शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

बचपन के दिन....

बचपन के दिन और बचपन की बातें

बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
न खर्चे की चिंता न पैसे की यारी
वो गिल्ली, वो डंडा, वो बैल की सवारी। 
टोली, ठिठोली और हवा हवाई बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें। 
पड़ोसी की चाय और हलवाई की दुकान 
वो चुस्की वो मुस्की, और भौजी की मुस्कान 
भरी दुपहरी और इश्क के ठहाके 
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
सावन की रिमझिम और रसभरी बातें
जलेबी से मीठे हर रिश्ते् हर नाते
शाम की बैठक की बाटी और चोखे
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें
खेतों की मेड़ों से खलिहानों का दौर
गोरकी की चक्कर में सवरकी से बैर
भुलाए न भूले वो नहरियां के गोते
बहुत याद आती हैं वो बेफि‍क्री रातें
बचपन के दिन और बचपन की बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

क्यों नहीं खौलता युवा खून


बढ़ते भ्रष्टाचार और लोकतंत्र पर हो रहे लगातार हमलों को देख कर युवा लीडर खामोश क्योंट है, क्यों वो चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देख रहा है। आखिर इन सवालों के जबाव तलाशने की जहमत कोई क्योंो नहीं उठाना चाह रहा। आश्यआर्च होता है कि संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता महात्मां गांधी जी के मूक बंदर से ही इतने प्रेरित क्योंा हैं। युवा सांसद भ्रष्टांचार की सड़ांध पर तो मूक रहते है, लेकिन सुनने और देखने में इन्हेंं कोई आपत्ति नहीं है, शायद मजा आता हो।  अफसोसजनक बात यह है कि इन बंदरों को युवाओं का पैरोकार बताया जाता है, लेकिन इनका खून देश में फैले भ्रष्टारचार और कदाचार पर नहीं खौलता, क्यों कि मुंह खोलने का इन्हें  आदेश नहीं है। हालांकि तमाशा देखने और दिखाने की इनको छूट है। माननीय राहुल गांधी जी का तमाशा पिछले कई वर्षों से लगातार से आप देख ही रहे हैं। पूरा देश केंद्रीय सरकार द्वारा प्रायोजित भ्रष्टाहचार की दलदल में फंसा बास मार रहा है, लेकिन राहुल गांधी जी यहां मूक रहते हैं, क्योंमकि इसका कोई पोलिटिकल माइलेज नहीं है शायद। लेकिन उत्तरर प्रदेश में भ्रष्टांचार के मुद्दे पर बोलने और खून खौलाने के लिए उन्हेंू पूरी आजादी है।  यहां तक कि उन्हें  यहां कानून का उलंघन करके भी बोलने और घेराबंदी करने की इजाजत उनके आकाओं द्वारा दे दी जाती है, लेकिन वो लोकतांत्रिक तरीके से भ्रष्टातचार के विरोध में जुटे हजारों लोगों को बेदर्दी से आधी रात में खदेड़ने से नहीं हिचकिचाते हैं, तुर्रा यह है कि उन्होंटने यह कार्रवाई लॉ एंड आर्डर के खतरे से निपटने के लिए किया।   आखिर क्योंक, यह बात किसी को परेशान नहीं करती है। उत्तदर प्रदेश में भ्रष्टायचार और अपराध के विरोध में राहुल गांधी गांवों और खलिहानों तक के चक्क्र लगा रहे हैं, लेकिन वहीं राहुल गांधी केंद्र सरकार द्वारा लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर किए गए हमलों और निरीह जनता पर आधी रात में लाठी भांजे जाने पर चुप्पीव साथ लेते हैं, इस चुप्पीध की वजह शायद आप समझ ही गए होंगे।  राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री बनने की कतार में खड़े हैं, उन्हें  सोच समझ कर कीचड़ उठाना होगा और सोच समझ कर उसे सही जगह पर फेंकना होगा, ताकि राजनीतिक फायदा मिल सके। इसलिए मजबूरन सब कुछ देखने, सुनने और समझने के बावजूद, वो चुप रह जाते हैं।  अब खुद पर कीचड़ फेंककर वो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक तो नहीं पहुंच सकते। इसलिए वो उत्तिर प्रदेश सरकार पर मजबूरन कीचड़ उछाल रहे हैं, जिससे उनको और उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा मिल सके।  राहुल की निगाह उत्तसर प्रदेश में होने वाले 2012 के विधानसभा चुनाव पर है और भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाकर उनका वोट हासिल करना है ताकि विधानसभा चुनाव में पार्टी का कद बढ़ सके। पता नहीं, माननीय राहुल गांधी जी को जनता इतनी बेवकूफ क्योंि नजर आती है। राहुल इतनी जल्दीम बिहार की पराजय को भूला चुके हैं क्याब। अमेठी को छोड़कर शायद ही राहुल गांधी को कोई ठीक से जानता है, क्योंहकि कलावती जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं, जहां राहुल गांधी बगले झांकते हुए नज़र आते हैं। अब ऐसे युवा पूरे देश का नेतृत्वह कैसे करेंगे। वर्तमान समय में, संसद में 60 से अधिक सांसद युवा श्रेणी में आते हैं, जिनकी उम्र 30 से 40 वर्ष के बीच है। लेकिन किसी भी युवा सांसद में  लोकतांत्रिक हमलों और भ्रष्टांचार के विरोध में आवाज उठाने का दम नहीं हैं। पक्ष-विपक्ष में बैठे निर्वाचित युवा सांसदों द्वारा अभी तक एक भी ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे लगे कि वो सचमुच युवा नेता है अथवा युवाओं का प्रतिनिधित्व  करते हैं। युवा सांसदों का खून क्योंे नहीं खौलता, इसका कारण समझ में आता है, लेकिन क्या  आपको पता है कि इसकी असली वजह क्या  है। वजह साफ है उचित युवा भागीदारी। संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता, वंशवाद की उपज है, इनमें से अधिकांश युवा सांसदों को अपने देश की मिट्टी की असली महक तक नहीं मालूम है। ऐसे युवा लीडर जनता की जरूरतों के लिए नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिए जनता की कुटियाओं का दौरा करते हैं। जब तक इन कुटियों से लीडर नहीं निकलेंगे, यह तमाशा जारी रहेगा।  पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए कुलीन वर्ग के कुछ गंवार और अवसरवादी युवाओं को इसलिए टिकट थमाते हैं ताकि उनसे तात्काालिक लाभ मिल सके और यही मानसिकता लगभग भारत के सभी उच्चक शिक्षण संस्थाेनों में भी नजर आता है। माना जाता है कि महाविद्यालयों की कैंपस राजनीति एक संस्थाक के सुचारू संचालन को बेहतर बनाती है और यहां के माहौल युवाओं की राजनीतिक और नेतृत्वो कौशल को तेज करते हैं।  छात्र आज भी उदासीन प्रशासनों और गुंडो के बीच दबा हुआ महसूस करता है। यही कारण है कि होनहार युवा राजनीति में आने से कतराते हें, जिनसे युवाओं को उबारना जरूरी है, ताकि उन्हेंब मुख्यसधारा में लाया जा सके और देश को एक बेहतर नेतृत्वब हासिल हो सके।   

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

ट्वीट-ट्वीट जनरेशन और लोकतंत्र

शिव ओम गुप्‍ता
यकीन मानिए फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइटों ने लोकतांत्रिक आंदोलनों को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया है। इसमें दो राय नहीं कि कल जन आंदोलनों के लिए प्रसिद्ध प्रमुख ऐतिहासिक स्‍थल जंतर-मंतर और संसद भवन जैसे तमाम स्‍मारक वीरान हो जाएं।
आधुनिक टेक्‍नोलॉजी के संक्रमण और प्रचलन ने निश्चित रूप से लोकतांत्रिक आंदोलन के स्‍वरूपों और स्‍वभावों में भी परिवर्तन ला दिया है। लोकतांत्रिक और सामाजिक हितों की कवायद के लिए कल आयोजित होने वाली रैली और महारैलियों के लिए क्‍या नई जनरेशन के पास समय होगा? गारंटी से नहीं कहा सकता। ऐसे में लोकतांत्रिक मुद्दों पर जनता का समर्थन पाने के लिए सोशल साइट्स और टेक्‍नोलॉजी एक बेहतर विकल्‍प के रूप में उभर कर सामने आएं हैं, जहां नई जनरेशन बिना अपना समय जाया किए अपने रूख और समर्थन को आसानी से रख पाती है।
 गांधीवादी नेता अन्‍ना हजारे शायद इस वास्‍तविकता से वाकिफ थे। उन्‍होंने भ्रष्‍टाचार और जन लोकपाल विधेयक मुद्दे पर नई जनरेशन से समर्थन पाने के लिए नई टेक्‍नोलॉजी का सहारा लिया। आमरण अनशन पर बैठने से पहले उन्‍होंने जनता से मिस्‍ड कॉल समर्थन की दुहाई की, जिसमें खासकर नई जनरेशन ने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। इस दौरान उन्‍होंने फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल साइटों पर जनता से भ्रष्‍टाचार सहित अन्‍य मुद्दों पर लाइव चर्चा की और समर्थन भी प्राप्‍त किया। यकीनन अन्‍ना का यह शिगुफा काम कर गया। शायद समय का तकाजा भी यही है, क्‍योंकि भागमभाग और रस्‍साकसी से भरी जिंदगी में फंसे लोगों के पास समय ही तो नहीं है। सवाल यह है कि अभी तक राजनीतिक रैलियों के लिए बसों और ट्रेनों से भीड़ जुटाने वाले नेता क्‍या कल भी प्रबुद्ध्‍ जनरेशन को भीड़ तंत्र का हिस्‍सा बना सकेंगे, कहना मुश्किन है। राइट टू एजुकेशन और राइट टू इंफरमेशन कानून ने नई जनरेशन को ही नहीं, कभी हासिए पर रहे उनके अभिभावकों को भी अपने अधिकारों के प्रति लड़ने के लिए सचेत कर रही हैं। 
भारतीय दूर संचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में तेजी से मोबाइल और इंटरनेट उपभोक्‍ताओं और उपयोगकर्ताओं की संख्‍या में इजाफा हुआ है। यही नहीं इंटरनेट जैसी सुविधाओं से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्‍चे भी वाकिफ हो चुके हैं।
वक्‍त बदल रहा है, जनता भी बदल रही है, नेता कब बदलेंगे?     

सीरियल सीरियसली हैं खतरनाक


शिव ओम गुप्‍ता
क्‍या आप भी किसी टीवी सीरियल की बहू, बेटी अथवा सास से प्रभावित हैं ?
यह सच है, वर्तमान दौर में टीवी चैनलों पर आने वाले रोजमर्रा के सास-बहू सीरियलों ने खासकर बहुओं और बेटियों के जीवन शैली को पूरी तरह से बदल डाला है, यहीं नहीं इसने उनके नजरिए पर भी कब्‍जा जमा लिया है। असर इतना है कि सीरियल के किरदारों के प्रभाव में हिप्‍नोटाइज होकर ऐसी बहू और बेटियां न केवल सीरियल के किरदारों की नकल कर रही हैं बल्कि वर्चुअल जिंदगी भी जीने को मजबूर हो रही हैं।
मैं, क्‍योंकि सास भी कभी बहू थी की तुलसी नहीं, जो हर जुल्‍म को आर्शीवाद समझ कर निगल जाऊंगी।
मैं, पवित्र रिश्‍ता की अर्चना नहीं हूं, जो सास के जुल्‍मों को आसानी से घूंट जाऊंगी, मुझे ईट का जबाव पत्‍थर से देना आता है।
क्‍या आपने अपनी बहू या बेटी को बंद कमरे में ऐसी खुसुर-पुसुर करते सुना है, यदि नहीं, तो अच्‍छी बात है लेकिन यदि हां, तो सावधान हो जाइए, क्‍योंकि सीरियसली यह सीरियल का असर है, जो उन्‍हें वास्‍तविक जिंदगी में भी वर्चुअल जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर रही है। वाकई में यह चिंतनीय बिषय है, समाजविद्व इसका जब हल निकालेंगे तब निकालेंगे, लेकिन स्थिति भयावह हो, इससे पहले हमें खुद इससे निपटने की कवायद शुरू कर देनी चाहिए।
अभी हाल ही में एक रपट आई है कि घरेलू हिंसा के मामले में बहूएं सास से दो कदम आगे निकल गई हैं। रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान समय की बहुएं आज अपनी सासों पर जुल्‍म ढाने लगी हैं। मतलब यह कि घरेलू हिंसा के मामले में बहुओं की जगह अब सास अधिक शिकार हो रही हैं। हालांकि इसके पीछे कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं, लेकिन सीरियल के प्रभाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। दिलचस्‍प यह है कि पारंपरिक रूप से जहां पहले सास पर बहुओं को सताने का आरोप लगता था, आज वहीं आरोप अब बहुओं के मामले में तेजी से उभर कर सामने आ रहे हैं। टीवी सीरियल का योगदान इसमें कितना है, पता लगाना जरूरी है।
  पवित्र रिश्‍ता सीरियल में प्रतिज्ञा पर ढाए गए जुल्‍मों का असर आपकी बहू पर भी पड़ पर सकता है, ससुराल शिमर का सीरियल की शिमर की तरह आपकी बेटी भी आपके भरोसे और अरमानों के खिलाफ झंडा बुलंद कर सकती है और न आनो इस देश लाडो की अम्‍माजी के कारण आपकी सुशील और समझदार बहू पर बेवजह शामत आ सकती है। राहत वाली बात यह है टीवी सीरियल की आशिकी में मर्दों की संख्‍या काफी कम है वरना घरेलू महाभारत में कितने दुर्योधन और शकुनी रोज जन्‍म ले रहे होते, कहना मुश्किल है।

सृष्टि नहीं, दृष्टि बदलिए

शिव ओम गुप्‍ता
सुकांत, विज्ञान संकाय में सीनियर सेकेंडरी का छात्र है। अगले वर्ष वह बोर्ड परीक्षा में बैठने वाला है, जो उसके करियर की दिशा और दशा दोनों को निर्धारित कर सकती है। लेकिन सुकांत असमंजस में है, वह तो परीक्षा के नाम से ही डरा हुआ है। समस्‍या यह है कि सुकांत विज्ञान नहीं बल्‍कि कॉमर्स से सीनियर सेकेंडरी करना चाहता था, जिससे आगे चलकर वह बीकाम कोर्स में दाखिला ले सके और चार्टेड एकाउंट बनने के सपने के करीब पहुंच सके। लेकिन डाक्‍टर पिता के सपनों के लिए सुकांत अब न केवल पशोपेश में हैं बल्कि अब वह क्‍या करे या और क्‍या ना करे के भंवर में फंस चुका है। बात केवल अकेले सुकांत की होती तो ठीक थी, लेकिन ऐसे कईयों सुकांत ऐसी अनचाही परीक्षाएं देने व अनचाहे करियर बनाने के लिए मजबूर हैं। कुछ माता-पिता के सपनों को जिंदा रखने के लिए ऐसा करते हैं तो कुछ दूसरों के सपनों को साकार करने के लिए ऐसा करते हैं बजाय यह तलाशे कि वह खुद क्‍या करना चाहते है अथवा वह खुद क्‍या कर सकते हैं। एक दिन स्‍थिति यह बनती है कि ऐसे सुकांत डिग्रियां तो हासिल कर लेते हैं लेकिन करियर निर्माण से कोसों दूर हो जाते हैं। फिर सिलसिला शुरू होता है बिन मांगे सलाह का। ‘बेटा घर बैठने से अच्‍छा है कोई काम कर ले अथवा कोई बात नहीं, भूल जा और अब जो तुझे ठीक लगे वह कर ले।’ वही माता-पिता और सगे संबंधी जो कल तक सुकांत को डाक्‍टर और इंजीनियर बनाने पर तुले हुए थे, वह एकाएक बदल जाते हैं। वो भी तब जब बच्‍चे करियर भंवर में गोते व हिचकोले खा रहे होते हैं। होता यह है कि माता पिता के सपने, फिर अपने सपने पूरे करने में ऐसे सुकांत ओवर ऐज हो जाते हैं और सिर्फ रिसाईकिलिंग के लायक रह जाते हैं, जहां उन्‍हें छोटी-मोटी नौकरी से संतोष करना पड़ता है। रमेश रंजन, डबल एम ए है मगर उसे पता नहीं कि वह अब ऐसा क्‍या करें कि अपनी और अपने छोटे से परिवार की आजीविका के लिए कुछ पैसा कमा सके। डिग्रियों के चौके-छक्‍के लगाते वक्‍त रमेश रंजन ने कभी ऐसा नहीं सोचा था कि उसकी खुद की डिग्री ही उसके राह की रोड़ा बन जाएगी। ऐसे डिग्रीधारी ऐसी हालात में चौराहे की किसी भी छोटी-बड़ी नौकरी में भविष्‍य तलाशनें निकल पड़ते हैं। हालांकि इन दिशाहीन डिग्रीधारियों में कुछ एक्‍स्‍ट्रा आर्डनरी छात्र भी होते हैं जो आगे भी निकल जाते हें लेकिन अफसोस यह है कि इनमें से अधिकांश कभी आर तो कभी पार वाली नैया में जिंदगी भर डूबते-उपराते रहने के लिए मजबूर होते हैं। समाचार पत्र का एक विज्ञापन- चपरासी पद हेतु उम्‍मीदवार की आश्‍वयकता है, योग्‍यता है पाचवीं पास, यकीकन चपरासी की नौकरी के लिए पाचवीं पास ही योग्‍यता मांगी गई है लेकिन यह क्‍या? नौकरी के लिए आए आवेदनों में एक चौथाई से अधिक आवेदक बीए व एमए डिग्रीधारी हैं। सवाल उठता है क्‍या डिग्रियां अपनी अहमियत खो चुकी है? अथवा इन डिग्रियों का बाजार में कोई मोल नहीं है? जबाव है हां, हालांकि यह पूरा सच नहीं है, क्‍योंकि कोई भी डिग्री करियर के लिए तभी मायने रखती है जब उस डिग्री से मन मस्‍तिष्‍क में एक विजन तैयार हो। भारत में अभी भी प्रोफेशनल शिक्षा कोई खास मुकाम नहीं हासिल कर सकी है इसलिए करियर निर्माण की ओर अग्रसर छात्रों को खुद ही तय करना होगा कि उन्‍हें क्‍या करना चाहिए। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के करियर काउंसलर गुरूप्रीत सिंह टूटेजा कहते हैं कि छात्र की निजी योग्‍यता, रूचि और श्रम क्षमता एक अच्‍छे करियर की कसौटी होती है और हाईस्‍कूल बोर्ड परीक्षा के परिणाम के बाद यह लगभग सुनिश्‍चित हो जाता है कि छात्र की रूचि, योग्‍यता और क्षमता किस क्षेत्र, विषय और कार्यक्षेत्र के लिए अधिक अथवा कम है। उनके अनुसार सीनियर सेकेंडरी अथवा इंटरमीडियट तक आते-आते यह सुनिश्‍चित हो जाता है कि छात्र को कला, विज्ञान, वाणिज्‍य इत्‍यादि किस ओर कदम बढ़ाना उचित होगा। सीधी सी बात है एक बेहतर भविष्‍य और सुरक्षित करियर के लिए छात्रों को प्रोफेशनल होना अत्‍यंत जरूरी है। क्‍योंकि हाईस्‍कूल का परिणाम यह तय करती है कि किस क्षेत्र में उड़ान भरना उनके करियर के लिए बेहतर होगा। टूटेजा जी के अनुसार छात्रों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में वो छात्र आते है जो लक्ष्‍य की ओर फोकस होते हुए डिग्रियां हासिल करते हैं, दूसरी श्रेणी मीडियोकर छात्रों की होती है जो करियर निर्माण के लिए हमेशा जद्दोजहद में यकीन रखते है। मतलब इस श्रेणी के छात्र एक साथ दो नहीं चार-पांच नावों पर सवारी करना पसंद करते हैं। इनका करियर सफर स्‍कूल टीचर से शुरू होकर सिविल सेवा तक खत्‍म होता है। इनकी संख्‍या काफी होती है, तीसरी श्रेणी में वो छात्र होते हैं जिन्‍हें बेचारा कहना कोई बुराई नहीं है। इस श्रेणी के छात्र मेहनती जरूर होते हैं लेकिन मालदार नहीं होते, इसीलिए इनका फोकस पढ़ाई पर कम कमाई पर ज्‍यादा होता है। गरीबनवाज ऐसे छात्रों के पास करियर के लिए कोई विजन नहीं होता है। बकौल टूटेजा इन श्रेणी के छात्रों के हाथों में करियर के हमेशा चार बॉल होते हें, जिन्‍हें वो हवा में प्राय: उछालते रहते हैं। आज कम्‍प्‍युटर ऑपरेटर, कल कॉल सेंटर में, अगले दिन किसी एमएनसी कंपनी में इन्‍हें देखा जा सकता है। ताज्‍जुब नहीं इस श्रेणी के छात्र छोटे-बड़े सभी पदों पर आसानी से देखे जा सकते हैं। सवाल उठता है कि ऐसा क्‍या किया जाए, जिससे छात्रों को भटकने से बचाया जा सके। भारतीय जन संचार संस्‍थान में प्रोफेसर डा हेमंत जोशी के अनुसार छात्रों का भविष्‍य निर्माण उसके घर से शुरू होता है। मसलन माता-पिता का रवैया, घर का वातावरण और कुछ हद तक आर्थिक स्‍थिति, जो छात्रों में सकारात्‍मक और नकारात्‍मक ऊर्जा भरने के लिए जिम्‍मेदार होते हैं। छात्रों के आत्‍मबल और आत्‍मसंयम का डगमगाना मसलन सांइस की पढ़ाई करते-करते अचानक आर्ट कोर्स में दाखिला लेना, सिविल सेवा का लक्ष्‍य बनाना फिर बीएड-बीपीएड जैसे कोर्सों में दाखिला लेना । बकौल जोशी, छात्र की अभिरूचि और लोगों से उसका व्‍यवहार ही वह कसौटी है जो छात्र की दिशा और दशा को संचालित करती है और उन्‍हें बतलाती है कि वह क्‍या है और कहां पर खड़े है और कहां तक आगे बढ़ सकते हैं। हालांकि शिक्षा के सेलबेस और पद्धति को लेकर प्राय: दलीलें दी जाती है कि शिक्षा की बोझिलता को कम किया जाए, अभिभावक बच्‍चों पर अनावश्‍यक दबाव न डालें वगैरा-वगैरा। लेकिन सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि छात्र, जिसे मेहनत करना है, जिसे काबिल बनना है उसके मन में क्‍या है। क्‍योंकि अधिकांश अभिभावक उनकी बात सुनने, समझने और समर्थन करने के बजाय उन्‍हें अपने सपनों की ओर मुड़़ने के लिए वि‍वश करते हैं। वो सपना, जिसे उनके माता-पिता ने कभी हासिल किया है या जिसे वह कभी खुद नहीं हासिल कर सके।
यह समझ से परे है कि बगैर बीमारी जाने जब डाक्‍टर खुद जांच नहीं शुरू कर पाता, फिर छात्रों से बिना उसकी मंशा जाने कैसे किसी एक खूंटे से बांधना जायज है। छात्र माता-पिता और अध्‍यापकों की अपेक्षाओं से अधिक क्षमतावान हो सकता है अथवा कमजोर, ऐसी परिस्‍थितियों में होता यह है कि छात्र 4 से 5 साल लोगों के सपने पूरी करने में गवांने के सिवाय कुछ हासिल नहीं कर पाता, यकीनन यही भटकाव है जिसके लिए छात्र खुद भी जिम्‍मेदार होता है। जोशी का मानना है कि छात्रों को उनके अभिभावकों से छूट मिलनी चाहिए, जिससे वह खुद अपने करियर निर्माण की दिशा तय करें और अभिभावकों को कोई भी विजन अथवा सपने बच्‍चों पर थोपने से पूरी तरह से बचना चाहिए तभी एक बेहतर करियर निर्माण की तरफ छात्र को पहुंचाया जा सकता है।

1. शिक्षा की बोझिलता को कम किया जाना चाहिए, दसंवीं परीक्षा में ग्रेडिंग प्रणाली काफी हद तक स्‍वागत योग्‍य कहा जा सकता है।
2. कालेजों और महाविद्यालयों के शिक्षकों को छात्रों की क्षमतानुसार सलाहकार की भूमिका निभानी चाहिए।
3. अभिभावकों को अपने बच्‍चों के रूचियों और खूबियों के बारें में विचार-विमर्श करना चाहिए।
4. पाठ्येत्‍तर कार्यक्रमों एंव पठन-पाठन की रूचि को बढ़ाना चाहिए चाहे वा उपन्‍यास ही क्‍यो ना हो।
5. छात्रों के सोचने और समझने की क्षमता बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम पढ़ाए जाने चाहिए।
6. वाद-विवाद प्रतियोगिता व जीवन के बारे में छात्र की राय व सोच जानने के लिए कांउसलिंग करायी जानी चाहिए!
7. जनरेशन टू जनरेशन संवाद कायम किया जाना चाहिए।
8. पाठ्यक्रम को सरल बनाया जाए, बातचीत इत्‍यादि में अधिक ध्‍यान दिया जाना चाहिए।
9. सकारात्‍मक भटकाव से घबड़ाने के बजाय सहयोग दिया जाना चाहिए। दण्‍डात्‍मक कार्रवाई ना करके छात्र को समझाया जाना चाहिए कि क्‍या उसके लिए उसकी क्षमतानुसार ठीक अथवा गलत है।
10. चिंतन और विष्‍लेषणपरक चर्चा की जानी चाहिए।
11. पैरेंट्स का रोल बहुत ही अहम है क्‍योंकि बेहतर भविष्‍य का निर्माण के लिए 60 प्रतिशत पढ़ाई और 40 प्रतिशत आबजरवेशन और कांउसलिंग महत्‍वपूर्ण होती है।

सोमवार, 2 मई 2011

Kaash!!!


Dil Agar HARD DISK hota to sabhi Yadoin ko SAVE kar sakte the... Dimag mein Agar PRINTER hota to khayaloin ko PRINT OUT nikal lete... Dhadkan me agar PENDRIVE hoti to Zindagi ka back up le lete... Man mein jo BLUETOOTH hota to batoin ko transfer kar dete... Ankhoin mein jo WEBCAM hote to tasviroin ko recieve kar sakte... Yadoin ka RECYCLE BIN hota to dukhi hone se pahle unhe bhi DELETE kar dete... Kaash...Zindagi bhi COMPUTER hota to ise phir se RESTART kar lete! Uuf yeh Kaash!!!