मंगलवार, 2 मई 2017

दहेज को कोसिए, लेकिन खुद को भी कोसना जरूरी है?


शिव ओम गुप्ता
भारतीय परंपरा में पैतृक संपत्ति में पुत्रियों का हक दहेज के रुप में देने का प्रचलन रहा है, क्योंकि शादी के बाद पुत्र ही पैतृक संपत्ति में बंटवारा करते हैं, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि पुत्री को पैतृक संपत्ति में उसका हिस्सा दहेज में दिया जा चुका होता है?

क्योंकि बहन व बेटी की शादी होने के बाद भाई व पिता (कानून कुछ भी हो) वैयक्तिक रुप से घर-जायदाद में बेटी व बहन को हिस्सा देना अथवा उन्हें हिस्सा बनाना कभी मंजूर नहीं करते? वहीं, बहन, बेटी और स्त्री (आधीन) में बंटी लड़की कभी समझ ही नहीं पाती कि "बेटी की घर से डोली और ससुराल से अर्थी उठती है" वाला जुमला क्यों गढ़ा गया है?

बेचारी बनीं ऐसी बेटियां, बहनें और महिलाओं को हमारा समाज त्याग और बलिदान की मूर्ति बनाकर ऐसे बलि बेदी पर चढ़ा देता है कि वो उफ तक नहीं कर पातीं! शायद यही कारण होता है जब ससुराल पहुंचते ही बहू, बेटी और लड़की धन-जायदाद पर अपना स्वाभाविक हक हासिल करने के लिए पहले पति और फिर उसके परिवार के इमोश्नल ड्रामें में नहीं फंसती है?

तो अब किसी भी बहू, बेटी और महिला पर परिवार तोड़ने का आरोप लगाने से पहले अपनी बौद्धिक क्षमता को टटोलिए, फिर अपनी जड़ हो चुकी सामाजिक मान्यताओं को कोसिए और बाद में उसकी तुच्छ सोच की लानत-मलानत कीजिए, क्योंकि मायके में हकों और अधिकारों से महरूम व असुरक्षित बेटी ससुराल में बेटी बनकर इसीलिए नहीं रह पाती है, क्योंकि हमारे वर्तमान सामाजिक ढ़ांचे में महिलाओं को वास्ता देकर इमोश्नल मूर्ख बनाने की बड़ी पुरानी परंपरा है!

क्योंकि अपने प्राकृतिक, वैयक्तिक और कानूनी हकों व अधिकारों के मिलने के भरोसे में अपना सब कुछ न्यौछावर कर चुकी ऐसी बेटियां, बहूएं और महिलाएं हमेशा अपनों से (पिता- भाई, ससुर-पति) धोखा खाती आई हैं, तो आगे से किसी बहू, बेटी व महिला को घर तोड़ने अथवा उसे कोई उपाधि देने से पहले उसके मानसिक और आर्थिक पहलुओं पर जरूर गौर कीजिए, जबाव आपको स्वत: मिल जाएगा!

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