गुरुवार, 29 जनवरी 2015

देश के लिए विध्वंशकारी है केजरीवाल की राजनीति!

केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में ऐसी गंध फैला दी है कि राजनीति में सुचिता और नौतिकता जो बची है वो भी चौपट हो जायेगी।

किसी भी देश के राजनीतिकों में वसूल और नैतिक मूल्‍य खत्म हो जाये तो उस देश का पतन भी शुरू हो जाता है, जैसा कि पड़ोसी मुल्क में हुआ है,  जहां की जनता राजनीतिकों और दहशतगर्दों के बीच हमेशा बंटी रहती है और देश बर्बाद हो जाता है?

कुछ ऐसी ही तरह की राजनीति केजरीवाल टाइप का मकौड़ा कर रहा है,  वह दिन दूर नहीं जब भारतीय राजनीति में भी सुचिता और नौतिकता खत्म हो जायेगी,  जिसके दोषी और जिम्मेदारी सिर्फ देश के वोटर्स होंगे।

हमारे देश में राजनीतिक कैसे भी हों,  लेकिन उनमें लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमी है। भारतीय इतिहास की अब तक सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दलों में सुचिता और नौतिकता हमेशा जिंदा रहती हैं, लेकिन केजरीवाल ने ऐसी अराजक, झूठ और आरोपों वाली राजनीति शुरू की है जो नौतिकता और वसूलों आधारित राजनीति को ध्वस्त कर रही है ।

भारतीय लोकतंत्र और भारतीय राजनेताओं (जिनमें AAP को छोड़कर सभी पार्टियां शामिल हैं) की एक खूबसूरती और पहचान रही है कि चुनाव में मिली हार को स्वीकारने में वे देर नहीं लगाते, भले ही किसी पार्टी की सरकार 10 वर्ष या 15 वर्ष सत्ता में क्यों न रही हो,  साफगोई से हार स्वीकार करते हैं और सत्ता छोड़कर चुनाव जीतने वाले दूसरे दल को सत्ता सौंप देते है!

लेकिन केजरीवाल की अराजक और नौतिकता विहीन राजनीति को देख सुनकर डर लगता है कि अगर राजनीति से नौतिकता और सुचिता खत्म हो गई तो भारत और पड़ोसी मुल्क की राजनीति में अंतर खत्म हो जायेगा?

अब देश की जनता को तय करना है कि वो कैसा देश और राजनीतिक चाहते है, क्योंकि केजरीवाल की राजनीति में नौतिकता, सुचिता और वसूल छोड़कर कर सब-कुछ है, चुनाव आपको करना है कि आपको कैसा देश चाहिए?

क्योंकि केजरीवाल की राजनीतिक गंदगी देश में ऐसा जहर फैला रही है, जिससे कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रह पायेगा!

सत्ता पाने के लिए,  वोट पाने के लिए और मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए केजरीवाल भारतीय राजनीति में ऐसे बीज रोप रहा है, जिसमें निराधार झूठ, आरोप और छल  हैं, जो देश को गर्क में ही ले जायेगा!

सोचिये,  अगर राजनीति में नौतिकता, सुचिता, वसूल और शर्म खत्म हो गई तो भारतीय राजनीति का कैसा विद्रूप चेहरा हो सकता है, जो भारत को पाकिस्तान भी तब्दील कर सकता है?

पाकिस्तानी राजनेताओं की हैसियत कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है, वहां की जनता पार्टियों को वोट तो जरुर देती है लेकिन देश की बागडोर कई लोगों के हाथ में बंटी रहती है?

तो कैसा देश चाहते है आप? अराजक पसंद और झूठ फैलाकर राजनीति करने वाले केजरीवाल की राजनीति नि:संदेह देश के लिए विध्वंशकारी है, निर्णय वोटर्स को करना है, क्योंकि देश के वोटर्स ही देश का मुस्तकबिल बनाते है, चाहे वो अच्छा हो या बुरा?

#केजरीवाल #AAP #KEZRIWAL #DelhiPoll

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

कांग्रेसी क्यों भस्मासुर की तरह व्यवहार कर रहें हैं?

कांग्रेसी नेता उस भस्मासुर की तरह व्यवहार कर रहें हैं जो खुद को ही अंतत:भस्म कर लेता है। मोदी सरकार के विरोध वो जो कुछ भी करते हैं वो उनके खिलाफ जाते हैं।

कांग्रेस के एक से एक बुद्धजीवी नेता ऐसे फस्ट्रेशन वाले मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं जो फिजूल हैं, उनकी बातें सुनकर ऐसा लगता है कांग्रेसी नेताओं ने भस्मासुर वाला हाथ खुद के सिर पर रख लिया हो और पूरी तरह से भस्म होने को तैयार हैं ?

सच कहूं तो कांग्रेस मुक्त भारत के लिए कोई और कांग्रेसी नेता ही काफी जिम्मेदार हैं, इन्हें किसी और की जरूरत ही नहीं है!

मतलब, क्या बोलना चाहिए, किस पर बोलना चाहिए इसकी भी अक्ल नहीं है। राहुल गांधी (पप्पू) कह रहें हैं कि अमेेरिकी - भारत संबंध केवल मोदी की पर्सनल पीआर करते हैं, हद है पप्पूगिरी की,  तो भाई तू भी कर लेता?

उधर, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अमेेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा को बराक कहने पर लोग रो-गा रहें हैं। भई, दो राष्ट्र प्रमुखों का अपना कंफर्ट लेबल है तो वो कैसे भी बात करेंगे उन्हें तय करने दें!

बराक ओबामा के तीन दिवसीय दौरे में हजार अच्छी बातें और करार हुई, लेकिन ये उसकी बातें नहीं करेंगे, क्योंकि इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करनी पड़ेगा, लेकिन ऐसा न करके कांग्रेसी नेता फिजूल की बातें कर रहे हैं, जो गैर जरूरी ही नहीं, वाहियात भी है!

#Congress #NAMO #Modi #Obama

आचार संहिता का लगातार उलंघन: केजरीवाल का कोई स्केप प्लॉन तो नहीं है?

केजरीवाल लगातार चुनावी आचार संहिता का उलंघन कर रहे हैं, "पैसा सबसे लो और वोट AAP को दो" के खिलाफ शिकायत होने के बावजूद केजरीवाल नहीं रुके और दूसरे दिन भी लोगों से यही बात दोहराई!

अभी दिल्ली बीजेपी की मुख्यमंत्री उम्मीदवार किरण बेदी को अवसरवादी* और खुद को ईमानदार* ठहराने वाले पोस्टर बतलाते हैं कि केजरीवाल आसन्न पराजय से भयभीत तो जरूर हो गया है और लगातार चुनाव आयोग की अवमानना कर रहा है!

कहीं केजरीवाल भागने की फिराक में तो नहीं है,  क्योंकि लगातार चुनाव आयोग चेतावनी दे रहा है और केजरीवाल लगातार मनमानी कर रहा है और आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रहा है?

आज एक बार फिर चुनाव आयोग ने केजरीवाल को आचार संहिता उलंघन करने के लिए चेतावनी दी है? क्या यह केजरीवाल का स्केप (Escape plan) प्लॉन है, जिससे उसकी उम्मीदवारी रद्द हो सके और वह दूसरों पर आरोप लगाकर किनारे लग सके?

हालांकि अराजक केजरीवाल से ऐसी उम्मीद की जा सकती है, उदाहरण सबके सामने है! चाहे पीएम की कुर्सी के सीएम की कुर्सी छोड़कर बनारस भागना हो अथवा पिछले गणतंत्र दिवस पर धरने पर बैठना और खुद अराजक बताना हो?

आइए, देखते हैं आगे होता है क्या? इतना तो पक्का है केजरीवाल नहीं मानने वाला, क्योंकि अराजकता और भागना दोनों केजरीवाल के स्वभाव में है!

नि:संदेह केजरीवाल के लक्षण बता रहे हैं कि वो भागेगा और नहीं भागा तो अराजकता लगातार जारी रखेगा, परीक्षा यहाँ चुनाव आयोग की होगी कि वो कितने क्षमाशील और सहनशील होते हैं?

चूंकि केजरीवाल को दोनों में लाभ होगा! उसकी चिट भी सही और पट भी सही होगी, भई छोड़कर भागने के लिए कोई तो बहाना होना चाहिए,  हैं जी!

#केजरीवाल #दिल्लीचुनाव #पराजय #AAP #Kezriwal #DelhiPoll #BJP #EC

हाजमा खराब हो गया है तो पखाना चले जाएं प्लीज?

पिछले तीन दिनों बड़ी ही ऊहापोह में रहा, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खासकर सोशल मीडिया में लिखी गयी टिप्‍पड़ी तलाशने में बड़ी ही माथा-पच्ची में बीता।

हालाँकि कुछ खास नहीं मिला, क्योंकि लोगों को कहने को कुछ मिला नहीं,  क्योंकि पीएम मोदी न केवल नागरिक एटमी डील साइन करवा ने सफल रहे बल्कि सब कुछ उम्मीद से बेहतर ही जा रही है।

लेकिन नकारात्मक प्रवृत्ति के लोग कहां मानने वाले? अजी पेट में मरोड़ में जो है! खबर है लोगों को पीएम मोदी की जोधपुरी जैकेट मे प्रिंटेट नाम और अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा की चिउन्गम से राहत मिली है?

वामपंथी और चरमपंथियों विचारधारा टाइप के लोग इसमें अधिक सक्रिय हैं, जिन्हें पिछले तीन दिनों से कुछ लिखने-कहने को मनमुताबिक कोई मैटेरियल नहीं नसीब हुआ था?

मत पूछो, अब आलम यह है कि फेसबुक-टिवटर में पू-पो और फुस्स - फस्स की दुर्गंध इस कदर फैली हुई है कि हालत खराब है!

भाई लोगों हाजमा खराब हो गया है तो पखाना चले जाओ, सोशल मीडिया और हमें प्लीज बख्श दो!

#मोदी #मीडिया #फेसबुक #Modi #Media #Facebook #Fart

सोमवार, 26 जनवरी 2015

बेटे को 5 साल तो दे दो ताकि...

शादी जिंदगी का एक पड़ाव है और हर एक की जिंदगी का महत्व पूर्ण हिस्सा भी है, लेकिन इसमें की गई जल्दबाजी दो जिंदगी को अनाश्यक दुश्वारियों में ढकेल देती है,  जिसके फलस्वरूप मानसिक और शारीरिक बीमारियां जन्म लेते हैं,  जैसे-समय पूर्व बाल झड़ना,  बालों की सफेदी और चिड़चिड़ापन एवं तोंद निकलना प्रमुख हैं।

बात निकलेगी तो दूर तक जायेगी?

सच कहूं तो मैं चाहता भी यही हूँ, क्‍योंकि हमारा समाज युवकों की शादी को लेकर बेहद लालायित और दीवाने होते हैं।

गांव - जवार, नाते-रिश्ते और आस-पड़ोस के कुंवारे लड़के और लड़कियां इनकी आँखों को खटकते हैं, युवक की नौकरी लग चुकी हो तो जैसे इनकी छाती पर साँप लोटने लग जाते हैं कि फलाने उसकी शादी क्यों नहीं कर रहें?

कुछ नहीं तो ७५ रिश्ते खुद लेकर पहुँच जायेंगे(नेकी कर दरिया में डाल शैली में) और तब तक बेचैन रहते हैं जब तक शादी की चेन न बंधवा दें!

ये तो रही सामाजिक बात अब कुछ वास्तविक हो लेते हैं- माने, हम-आप बोझ उठाने से पहले खुद की बोझ उठा पाने की क्षमता का परीक्षण जरूर करते हैं, लेकिन शादी से पहले युवक की जिम्मेदारियों के उठा पाने की क्षमता के परीक्षण के लिए वक्त क्यों नहीं दे पाते?

भैय्या,  नौकरी सरकारी हो या निजी(प्राइवेट),  दोनों नौकरियों को करने,  सीखने और पारंगत होने में वक्त तो लगता है? सीधे कहूं तो नौकरी पा लेना और नौकरी करना आना में जमीं - आसमां का अंतर होता है?

युवक की नौकरी देखी, मोटी तनख्वाह देखी और ढूँढने-बताने लगे रिश्ते,  कहीं रिश्ता हाथ से निकल न जाये,  फिर चाहे शादी के बाद वो ही युवक मां-बाप के हाथ से ही क्यों न निकल जाए?

नौकरी लगते ही शादी होने से युवकों को दोहरी जिम्मेदारी का भार झेलना पड़ता है, प्राइवेट नौकरी है तो उसे नौकरी बचाये रखने के लिए नियोक्ता की जरुरी - गैर-जरुरी सभी शर्तों के साथ नौकरी करनी होगी।

जबकि सरकारी नौकरी वाले युवक को नौकरी के शुरू के २ साल तो डिपॉर्टमेंट के अपर-सब ऑर्डिनेट और लोअर-सब ऑर्डिनेट को समझने, झेलने और गुस्से से बचने में नौकरी करनी पड़ती है, जिसका गुस्सा वह अपनी पत्नी पर निकालेगा, क्योंकि वह पत्नी की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए ही सारे शोषणों को झेल रहा है, ऐसे में युवक या तो पत्नी का पति रह सकेगा अथवा मां-बाप का बेटा?

युवक नि:संदेह पत्नी की सुनेगा तो 'जोरू का गुलाम'और मां-बाप की सुनेगा तो 'दूध पीता बच्चा' कहलाता है? इसीलिए वह मां-बाप के हाथ से निकल जाता है और दुनिया कहती है कि युवक नाकारा निकला?

वैसे, कई बिरले जोरू का गुलाम और दूध पीछा बच्चा टैग को सीरियसली ले लेते हैं और बीच (मध्यम मार्ग) का रिश्ता निकलने की कोशिश करते हैं तो मां-बाप और पत्नी दोनों ओर से हमला जिंदगी भर झेलने को अभिसप्त होते हैं,  जिससे वे जल्दी ही मानसिक रोगी भी बन जाते हैं!

चूंकि मां-बाप को शादी के बाद भी वही आज्ञाकारी बेटा चाहिए और शादी के बाद पत्नी को भी आदर्श पति चाहिए, लेकिन 'आज्ञाकारी' और 'आदर्श पति' के दोराहे से गुजरता युवक हमेशा यही सोचता है कि काश! कोई हाइवे होता,  जहाँ से निकल भागता पर वह नहीं निकल पाता,  क्यों? वो तो आपको भी पता ही है! ⛄🍼

एक क्षेत्रिय अखबार का अनुभव: जैसे आत्मा बिना शरीर!

पिछले कुछ एक दिन एक क्षेत्रिय अखबार के दफ्तर में गुजरा, अनुभव बेहद ही खराब रहा?

हालांकि ऐसी आशंका ही नहीं, भरोसा भी था कि कुछ ऐसा ही नजारा मिलेगा और हुआ भी ऐसा!

मैंने देखा, क्षेत्रिय अखबारों के दफ्तरों में पत्रकारिता और पत्रकारिए धर्म दोनों के मायने जुदा होते हैं, मतलब यह है कि क्षेत्रिय अखबार में काम करने वाले पत्रकार सरोकारी और नैतिक पत्रकारिता से उतने ही दूर रहते हैं जैसे ?

क्षेत्रिय अखबारों की प्राथमिकता और प्रसांगिकता भी समझ से परे होते हैं, बिल्कुल मैकेनिकल? क्योंकि उनका झुकाव जन सरोकार से हमेशा इतर होता है और उनके कलम और कॉलम प्राय: जरूरतंमंदों के लिए नहीं, बल्कि वैयक्तिक जरुरतों के लिए अधिक जगह घेरते हैं।

मैंने यह महसूस ही नहीं किया बल्कि व्यक्तिगत रूप से देखा भी है, और सोच रहा हूँ कि ऐसे क्षेत्रिय पत्रकार साथी कैसे सरोकारी पत्रकारिता करते होंगे जब वो स्थानांतरित होकर राजधानी में पहुंचते होंगे?

हालांकि पत्रकारिता भी अब कॉरपोरेट और कारोबारी हो चली है, लेकिन आत्मा अभी यहां जिंदा है और उन्मुखता भी उसी ओर दिखती है पर क्षेत्रिय पत्रकारिता और पत्रकारों में विचित्र बीज रोपे जाते हैं, जो अफसोस जनक है।

मैंने हमेशा क्षेत्रिय स्तर की पत्रकारिता से दूरी बनाये रखने की कोशिश की और भविष्य में चाहूंगा कि क्षेत्रिय पत्रकारों में पत्रकारिए धर्म को विकसित करने के लिए एक ऐसी संस्था बनाये जो नौकरी से पूर्व एक क्रैश कोर्स के जरिए पत्रकारिता के छात्रों में सरोकारी पत्रकारिता की गुण धर्म विकसित कर सके !

मोदीजी एक नियामक संस्था जरूरी है?

मैं चाहता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसी निगरानी और नियामक संस्था विकसित करें जो रोजमर्रा की जरूरत की सामग्रियों की बिक्री दरों की निगरानी और नियमन का कार्य संभाले!

क्योंकि दुकानदार घटती लागत के बावजूद बढ़ाई कीमतों को वापस लेने से कतराते हैं जबकि जरुरी चीजों के मूल्‍यों में मामूली वृद्धि से भी कीमत बढ़ाने से गुरेज नहीं करते?

जरूरत है एक ऐसी स्वतंत्र नियामक संस्था की जो बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध सामग्रियों की कीमतों की मनमानी पर रोक लगाए और लागत के आधार पर उनकी बिक्री सुनिश्चित करे और चरणबद्ध तरीकों से उनके मुनाफे की सीमा का निर्धारण भी करे!

पिछले 7-8 माह में देश की खुदरा और थोक मूल्‍यों की महंगाई दरों में निरंतर गिरावट दर्ज हुई है बावजूद इसके दुकानदार पुराने बढ़ाये मूल्‍यों पर ही सामानों की बिक्री कर रहें हैं और घटती महंगाई दरों का लाभ अकेले दुगना-चौगुना करके डकार रहें है,  जिन्हें आज रोकने वाला कोई नहीं है?

मोदी सरकार को ऐसे सभी दुकानदारों पर नकेल कसने के लिए एक नियामक संस्था विकसित करनी चाहिए, जिससे दुकानदारों की मनमानी मुनाफाखोरी बंद हो और घटती महंगाई दरों का लाभ आम लोगों को भी हो?

जो समोसे 6 रुपये में दुकानदार बेचते थे उन्होंने महंगाई के नाम पर समोसे की कीमत बढ़ाकर 10 रुपये प्रति तो कर दिये, लेकिन महंगाई दरों में जारी गिरावट के बाद भी आज वे समोसे 10 रुपये में ही बेच रहे है,  इनकी मनमानी कौन रोकेगा ?

कौन इन्हें घटती लागतों के बीच चीजों की कीमतों में कमी लाने के लिए रेगुलेट करेगा,  क्योंकि अभी तक कोई ऐसी संस्था वजूद में ही नहीं है, जो इन्हें लागत के मुताबिक चीजों की कीमतों के घटाने-बढ़ाने और स्थिर  रखने की कोशिश कराती दिखती हो?

#महंगाई #कीमत #दर #नियामक #संस्था #Inflation #Regularlybody #ModiGovernment #NarendraModi #NAMO

फेमनिस्ट या लंबरदार : कोई आईना दे दो भाई!

वो जो अपने घरों में पत्नी को बगैर वेतन की नौकर और बेटी को बोझ मानते/समझते हैं, ऐसे लोग आजकल फेमनिस्ट के लंबरदार बने फिर रहे हैं? 

प्रधानमंत्री मोदी के पत्नी त्याग पर मुंह खोलने वाले ऐसे घड़ियालों को नहीं पता है कि दुनिया ऐसे दर्जनों हैं, जिन्होंने सामाजिक और धार्मिक हितों के लिए स्वैच्छिक   रुप से ऐसा रास्ता चुना, जिसको बाद में ने केवल मान्यता मिली बल्कि सिरोधार्य किया गया!

लेकिन क्षणिक चर्चा में आने के लिए अथवा महज विरोध के लिए विरोध करने वाले बुद्धिहीनों पर केवल तरस ही क्या जा सकता है, क्यों?

क्योंकि इनकी सुनते तो राजसी ठाठ-बाट और पत्नी यशोधरा को छोड़कर भागे तत्कालीन राजा सिद्धार्थ सूली पर चढ़ा दिये जाते,  भगवान बुद्ध बनना तो दूर की बात थी!

क्योंकि सिद्धार्थ तो गृहस्थ आश्रम में भी प्रवेश कर चुके थे और तो और पत्नी के साथ - साथ उनपर एक बच्चे की जिम्मेदारी भी थी?

मैं यहाँ तुलना नहीं कर रहा हूँ, बस कुछ लोगों को आईना दिखाने की कोशिश कर रहा हूं, शायद किसी को अपनी सही शक्ल दिख जाये!

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http://www.palpalindia.com/2015/01/18/awesome-Gautama-Buddha-Enjoyment-yoga-meditation-news-in-hindi-india-83553.html