुरक्षित बेटी ससुराल में बेटी बनकर इसीलिए नहीं रह पाती है, क्योंकि हमारे वर्तमान सामाजिक ढ़ांचे में महिलाओं को वास्ता देकर इमोश्नल मूर्ख बनाने की बड़ी पुरानी परंपरा है!

क्योंकि अपने प्राकृतिक, वैयक्तिक और कानूनी हकों व अधिकारों के मिलने के भरोसे में अपना सब कुछ न्यौछावर कर चुकी ऐसी बेटियां, बहूएं और महिलाएं हमेशा अपनों से (पिता- भाई, ससुर-पति) धोखा खाती आई हैं, तो आगे से किसी बहू, बेटी व महिला को घर तोड़ने अथवा उसे कोई उपाधि देने से पहले उसके मानसिक और आर्थिक पहलुओं पर जरूर गौर कीजिए, जबाव आपको स्वत: मिल जाएगा!

बुधवार, 3 अगस्त 2016

ये दलित क्या होता है बे?

शिव ओम गुप्ता
ये दलित क्या होता है बे, तुम लोगों ने उन्हें मुख्यधारा में लाना ही नहीं है। गरीब ठीक है, अति गरीब ठीक है, लेकिन दलित क्या होता है? यह साजिश नहीं है तो क्या है? कहते हैं जिसको जिस नाम से पुकारों इंसान उसी छवि से बंधा रह जाता है और खुद को उसमें कैद कर लेता है।
सही तो यह है कि कोई भी किसी भी वर्ण/जाति/संप्रदाय से आता है उसको उसके कर्म और ज्ञान के आधार पर पहचान मिलनी चाहिए। भले ही वह क्षत्रिय, ब्राह्मण अथवा वैश्य के घर में पैदा हुआ हो।
क्योंकि अगर क्षत्रिय के घर वैश्य कर्म वाला, ब्राह्मण के घर क्षत्रिय और वैश्य के घर ब्राह्मण पैदा हो सकता है तो क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य के घर में शूद्र भी पैदा होते हैं और हम उन्हें खुली आंखों से देखते भी हैं। 

जरूरत है कि हम दलितों के बारे में अपनी दूषित राय बदलें?
मैं दलितों द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने की धमकी को सकारात्मक रुप में ले रहा हूं, क्योंकि यह एक नई दलित क्रांति साबित हो सकता है और यह दलित उत्थान और दलित नवचेतना का द्योतक है।
इसी बहाने कम से कम हिंदू धर्म के सर्वेसर्वा दलितों के बारे में सोचना शुरू करेंगे और उनके बारे में अपनी मानसिकता को बदलने को मजबूर होंगे।
दलितों के प्रति लोगों की मानसिकता अभी भी दूषित है और अब जब दलित हिंदू धर्म छोड़ने की धमकी दे रहें हैं तो संभव है अन्य हिंदू धर्मावलंबी दलितों के साथ अपने व्यवहार और मानसिकता में बदलाव लाने को मजबूर हों।
वैसे भी कहते हैं कि हक मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है और मैं दलितों की धमकी को इसी रुप में देखता हूं। अब यह हम पर है कि हम उन्हें उनका सम्मान कितनी जल्दी लौटाना पसंद करेंगे या अक्ल सब कुछ गंवाने के बाद आयेगी।
क्योंकि दलितों को हमारे एहसान की नहीं, हमारे सम्मान की जरुरत है और हमें उन्हें अब लौटाना ही होगा। 

मोदी सरकार पर देश ही एनआईआई नागरिकों में बढा भरोसा

हिंदुस्तान में जब से मोदी सरकार आई है विदेशों में रह रहे भारतीयों में अपनी मुश्किलों और समस्याओं को लेकर सजगता बढ़ी है। पहले या तो उनकी सुनवाई नहीं होती थी या एनआरआई भारतीयों को पूर्ववर्ती सरकारों पर इतना भरोसा नहीं था कि मदद भी होगी?
क्योंकि ऐसी खबरें मीडिया के किसी भी माध्यम में न के बराबर सुर्खियों में रही हैं? आज की खबर है कि सउदी अरब के जेद्दा शहर में 10,000 से अधिक बेरोजगार भारतीय भूखे मरने को अभिसप्त हैं। पता चला है कि उन्होंने मोदीे सरकार से खुद के बचाने की गुहार की है।
हमेशा की तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने मामले को संज्ञान में लिया है और जेद्दा में बेरोजगार और भूखे भारतीयों की मदद के लिए आगे आईं हैं और सउदी अरब में मौजूद भारतीय दूतावास से उन्हें मुफ्त आनाज वितरित करवाने का आदेश दिया है।
मुझे याद है जब से मोदी सरकारों वजूद में आई है तब से सैंकड़ों ऐसे मामले सामने आए हैं जब सुषमा स्वराज एंड टीम ने विदेशों में फंसे भारतीयों की मदद और उनके बचाव के लिए आगे आई है।
नि: संदेह सरकार की सक्रियता से विदेशों में बसे भारतीयों में एक नया विश्वास और भरोसा बहाल हुआ है वरना परेशानी में पहले भी भारतीय रहे होंगे, लेकिन सुर्खियां अखबारों की अब ही देखने को मिल रही हैं।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

चुप मत बैठिए, आईएस को इस्लाम का ठेकेदार से बनने से रोकिए?

शिव ओम गुप्ता
विश्व समाज में बुराई के प्रतीक बन चुके आईएस आतंकियों के लगातार आतंकी हरकतों ने एक बात साफ कर दिया है कि इनका समूल विनाश निकट है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन क्रूर चरमपंथियों ने इस्लाम के अनुयायिओं के खिलाफ एक विचित्र सा बीज रोप दिया है, जिससे हरेक को संदेह और अविश्वास से देखा जाने लगा है?
कहने को फ्रांस के नीस में हुआ आतंकी हमला आईएस आतंकियों का एक जबावी हमला है, जिसमें भीड़ में खड़े लोगों को बारूद से भरा एक ट्रक रौंदता हुआ चला गया, इसे आतंक का एक और बर्बर स्वरुप कहा जा सकता है!
फ्रांस में हुए ऐसे बर्बर हत्याकांड में तकरीबन 80 निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं, जिसके लिए फ्रांस सरकार का इस्लामी अनुयायिओं के विरुद्ध लिए गए कड़े फैसलों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, लेकिन सवाल उठता है, ऐसी बर्बरता से क्या इस्लामिक अनुयायिओं के खिलाफ वैश्विक समाज के मन-मस्तिष्क में संदेह और अविश्वास के रोपे गए बीज अंकुरित नहीं हो रहे होंगे?
अभी भी वक्त है कि इस्लाम धर्म के अनु़यायी और इस्लामी अनुयायिओं के नेता घरों में दुबकने के बजाय बाहर निकलें और आईएस जैसे दुर्दांत आतंकियों की मुखालफत और मुजम्मत करें और उनको सीधे शब्दों में बताएं कि विश्व का कोई भी सच्चा मुसलमान ऐसे इस्लाम रक्षकों के साथ नहीं हो सकता है, जिन्होने उन्हें उनकी ही जमीन, उन्हें उनके अपने घर और उन्हें अपने हीे देश में संदेह और अविश्वास का प्रतीक बना दिया है!
जहां उन्हें उनका ही पड़ोसी, जहां उनकी ही पुलिस और जहां उनकी ही सरकार उन्हें शक की निगाह से देखने लगी है और एहतियात बरतने को मजबूर है, ठीक फ्रांस की तरह और फ्रांस में हुए इस बर्बर हत्याकांड के बाद इस शक, संदेह और अविश्वास की जड़ें और अधिक गहरी होंगी ही होंगी?
तो चुपचाप मत बैठिए, घरों बाहर निकलों और इससे पहले कि आईएस जैसे चरमपंथी आतंकी इस्लाम को टेकओवर कर लें, उन्हें बताएं कि इस्लाम की रक्षा के लिए विश्व के किसी भी मुसलमान को आईएस की जरूरत नहीं है, ये आईएस खुद ब खुद जहन्नुम पहुंच जाएगा!
क्योंकि उनको गलतफहमी हो चली है कि विश्व का अधिकांश मुसलमान उनको कहीं न कहीं से सपोर्ट करता है और उनकी गलतफहमी की वजह आप अब समझ चुके हैं, तो टीवी बंद कीजिए, घरों से बाहर निकलिए और आईएस को उनकी जगह बताइए वरना बहुत देर हो जाएगी?

शुक्रवार, 10 जून 2016

रिमोट हाथ में हो तो कौन उठकर चैनल बदलता है यार ?

जिस दिन से लोगों ने साल, महीना और दिन में छोड़कर अपनी जिंदगी घंटे, मिनट और सेकेंड में जीना शुरु कर दिया उस दिन से सारे खुद ब खुद सुखी हो जायेंगे।

क्योंकि इंसान की सभी मुश्किलों का जड़ डर है और यह डर ही इंसान को आज और अभी में नहीं, बल्कि अगले साल, अगले महीने और अगले दिन में ढ़केलता रहता है और अफसोस है कि वह अगला साल, महीना और दिन उसकी जिंदगी में कभी नहीं आता है।

तो यारों छोड़ों अगले साल, अगले महीने और अगले दिनों का चक्कर और घंटे, मिनट और सेकेंड में हासिल हो रहीं खुशियों में जिंदगी का आनंद लीजिए, क्योंकि कल कभी नहीं आता है?

और जो लोग कल लाने का दंभ भरते है वे खुशियां इकट्ठा करने के लिए भ्रष्टाचार जैसे अनगिनत बीमारियों का शिकार होकर अपनी ही नहीं, बल्कि अपनी 7 पुश्तों का साल, महीना और दिन खराब कर जाते हैं, क्योंकि रिमोट हाथ में होने पर कोई चैनल उठकर नहीं बदलता है बे?
#Zindagi #Livelihood #Lifestyle #Life #Happiness

गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

बीजेपी के चुप होते ही खत्म हो जायेगा कन्हैया?

बीजेपी ने जितनी बड़ी गलती दिल्ली में केजरीवाल को अंडरइस्टीमेट करने में की थी, वह उससे भी बड़ी गलती छछुंदर कन्हैया के मामले में कर रही है।

छोड़ो साला कन्हैया-फन्हैया को, मरन दो ससुरे को, जो जी में आये करे, जो जी में आये बोले, जब जनता में  माइलेज नहीं मिलेगा तो लौट जायेगा ससुरा अपनी मांद में, नाहक ससुरे को महत्व पर महत्व दिये जा रहे हो?

अरे कौन ऐसा देशवासी होगा जो भारत मां के खिलाफ बोलने वाले को पानी तक पूछेगा, ये तुन लोगों की बेवकूफी ने उसको हीरो बना दिया, कुछ करना ही नहीं था, जेएनयू प्रशासन को कुछ ठीक लगता, तो करता, नहीं करता तो वो भी ठीक होता, कम से कम साला सिम्पैथी तो नहीं बटोर पाता, जैसे दिल्ली में केजरीवाल बटोर ले गया?

ससुरा बड़का नेता बन गया है, एरोप्लेन में घूम रहा है और बत्तीसी निकाल के दिखा रहा है। लिख के ले लो, जिस दिन बीजेपी ने ध्यान देना बंद किया, ससुरे की सारी टे-टे टांय-टांय फिस्स हो जायेगा।

अमित शाह की बहुत बड़ी राजनीतिक भूल है, जो चीजों को अंडरइस्टीमेट करके चलते हैं। दिल्ली को अंडरइस्टीमेट किया तो केजरीवाल निकल गया, बिहार को अंडरइस्टीमेट किया तो लालू निकल आया और कन्हैया को अंडरइस्टीमेट करके कुछ नहीं तो सांसद बन ही जायेगा ससुरा?

मरन दो साले को, भौंकने दो जो भौंकता है, कोई कुछ नहीं डालेगा तो कू-कू करके निकल जायेगा?
#KahaiyaKumar #JNU #Left #CPIM #Modi #AmitShah