शुक्रवार, 19 मई 2023

रोक सको तो रोक लो, जल्द ऐसी सच्ची घटनाओं से प्रेरित फिल्मों की बाढ़ आने वाली है...

90 के दशक में कश्मीर की घाटी से कश्मीरी पंडितों की पलायन की सच्ची घटना को कैमरे के कैनवॉस पर दिखाने की हिम्मत करने वाले निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म “द कश्मीर फाइल्स” ने ऐसा लगता है बॉलीवुड सिनेमा को अपसाइड डाउन कर दिया है। ऐसा लगता है कि सच को सेक्यूलर की चाश्नी में लपेटकर बेचने वाले मुंबईया फिल्मकारों के दिन अब लद गए हैं, क्योंकि सच को सच कहने वाली फिल्मों और फिल्मकारों पर दर्शक लहालोट होने लगी है।


इसकी ताजा बानगी है सुदीप्तो सेन निर्देशित फिल्म “द केरला स्टोरी”। द केरला स्टोरी एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है, जो केरल में कट्टर मुस्लिमों द्वारा हिंदू और ईसाई लड़कियों को “लव जेहाद” का शिकार बनाने और फिर उन्हें आंतकवादी गतिविधियों में संलिप्त करने की कहानी को उजागर करती है। यह फिल्म सच को दिखाने की वजहों से चर्चा में है और सेक्यूलर फिल्मकारों की आंखों में खटक रही है। ऐसा ही दुस्साहस विवेक रंजन अग्निहोत्री द कश्मीर फाइल्स के जरिए पहले किया था और अब “द केरला स्टोरी” दूसरी कड़ी है।

उल्लेखनीय है पारंपरिक बॉलीवुडिया फिल्में सच को सेक्यूलर की चाश्नी में डूबोकर परोसने की हिमायती रही है, जिसमें आतंकी को साधू की तरह पेश करने की मजबूरी होती है। सच को दबाने की यह परिपाटी वाली फिल्में पिछले 7 दशकों तक दर्शकों को परोसा गया है, लेकिन जैसे फोड़े को छुपाने से फोड़ा नासूर बन जाता है, ठीक वैसा ही हाल बॉलीवुड सेक्यूलर फिल्मों के साथ हो रहा है। हकीकत से दूर फसाना परोसने वाली पारंपरिक फिल्मों की हाल उनकी रिलीज के बाद हुए बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से आसानी से समझा जा सकता है।

अब इसी कड़ी में जल्द ही एक औऱ सच्ची घटना पर आधारित फिल्म “टीपू” जुड़ने जा रही है, जो 40 लाख से हिंदुओं को जबरन धर्मांतरण करने और मौत के घाट उतारने वाले आततायी मैसूर के सुल्तान टीपू सुल्तान पर आधारित है। 8000 हिंदू मंदिरों के विध्वंश के दोषी टीपू सुल्तान को महान बताने वाली वामपंथी और कांग्रेसी प्रेरित जुगलबंदी वाले फिल्मकारों ने यह झूठ परोस कर दर्शकों को खूब गुमराह किया, लेकिन अब जब सच का सामना दर्शकों को टीपू के जरिए होगा, तो ऐसे फिल्मकार कहां जाकर मुंह छिपाएंगे। कहते हैं “सांच को आंच नहीं” जैसे ही द कश्मीर फाइल्स को दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया, ठीक वैसा ही दर्शकों का प्यार द केरला स्टोरी को मिलता दिख रहा है। फिल्में समाज का आईना होती हैं, लेकिन सेक्यूलरिज्म के ठेकेदार फिल्मकारों ने इतिहास की तमाम घटनाओं की असलियत छुपाई और उनमें झूठ की मिलावट करके कई दशकों तक दर्शकों को गुमराह करने का पाप किया है, लेकिन देर से ही सही, उनकी कलई खुलने लगी है।

ऐसी उम्मीद है कि आने वाले भविष्य में सच्ची घटना पर आधारित ऐसी फिल्मों की बाढ़ आने वाली है, जिसको दर्शकों का भरपूर साथ मिलेगा और उन तथाकथित सेक्यूलर को मुंह काला होगा। कहने का मतलब है कि दर्शक अब सेक्यूलर फिल्मकारों द्वारा छुपाए गए सच को जानने में कामयाब होंगे। सभी जानते हैं कि इतिहास में ऐसे बहुत राज हैं, जिन्हें सेक्यूलर की चाश्नी में डूबोकर दर्शकों को मूर्ख बनाया गया। आशा है कि नई पीढ़ी के फिल्मकार उन पर भी अब जरूर काम करेंगे, लेकिन दर्शकों की भूमिका भी गंभीर हो जाती है, उनको थियेटर में जाकर ऐसी फिल्मों को देखकर ऐसी फिल्मों का साथ देना होगा, ताकि उन्हें ऐसे विषयों को पर्दे पर लाने और झूठ के आवरण को उन तक पहुंचाने की हिम्मत मिलती रहे।     

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फिल्म फ्लॉप हो या हिट, सलमान खान जैसे स्टार्स की सेहत पर क्यों नहीं होता है असर?

आज का दौर ऐसा है कि फिल्म निर्माण में बड़े ही नहीं, छोटो-छोटे कलाकार भी हाथ आजमाने लगे हैं। तो क्या फिल्म निर्माण में अंधाधुंध कमाई है। हालांकि कईयों को फिल्म प्रोड्यूसर बनने के साथ जेल तक चक्कर लगाने पड़े हैं और कई तो फिल्म प्रोड्यूसर बनने के बाद कंगाली के दौर में पहुंच गए हैं। अब सवाल है कि मुंबई में बनने वाली बॉलीवुड फिल्मों की कमाई का फार्मूला क्या है और सफल फिल्मों का फिल्म प्रोड्यूसर और फिल्म वितरकों के बीच शेयरिंग का क्या फार्मूला है?

 मौजूदा दौर में खान तिकड़ी शाहरूख, सलमान और आमिर खान का अपना प्रोडक्शन हाउस है और तीनों ने अपने प्रोडक्शन में बनी फिल्मों सफलता का स्वाद भी चखा है। हालांकि इस मामले में सबके चहेते सलमान खान शाहरूख और आमिर की तुलना में थोड़ा दुर्भाग्यशाली रहे हैं। उनकी प्रोडक्शन कंपनी एसकेएफ के बैनर तले अब तक 10 फिल्में बनीं हैं, लेकिन अफसोस कि बजरंगी भाईजान को छोड़ सारी फिल्में घाटे का सौदा रही हैं। एसकेएफ की हालिया रिलीज फिल्म ‘किसी का भाई, किसी की जान’ के हश्र से कौन अनभिज्ञ है।

अब लौटते हैं असल मुद्दे पर...सवाल था कि फिल्मों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन और फिल्म निर्माण में पैसा लगाने वाले प्रोड्यूसर्स की कमाई कैसे वितरित होती है। जैसे किसी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ रुपए कमाती है तो उसका डिस्ट्रीब्यूशन कैसे होता है और कोई फिल्म को हिट करार देने का गणित क्या होता है।

हम अभी मौजूदा दौर के फिल्म निर्माण के फार्मूले पर ही बात करेगें, क्योंकि पूर्व में फिल्म प्रोड्यूसर ही अपनी फिल्मों का मालिक होता था, लेकिन अब फिल्म प्रोड्यूसर्स फिल्म बनाकर डिस्ट्रीब्यूटर्स को बेंचकर किनारे हो लेते हैं और कमाई का असली प्रेशर डिस्ट्रीब्यूटर्स के सिर पर होता है, जो वह लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और थियेटर मालिकों को दे देता है।

मान लीजिए सलमान खान प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बनी एक के निर्माण की लागत 200 करोड़ रुपए है। चूंकि फिल्म सलखान खान प्रोडक्शन की है तो 200 करोड़ रुपए में निर्मित फिल्म 250 से 300 करोड़ रुपए में बिकेगी। अब सलमान खान की प्रोडक्शन हाउस ने बिना अतिरिक्त पैसा खर्च किए 50-100 करोड़ रुपए अपनी में जेब में डाल लिया। अब फिल्म चले न चले सलमान खान को कुछ लेना-देना नहीं, क्योंकि फिल्म अब डिस्ट्रीब्यूटर्स द्वारा खऱीद ली गई है।  

 अब डिस्ट्रीब्यूटर्स फिल्म के प्रमोशन पर 20-40 करोड़ खर्च करके लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स के जरिए थियेटर में रिलीज करवाती है और फिल्म की साप्ताहिक कमाई के आधार पर बॉक्स ऑफिस कलेक्शन निर्धारित किया जाता है। अब अगर 20 करोड़ रुपए प्रमोशन का जोड़ दें तो डिस्ट्रीब्यूटर्स को यह फिल्म 270 करोड़ रुपए में पड़ती है। हालांकि अगर फिल्म के म्युजिक राइट्स और सेटेलाइट की कमाई डिस्ट्रीब्यूटर्स के लागत जीरो बना देती है।

जी हां, फिल्म के सेटेलाइट और म्युजिक राइट्स बेंच कर ही अधिकांश डिस्ट्रीब्यूटर्स की लागत जीरो हो जाती है। आपने भी सुना और पढ़ा होगा कि रिलीज से पहले ही फलां फिल्म ने 400 करोड़ की कमाई कर ली, अब चाहे फिल्म थियेटर में चले न चले डिस्ट्रीब्यूटर्स को कानों में जूं नहीं रेंगता। यह ठीक वैसे ही है, जैसे फिल्म प्रोडक्शन हाउस डिस्ट्रीब्यूटर्स को अपनी फिल्म को एक अच्छी रकम पर बेंचकर कर नफा-नुकसान से मुक्त हो जाते हैं।

 अब बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और थियेटर मालिक की कमाई सुनिश्चित होती है। यानी दर्शक फिल्म देखने पहुंचे तो फिल्म कमाई करेगी और फिल्म कमाई करेगी तभी लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिकों को लाभ होगा। अगर फिल्म थियेटर पर चलती है और प्रमोशन लागत के साथ 270 करोड़ की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर 210 करोड़ रुपए भी कमाने में कामयाब हो जाती है, तो फिल्म को सुपरहिट करार दे दिया जाता है और फिल्म की साप्ताहिक कमाई को टैक्स अदायगी के बाद को लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक के बीच 60-40 फीसदी (पहला सप्ताह) फिर 50-50 फीसदी (दूसरा सप्ताह) और 40-60 फीसदी (तीसरा सप्ताह) के बीच बंटता जाता है।  



उदाहरण सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘किसी का भाई, किसी की जान’ का लेते है। सलमान खान अभिनीत इस फिल्म की लागत 150 करोड़ प्रमोशन समेत रुपए थी, लेकिन फिल्म ने 20वें दिन घुटने टेक दिए हैं, और उसकी कुल कमाई 110 करोड़ तक भी नहीं पहुंच सकी है। इस तरह फिल्म लागत से 40 करोड़ रुपए घाटे में पहुंच गई है। इससे लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक दोनों को लंबा चपत लग चुका है।

सलमान खान और उनके डिस्ट्रीब्यूटर पार्टनर के लिए यह किसी बड़े धक्के से कम नहीं है। भले ही सलमान और उनके पार्टनर जी स्टूडियो को नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक अगली बार सलमान की फिल्मों पर आगे भी रूचि दिखा पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी। 

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2024 लोकसभा चुनाव: बीजेपी के लिए सिरदर्द बनेगा मोदी Vs योगी की प्रतियोगिता

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के निहितार्थ यह बात कितनी ही खरी या खोटी हो, लेकिन अभी यह लोग सोचने को तैयार नहीं होंगे कि आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी को योगी टेकओवर करने को तैयार हो गए हैं। इसकी बानगी उत्तर प्रदेश में हुए निकाय चुनाव के रिजल्ट हैं, जिसमें प्रदेश के 17 नगर निगमों में बीजेपी के चुनकर आएं है। यह बहुत बड़ी जीत है। यह जीत गुजरात विधानसभा से भी प्रचंड जीत कही जा सकती है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पूर्व बीजेपी हिमाचल विधानसभा चुनाव और पंजाब विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी है, जिसका श्रेय और सेहरा प्रधानमंत्री मोदी को ही दिया जाएगा। इसमें बीजेपी अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा की भूमिका सिर्फ चुनाव मैनेजमेंट ही आया है, चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ा गया था, तो धूल-धूसरित उनका ही चेहरा होगा।



तो क्या यह माना जा सकता है कि यह चुनाव प्रधानमंत्री को आखिरी चुनाव होगा और अगर यह प्रधानमंत्री मोदी का आखिरी चुनाव है, तो प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे में बीजेपी लोकसभा चुनाव 2024 की वैतरणी पार कर पाएगी। निः संदेह बीजेपी आलाकमान प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही लोकसभा चुनाव 2024 का चुनाव लड़ेगी, लेकिन क्या कर्नाटक, हिमाचल और पंजाब के चुनाव परिणामों के मद्देनज़र यह दांव निशाने पर लगेगा।

उत्तर प्रदेश में दूसरी बार पूर्ण बहुमत से चुनकर आए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की छवि दिनोंदिन बेहतर होती गई है। एक कुशल प्रशासक के रूप में सीएम योगी की प्रसिद्ध प्रादेशिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर फैली है। सवाल है ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में बीजेपी आलाकमान योगी को मोदी के विकल्प के रूप में सोचने के लिए मजबूर कर सकती है।

यह बात कड़वी भले हो, लेकिन सच है कि कई मोर्चे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई कार्यशैली ने बहुसंख्यक हिंदुओं को परेशान किया है। इसका कारण बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रधानमंत्री मोदी से बढ़ती अपेक्षाएं दोषी हो सकती है। इसे भारतीय क्रिकेट के सबसे करिश्माई कप्तान एमएस धोनी के करियर की ढलान और आखिरी ओवर में चौके-छक्के लगाकर टीम को अपेक्षित जीत नहीं दिला पाने की असमर्थता से देखा जा सकता है।

प्रधानमंत्री मोदी संभवतः उसी दौर से गुजर रहे हैं, जहां उनके करिश्में पर ग्रहण सा लगता दिखा है। अब ऐसे में बीजेपी आलाकमान के लिए 2024 लोकसभा चुनाव मंथन का विषय बन गया है। बीजेपी के खिलाफ यह मोमेंटम लोकसभा चुनाव के लिए घातक साबित हो जाए, इससे पहले बीजेपी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव से पूर्व कुछ नया सोचना पड़ेगा। वरना तीनों प्रदेशों में जीती हुई बाजी बीजेपी के हाथ से फिसलते देर नहीं लगेगी।

यह बात दीगर है कि 2024 लोकसभा चुनाव से पूर्व तीनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए सेमीफाइनल मैच की तरह होंगे और 2024 लोकसभा चुनाव में जीत के लिए इन तीनों प्रदेशों में बीजेपी का नॉकआउट ही उसे फाइनल में बड़ी जीत की ओर ले जा सकता है। ऐसे में यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ 2024 लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए तुरूप को इक्का साबित होंगे, इसमें किसी को संदेह नहीं होगा।      

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अब आएगा मजा, जब कर्नाटक के दो बड़े नेता काम करेंगे कम और चिल्लाऐंगे ज्यादा

अब आएगा असली मजा...जब कर्नाटक में पावर गेम के लिए दो कांग्रेसी नेताओं का नाटक हर दिन वहां की जनता फ्री में देख सकेगी। प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का मजा वहां की जनता को कांग्रेस अब अपने दो बड़े नेताओं की नूराकुस्ती से दिलाएगी। जहां "अब चील उड़ेगी कम, चिल्लाएगी ज्यादा।"
मतलब अब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह कर्नाटक में भी प्रदेश सरकारें विकास कार्यों के लिए नहीं, बल्कि दो नेताओं की मुर्गा युद्ध से जनता का मनोरंजन करेगी। यह तमाशा राजस्थान की जनता पिछले 5 साल से देख रही है, जहां जनता से मिले पूर्ण जनादेश को कांग्रेस ने अपने दो नेताओं की निजी पावर गेम की भेंट चढ़कर प्रदेश को मिट्टी में मिला दिया है।

पिछले 5 साल से वहां की जनता सचिन पायलट और अशोक गहलोत की नूराकुश्ती देख रही है और सिर धुन रही है। कर्नाटक की जनता ने राजस्थान से सबक नहीं लिया, और लगता है निकट भविष्य में कर्नाटक में मध्य प्रदेश दोहराया जाने वाला है, जहां वैसा ही सत्ता परिवर्तन करके डीके शिवकुमार कांग्रेस को ठेंगा दिखा सकते हैं।
मजेदार यह है कि आखिर कांग्रेस जनता से मिले अच्छे खासे जनादेश का कबाड़ा क्यों कर देती है। सचिन पायलट, ज्योतिरा सिंधिया और डीके शिवकुमार की मेहनत को दरकिनार कर वो बूढ़ों को क्यों आगे कर देती है, और ऐसे बचकाना फैसले जनादेश की मटियामेट कर वह क्या हासिल करती है। जबाव सबको पता है, लेकिन सवाल है ऐसे वह अपनी तिजोरी कब तक भरेगी।


अव्वल तो कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार चलेगी नहीं, और अगर राजस्थान की तरह चल भी गई तो डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया की आपसी टशन में कर्नाटक की जनता का भला होने वाला नहीं है। अधिक संभावना है कि मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह डीके शिवकुमार कांग्रेस को एक और झटका देंगे।
कांग्रेसी आलाकमान इन सभी राजनीतिक उठापटक और गुजाइशों से परिचित है, लेकिन फिर भी वो जनता के जनादेश का अपमान करके नूराकुश्ती वाली सरकार का गठन करती हैं ताकि वह गांधी परिवार के नमक हलाल नेताओं में शुमार हो सकें। सरकार बच गई तो विपक्ष को दोषी ठहरा कर वो भोली भाली जनता को फिर ठग लेंगे और अपने नकारेपन से फारिग हो चुनाव में चले जाएंगे।