क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर अधिकांश शादी शुदा जोड़े अपनी शादी शुदा जिंदगी में खुशहाल क्यों नहीं नजर आते हैं? भले ही वह शादी उन्होंने अरेंज की हो अथवा लव?
समाज के कुछ छिछले ठेकेदार सामाजिक तंत्र बिगड़ने की दुहाई देकर किसी भी चीज को ऐसे बड़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि उसकी अच्छाईयां तो दूर बुराईयां भी लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। बदलाव प्रकृति का नियम है। कल जो जरूरत थी आज वह अप्रासंगिक हो चुका है, तो इसमें नया क्या है।
कल हम पेन से कागज पर चिट्ठी लिखते थे, लेकिन आज कागज कलम छोड़कर हम कंप्यूटर मशीन से वहीं काम कर रहे हैं, लेकिन यहां कोई ठेकेदार टोकने नहीं आता, ऐसा क्यों? इससे हमारे कलम देवी और देवता के सम्मान को क्यों ठेस नहीं पहुंच रही है?
जहां तक मैंने जाना है, लिव इन रिलेशनशिप विकासोन्मुख देशों के युवक-युवतियों को मिलने वाली एक ऐसी चाभी है, जिसके जरिए प्रबुद्ध युवक-युवतियां शादी से पूर्व की संयुक्त गांठ के पकड़ की एक-एक गिरह को आसानी से देख पाते हैं और इस निर्णय पर पहुंच पाते हैं कि शादी के बाद क्या सचमुच उनकी जिंदगी में ठहराव आएगा अथवा दोनों के बीच मौजूद ऐसी कोई अज्ञात अथवा अजनबी बुराई उनकी जिंदगी को बर्बाद कर जाएगी। ऐसे दु:संयोग से निपटने में लिव इन रिलेशनशिप हमें सुविधा प्रदान करती है। पूरी उम्र किसी ऐसे जीवनसाथी के साथ गुजारना जिसकी कई बुराईयां आपको सिरे से अखरती हैं, लेकिन फिर भी महज समझौते के नाम पर ताउम्र सहन करनी पड़ती है। सामाजिक बंधनों में बंधने के बाद रोना और कुछ नही कर पाने की पीड़ा में जीना कहां तक सही है।
इसमें दो राय नहीं कि लिव इन रिलेशनशिप शादी से पहले अपने जीवन साथी को समझने और पहचानने का एक बेहतर विकल्प प्रदान करता है, जहां शादी से पूर्व न केवल आप एक दूसरे के साथ समय बिता कर अपने जीवनसाथी की अच्छाईयों और बुराईयों को जान और समझ सकते-सकती हैं, बल्कि इस निर्णय पर भी पहुंच सकते हैं कि अमुक व्यक्ति की सभी अच्छाईयों और बुराईयों में से किन बुराईयों के साथ अपना जीवन गुजार सकेंगी-सकेंगे अथवा नहीं।
यह सच है कि कोई भी परिपूर्ण नहीं हैं, लेकिन इस प्रक्रिया से कम से कम शादीशुदा जोड़े जिंदगीभर समझौते करने से तो बचाए जा सकेंगे। साथ-साथ इससे समाज विवाहोत्तर संबंधों अथवा बलात्कार जैसी क्रूर बुराईयों से भी हद तक छुटकारा पाने में सफल हो सकेगा।
आपने लाखों ऐसे शादी शुदा जोड़े देखे होंगे, जो लव मैरिज के मामले में ताउम्र खुद कोसते हैं और अरैंज मैरिज के मामले में अपने मां-बाप को भी कोसने को मजबूर होते हैं कि काश एक बार जीवनसाथी की फलां बुराईयों का पता उन्हें समय रहते लग जाता तो, वे इस गलती से बच सकते थे।
देखा गया है समाज की कट्टर रीति रिवाजों से बंधे ऐसे लाखों शादीशुदा जोड़़ों की जिदंगी न तो कभी नमकीन होती है और न ही मीठी। क्योंकि ऐसे जोड़े शादी के बाद अपने लिए नहीं, बल्कि वो कभी खुद के पैदा किए हुए बच्चों को देखकर जीते हैं, तो कभी सामाजिक दबावों के कारण एक छत में रहने की मजबूरी के कारण जीते हैं। ऐसे में लिव इन रिलेशनशिप इन सवालों के जबाव ढूंढने का एक बेहतर और नायाब तरीका है। कम से कम नई जनरेशन को तो यह मौका दीजिए भाईसाहब।
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