शिव ओम गुप्ता
यकीन मानिए फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइटों ने लोकतांत्रिक आंदोलनों को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया है। इसमें दो राय नहीं कि कल जन आंदोलनों के लिए प्रसिद्ध प्रमुख ऐतिहासिक स्थल जंतर-मंतर और संसद भवन जैसे तमाम स्मारक वीरान हो जाएं।
आधुनिक टेक्नोलॉजी के संक्रमण और प्रचलन ने निश्चित रूप से लोकतांत्रिक आंदोलन के स्वरूपों और स्वभावों में भी परिवर्तन ला दिया है। लोकतांत्रिक और सामाजिक हितों की कवायद के लिए कल आयोजित होने वाली रैली और महारैलियों के लिए क्या नई जनरेशन के पास समय होगा? गारंटी से नहीं कहा सकता। ऐसे में लोकतांत्रिक मुद्दों पर जनता का समर्थन पाने के लिए सोशल साइट्स और टेक्नोलॉजी एक बेहतर विकल्प के रूप में उभर कर सामने आएं हैं, जहां नई जनरेशन बिना अपना समय जाया किए अपने रूख और समर्थन को आसानी से रख पाती है।
गांधीवादी नेता अन्ना हजारे शायद इस वास्तविकता से वाकिफ थे। उन्होंने भ्रष्टाचार और जन लोकपाल विधेयक मुद्दे पर नई जनरेशन से समर्थन पाने के लिए नई टेक्नोलॉजी का सहारा लिया। आमरण अनशन पर बैठने से पहले उन्होंने जनता से मिस्ड कॉल समर्थन की दुहाई की, जिसमें खासकर नई जनरेशन ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस दौरान उन्होंने फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल साइटों पर जनता से भ्रष्टाचार सहित अन्य मुद्दों पर लाइव चर्चा की और समर्थन भी प्राप्त किया। यकीनन अन्ना का यह शिगुफा काम कर गया। शायद समय का तकाजा भी यही है, क्योंकि भागमभाग और रस्साकसी से भरी जिंदगी में फंसे लोगों के पास समय ही तो नहीं है। सवाल यह है कि अभी तक राजनीतिक रैलियों के लिए बसों और ट्रेनों से भीड़ जुटाने वाले नेता क्या कल भी प्रबुद्ध् जनरेशन को भीड़ तंत्र का हिस्सा बना सकेंगे, कहना मुश्किन है। राइट टू एजुकेशन और राइट टू इंफरमेशन कानून ने नई जनरेशन को ही नहीं, कभी हासिए पर रहे उनके अभिभावकों को भी अपने अधिकारों के प्रति लड़ने के लिए सचेत कर रही हैं।
भारतीय दूर संचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में तेजी से मोबाइल और इंटरनेट उपभोक्ताओं और उपयोगकर्ताओं की संख्या में इजाफा हुआ है। यही नहीं इंटरनेट जैसी सुविधाओं से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे भी वाकिफ हो चुके हैं।
वक्त बदल रहा है, जनता भी बदल रही है, नेता कब बदलेंगे?
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