![]() |
शिव ओम गुप्ता |
अपनी मनपंसद के काम करने के लिए मुझे 24 घंटे भी कम मालूम पड़ते हैं, लेकिन 8 घंटे ऑफिस में बैठने के लिए कंपनी स्टैंडर्ड की जितनी भी सैलेरी परोसती है उसे बोनस मानता हूं (और फिर रूम रेंट वगैरा भी तो निपटाना होता है)
न हताशा, न प्रत्याशा ? बल्कि खुशी! कि जो करना चाहता हूं वो कर रहा हूं, पैसा कमाना कभी मेरी शौक में ही शामिल नहीं रहा, क्योंकि पैसे बचपन से कमा रहा हूं, कसम से!
हालांकि तथाकथित बुद्धिजीवी और निहायत ही परजीवी टाइप के लोगों को मेरी बातें हजम नहीं होंगी?
सवाल उठाते हुए कहेंगे, 'भैय्या, करने को तो हम भी जर्नलिज्म करने आए थे, लेकिन जर्निलज्म अब होता कहां है?'
डॉयलाग भी मारेंगे, "तुम्हारे आदर्शों और जर्नलिज्म को गूंथ कर रोटी नहीं बनाई जा सकती"
मत बनाओ रोटी, और क्यूं बनेगा रोटी? रोटी बनानी है तो ढाबे की दुकान खोलो, रोटी ही नहीं, नॉन-बटर नॉन बनाओ, लेकिन जर्नलिज्म को जर्नलिज्म ही रहने दो?
क्योंकि जर्नलिज्म को रोटी बनाने वालों ने ही इसको चोटी से उतार कर बोटी-बोटी किया है और अब आपस में बांटकर खा रहें हैं!
बावजूद इसके मैं अपनी जर्नलिज्म से खुश हूं, क्योंकि मुझे मांगकर नहीं, पाकर खुशी मिलती है...मसलन, मुझे कोई मेरे पसंदीदा काम की एवज में आगे बढ़ने का मौका दे रहा है?
कोई मेरे द्वारा मुझसे कमाई कर रहा है तो कमाए मुझे क्या? क्योंकि अगर कमा रहा तो बांट भी रहा है, किसी को 20 टका मिल रहा है तो वहीं किसी को 20 करोड़ भी दे रहा है...
और हां, जर्नलिज्म करते हुए यदि कोई कंपनी मुझे 20 टका से बढ़ाकर 20 लाख देती है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, बनिया हूं भाई...पैसे ने किसी को काटा है कभी? हां, नौकरी करते हुए तो करोड़पति भी बनते-बिगड़ते रहते है!
चूंकि मैं सौभाग्य से बनिया हूं इसलिए समझता हूं कि पैसे काम पर खर्चे जाते हैं नौकरी या नौकरी करने वाले पर नहीं?
अब अगर आप जर्नलिज्म करने निकले हैं तो जर्नलिज्म ही करना पड़ेगा? लेकिन अधिकांश जर्नलिज्म की नौकरी करने आए है, जहां जर्नलिज्म छोड़ वो सब करते है, तुर्रा यह कि कहेंगे, 'अब वो जर्नलिज्म कहां? अब जिसके पास पैसा वहीं बड़ा जर्नलिस्ट?'
फिर कहेंगे अब वो मिशन जर्नलिज्म कहां है, अब तो चोरी, बलात्कार और सेक्स की खबरें बिकती हैं?
अब सवाल उठता है कि मिशन जर्नलिज्म क़्या बला है? भई, गुलामी के दौर में अग्रेजों के अन्यायों को उदघाटित करते लेख और न्याय की गुहार की रिपोर्टिंग को ही मिशन जर्नलिज्म कहते है?
तो क्या हमारे देश में सबको न्याय मिल गया, कोई शोषित, वंचित और अश्पृश्य नहीं बचा, जिन पर हो रहे अन्या़यों की रक्षा के लिए हमारे कंप्युटर के की बोर्ड न्याय की गुहार वाली रिपोर्टिंग व आर्टिकल छाप सके?
जर्नलिज्म में पैसा कमाने आए हो तो पैसा कमाओ, बातें मत बनाओ? बड़े आए मिशन जर्नलिज्म का डेफिनेशन बताने वाले?
तो पैसा ही कमाओ भैय्या, वैसे पैसे ही कमाना है तो जर्नलिज्म में क्या कर रहे हो, जाओ कोई और काम करो, जिसमें नैतिकता और मूल्यों का कोई लोचा नहीं है और दबा कर कमाओ?
कम से कम तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से जर्नलिस्ट बताते ही पुलिस वाला दो सोटे अधिक तो नहीं मारेगा?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें