बुधवार, 10 दिसंबर 2014

कांग्रेस काल में 9000 मुस्लिमों ने किया धर्मान्तरण, तब कहां थी मीडिया?

केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी का 2012 में वहां की विधानसभा में दिए बयान के मुताबिक वर्ष 2006 से 2012 के बीच केरल में कुल 7,000 से अधिक लोगों को धर्म परिवर्तन के जरिए मुसलमान बनाया गया, लेकिन कोई भी नेशनल चैनल्स ने चर्चा तो छोड़ो, टिकर भी देना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज मीडिया चैनल्स ने ऐसी मछली बाजार लगा रखी है कि दिमाग का दही कर दिया।

क्या मीडिया पर सवाल नहीं उठने चाहिए कि क्या वह अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा रही है या महज हंगामा खड़ा करना ही अब मीडिया का मकसद रह गया है?

क्या केन्द्र में आई बीजेपी (मोदी सरकार) के खिलाफ मीडिया का इसे साजिश नहीं करार नहीं देनी चाहिए?

क्योंकि वर्ष 2006 से वर्ष 2009 के बीच मनमोहन सरकार के दौरान कुल 9000 लोगों ने धर्मान्तरण किया, जिनमें 2000 से अधिक लोगों ने मुस्लिम धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म स्वीकार किया था पर तब ना तो नेताओं ने कुछ बोला और ना तथाकथित ज़िम्मेदार मीडिया ने कोई चर्चा (हो-हल्ला) की थी?

यही नहीं, पूरे नॉर्थ-ईस्ट में मिशनरीज ने पैसे और अन्य लालचो़ं के धोखे से पूरे के पूरे हिंदू आबादी को ईसाई बनाती जा रही है, मीडिया इस पर भी चुप है,  क्यों?

नॉर्थ-ईस्ट ही क्यों, देश भर के अलग अलग हिस्सों में भी ऐसा ही हो रहा है लेकिन मीडिया वहां इतनी गंभीर नहीं,  क्योंकि वहां मसाला नहीं है?

पूरे नॉर्थ-ईस्ट में राशन कार्ड जैसी चीज़ों के लिए हर वर्ष हजारों हिन्दू जबरन ईसाई बनाने जाते हैं पर मीडिया कान में तेल डालकर सोई रहती है,  क्योंकि नॉर्थ-ईस्ट की खबरों में ज्यादा माइलेज नहीं होता है?

मीडिया देश का एजेंडा तय करती है,  लेकिन मीडिया एकतरफा रिपोर्टिंग करती है इसका सुबूत सबके सामने है!

यह बात सौ फीसदी सच है कि गरीबी,  तंगहाली और लालच में आकर अधिकांश धर्म परिवर्तन की ओर बढ़ने की सोचते हैं, जिसके लिए जितनी जिम्मेदारी सरकारें हैं उससे अधिक जिम्मेदार तथाकथित मीडिया है!

क्या मीडिया तमाशबीन नहीं हो गईं हैं,  जो दिनभर के तमा़शाई खबरों का मज़मा लगाती है और उन्हीं खबरों को मुद्दा वे एजेंडा बनाती है, जिसमें अधिक विवाद व दर्शक मिलते हैं!

अब देश की जनता और दर्शकों को तय करना होगा कि वो कितनी जिम्मेदार है और वह मीडिया के चोचलों और झांसों से कैसे निपटेगी?

देश के दर्शकों को मीडिया को अब बताना ही होगा कि वह न्यूज चैनल या न्यूज पेपर मनोरंजन के लिए नहीं, मसाले के लिए नहीं, बल्कि देश का हाल जानने के लिए और खबर जानने के लिए करती है,  क्योंकि मनोरंजन थे लिए सैकड़ों चैनल हैं और हाथ में रिमोट है!

ऐसा तरीके से ही मीडिया को उसकी  जगह दिखाई जा सकेगी और तभी मीडिया देश की बुनियादी मुद्दों को उठाएगी और मसालों को छोड़ विकास को एजेंडा बनाना शुरू करेगी ?

नॉर्थ-ईस्ट में संघ परिवार एकल विद्यालय के जरिए लाखों हिन्दुओं को मिशनरीज के चंगुल से बचाने का काम करती है, लेकिन मजाल है किसी मीडिया ने निष्पक्ष होकर उस पर रिपोर्टिंग करने कोशिश की हो?

हालांकि हम दर्शक भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितनी की मीडिया? क्योंकि हम खुद मसालेदार खबरों के आदी हो चुके हैं?

अब हम जब मसाला देखेंगे और देश की अन्य खबरों पर नहीं रुकेंगे तो टीआरपी के लिए हमें वैसी ही खबरे परोसी जाएंगी,  जहां आपका रिमोट रूक जाता है?

दर्शक कल से मसालेदार खबरों से नजरें फिराना शुरू करके सिर्फ और सिर्फ न्यूज देखना शुरू कर दें तो देश के विकास और  समस्याओं से जुडी खबरें हिट होनी शुरू हो जाएंगी और न्यूज चैनलों से मसालेदार  खबरें खुद-ब-खुद गायब होने लगेंगी!

तो मीडिया को सबक सिखाना शुरू कीजिए और उसे मजबूरी कीजिए कि आप न्यूज चैनल समाचार सुनने और देखने के लिए देखते है, हंसने, गुदगुदाने और मनोरंजन के लिए नहीं, क्योंकि मनोरंजन के लिए आपके पास काफी विकल्प है और हाथ में रिमोट है!

दर्शक अगर कल से न्यूज चैनल पर हो रहे तमाशों का बहिष्कार करना शुरु कर दें और तमा़शाई खबरों के शुरू होते ही चैनल बदल लें तो मजबूरन चैनल्स सुधारना शुरू कर देंगे, करके देखिए... ये आपका हक भी है और जिम्मेदारी भी, जय हिंद!

मर्दो के इज्जत कारोबार में आया रिशेसन?

मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करती हैं कि इज्जत सिर्फ लड़कियों की ही क्यों होती है? या लड़कों की भी कोई इज्जत होती होगी?

क्योंकि मर्द (लड़के) प्राय: अपनी तथाकथित इज्जत की शेखी महिला पर शासन करके व उसे मन मुताबिक प्रतिबंधित करके ही कमाता आया है?

लेकिन अब जब लड़कियां खुद की रक्षा-सुरक्षा करने के लिए इंडिपेंडेंट हुई जा रहीं हैं तो लड़कों (मर्दो) के तथाकथित इज्जत का क्या होगा? वो इज्जत, जो मर्द महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर अब तक कमाते रहें हैं?

अब मर्दों के दंभ का क्या होगा? जो ये मानते आए हैं कि उनके बिना महिलाओं का वजूद कुछ नहीं है?

क्योंकि आज की इंडिपेंडेंट महिलाएं खुद अपनी इज्जत की सुरक्षा के लिए मर्दों की ओर नहीं देख रहीं!

तो क्या महिला की इज्जत बचाकर इज्जत कमाने वाले कारोबारी मर्द अब बेरोजगार हो जाएंगे? मतलब जब  लड़कियां इंडिपेंडेंट होंगी तो मर्द बेरोजगार ही नहीं, बल्कि इज्जतविहीन हो जाएंगे?

क्योंकि लड़कियां इंडिपेंडेंट हो रहीं है और इज्जत का कारोबार मर्दों के हाथों से छिनता जा रहा है, तो बड़ा सवाल है कि अब लड़के क्या करेंगे?

क्योंकि लड़कों (मर्दों) की अपनी कोई इज्जत तो होती नहीं है? मर्दों की इज्जत तो घरों की उन बेरोजगार महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा से जुड़ी होती है, जो मर्दों के लिए सुबह-शाम खाना पकाती है और दिन-रात सेवा में जुटी रहती हैं?

भारतीय घरों के हर एक मर्द को इज्जत बचाने के कारोबार पर जन्मसिद्ध अधिकार है! पति-पत्नी की रक्षा (पहरा) करता है, फिर पिता-बेटी की रक्षा करता है और भाई- बहन की रक्षा करता है?

बहुत बड़ा है यह इज्जत बचाने का कारोबार, लेकिन अब जब ये कारोबार ही नहीं बचेगा तो मर्दों का फर्स्ट्रेट होना स्वाभाविक ही है!

क्या भाई! कारोबार भी छीन लोगे और बोलने भी नहीं दोगे? अब लड़कियों के जींस पहनने और उनके मोबाइल उपयोग पर प्रतिबंध को मर्दों का डैमज कंट्रोल मान लीजिए और ऑनर किलिंग को साइड इफैक्ट!

मर्दों (लड़कों) की इज्जत नहीं होती है, इसका प्रमाण किसी भी भारतीय घर में मिल जाएगा?

यह किसी भी भारतीय घर में लड़कियों और लड़कों की परवरिश में साफ साफ नजर आता है, लड़का बाहर से कितना भी मुंह काला करके आए हमारे समाज व परिवार में उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता?

लेकिन उसी घर की लड़की को स्कूलिंग के आगे की पढ़ाई इसलिए छोड़नी पड़ जाती है, क्योंकि लड़की की इज्जत का सवाल है?

मीडिया में और मीडिया की नौकरी, दोनों जुदा बातें हैं?

पत्रकारिता होती थी या होती रहती है अथवा होती होगी के बीच कड़ी है पत्रकारिता की जाती है?

इसका सच-उसका सच, मेरा सच-तेरा सच, पहला सच-आखिरी सच, और जरुरी सच-गैर जरूरी सच के दोराहे पर खड़े हम हमेशा यूटर्न लेने को मजबूर होते है कि पहला सच किसका दिखाएं इसका या उसका?

सबके अपने गढ़े हुए सच हैं और उन सचों के वर्जनों में वेराइटी भी मौजूद है, बोलो क्या खरीदोगे...बस रिमोट बाजू में रख दो...टीआरपी का सवाल है बाबू?

किस सच से लाभ है, किससे हानि? यह तय करके ही सच उजागर किया जाएगा, क्योंकि सच की ना ही गुंजाइश है और ना ही सच कभी प्रोडक्टिव कारोबार रहा है, क्योंकि जल्दी चुक (खत्म) जाता है? मतलब 'जितनी सच से दूरी-उतनी तरक्की पूरी'

सच से किसको लोभ और लाभ है भला, कहते भी हैं कि अगर झूठ से किसी की जान बचती है तो वो सच के बराबर है, शायद इसीलिए झूठ का कारोबार ही मीडिया और पत्रकारिता का मूल मंत्र बन गया है!

भई, सच से किसका भला हुआ आज तक? हममें से 90 फीसदी अपनी पूरी जिंदगी झूठ के सहारे जीेते है और सच से दूर, जितना दूर हो सके भागते रहते है...और कोई झटके देकर सच का सच और झूठ का झूठ बतलाता भी है तो भी हम नहीं मानते कि दुनिया गोल है, क्योंकि हम लंबी सोच में प्राय: लंबे जो रहते है!

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

पत्रकारिए धर्म के बदलते-सिमटते पैमाने?

ये कहां आ गए हम, सरे राह चलते-चलते...
पत्रकारिए बिडंबना दिल्‍ली में रहने वाले 28 वर्षीय विकास को एक साल पहले जब एक प्रतिष्‍ठित हिन्‍दी चैनल में बतौर प्रशिक्षु नौकरी मिली तो माथे से बेरोजगारी का कलंक हटने से विकास काफी प्रसन्‍न था। दूसरी तरफ सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ने का जोश हिलोरे मार रहा था। बगैर पल गवांए विकास लड़ाई में उतर जाना चाहते थे। पर ये क्‍या हुआ।

अभी पत्रकारिता में कुछ ही दिन बीते थे कि अचानक विकास साहब का कथित पत्रकारिता से ही मोहभंग हो गया। उम्र ढल जाए कि इससे पहले आज विकास एक सरकारी नौकरी ढूंढने में मशगूल है ताकि बाकी की जिंदगी शांति से अपनी शर्तों पर जी सकें।

दिल ढूंढता है फिर वहीं यह हकीकत किसी एक युवा पत्रकार की नहीं, बल्‍कि हर उस युवा पत्रकार की है, जो वास्‍तविकता से परे इस पत्रकारिता की काली कोठरी में खिंचे चले आ रहे हैं। फिर तो ग्‍लैमर, पैसा और साथ में समाजसेवा के गढ़े हुए मानकों को कंठस्‍थ करके ही उस कोठरी से बाहर निकलते हैं, लेकिन वो युवा पत्रकार जिनके सपने चकनाचूर हो गए, जब ग्‍लैमर, पैसा और समाजसेवा के गढ़े इन तीनों मानकों में से एक भी हाथ में नहीं पाता। तो उस पर क्‍या बीतती है, समझा जा सकता है। ग्‍लैमर, पैसा और पत्रकार चलिए बात ग्‍लैमर से ही शुरू करते हैं, आप समझाइए।

मौजूदा दौर के समाचार पत्रों और चैनलों की भीड़ में आज कितने युवा पत्रकार प्रभाष जोशी, प्रणय राय और विनोद दुआ जैसे बड़े नाम बन पाऐंगे। प्रभाष जोशी उस समय के पत्रकार रहें हैं जब अखबार सामाजिक सरोकारों से जुड़े मिशनों के लिए बिकते थे न कि बांबे स्‍टॉक एक्‍सचेंज में अपने शेयर होल्‍डरों की संख्‍या बढ़ाने के लिए, जैसा आज है।

रही बात प्रणय राय, दीपक चौरसिया और पुण्‍य प्रसून बाजपेयी जैसे गिनती के पत्रकारों की, तो ये भारतीय टीवी पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार रहे हैं जब टीवी पत्रकारिता के नाम पर समाचार चैनलों के एक दो ही विकल्‍प रहा करते थे।

दौर-ए-जहन्‍नुम लेकिन क्‍या आज टीआरपी और मसाला खबरों की भीड़ में कोई अंगदी पैर जमाने की गल्‍ती कर पाएगा, अपने आपको इन्‍हीं की तरह मजबूती से स्‍थापित कर पाएगा। मान लिया कोई फैंटम बन भी गया तो इस बात की गारंटी नहीं है कि दफ्तर उनकी सेवाओं को कब समाप्‍त कर दे और उनके स्‍टार-दम को अर्श से फर्श पर दे मारें।

एक टीवी चैनल से धोखा खा चुके पुण्‍य प्रसून बाजेपयी जो पुराने खिलाड़ी थे बगैर छीछालेदर के निबट गए, लेकिन वहीं अगर कोई नया खिलाड़ी होता तो उसे दूसरे संस्‍थानों में नौकरी पाने में कितने तलवे घिसने पड़ते, भुक्‍तभोगी युवा समझ चुके हैं।

दम है जान है फिर भी हैरान हैं एक संस्‍थान में सभी तो हीरो बन नहीं सकते, आखिर रोटी और रोजी का सवाल है जिसके लिए समझौते पर तैयार होना लाजिमी है। वह पहले अपना तन काला करता है फिर मन काला होने देता है यहीं नही धन कमाने के लिए कुछ भी कहने-सुनने के लिए तैयार भी है।

मतलब तन मन धन सारे काले करने के बाद भी असुरक्षा और अनिश्‍चितता की भंवर में उसे डूबना ही है। बतलाइए दम और जान के बगैर इंसान तो चल नहीं सकता एक पत्रकार ही चल पाता है क्‍योंकि झटके से स्‍टार्ट और बदं होने वाले ऐसे मशीनी पत्रकार पेट्रोल तब तक पाते है जब तक वे मालिक के मनमुताबिक चलते है वरना मशीन बंद तो पेट्रोल बंद। यही दस्‍तूर है मशीनीकरण का। बुरा मत मानिएगा।

का करूं सजनी भाए ना कॉलम

भई दिल्‍ली और मुंबई जैसे मीडिया केंद्रों में जिंदगी जीने के लिए आप बेहद कंजूसी से भी पैसा खर्च करेंगे तो 8 से 10 हजार का भट्ठा बैठ जाएगा।

 बावजूद इसके ऐसे सैकड़ों युवा पत्रकार इस विचित्र सी दुनिया में आपको विचरण करते दिख जाऐंगे जो समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में 4 से 8 हजार में ड्यूटी बजाने को तत्‍पर दिख जाऐंगे।

यहीं नहीं कितने तो ऐसे है जो महीनों इस आस में मुफ्त में ही सेवाएं दे रहे हैं कि कब बुलावा आ जाए और बेड़ा पार लगे। कई युवा पत्रकार तो ऐसे भी है जिन्‍हें बावजूद नौकरी के खुद का खर्चा चलाने के लिए घर से पैसे मंगाने पड़ रहें हैं।

खुद की जिम्‍मेदारी उठाने में काले हो चुके ऐसे पत्रकार को करियर के चार-पांच साल बाद जब घर-बार और शादी-विवाह की जिम्‍मेदारी निभानी का भार आता है तो वह जद्दोजहद करता दिखता है। ऐसे में बहन की शादी या माता-पिता की बीमारी के इलाज जैसी अगर कोई बड़ी पारिवारिक जिम्‍मेदारी ऊपर आ गई तो कल्‍पना ही कंपा देती है।

व्‍यथा की कथा मैं आपको एक पत्रकार दोस्‍त के बारें में बताता हूं जिनकी शादी को पिछले तीन साल से ज्‍यादा हो चुके हैं और वे चाहते हुए अगले दो साल तक बच्‍चा पैदा नही करना चाहते। उनका कहना है कि जब वेतन बढेगा या कोई अच्‍छी नौकरी मिलेगी तभी वे इस बारे में सोचेंगे।

 रजिस्‍ट्रार ऑफ न्‍यूज पेपर ऑफ इंडिया के आंकड़ो मुताबिक यूं तो देश में चार हजार से ज्‍यादा हिन्‍दी पत्र-पत्रकाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन हिन्‍दी मीडिया बाजार में राज करने वाले गिनती के दो चार नामी संस्‍थानों को छोड़ बाकी लागत ही नहीं निकाल पा रहें है तो पत्रकारों को तनख्‍वाह कहां से देंगे, और अगर कोई लागत निकाल रहें हैं तो वे गुलाम पत्रकारों के शोषण से कमा रहे हैं।

 ऐसे में दो चार हिंदी मीडिया संस्‍थान बुर्जुवा बनने में तनिक भी लज्‍जा महसूस नहीं कर रहे हैं और हम मार्क्‍स के सर्वहारा मजदूरों की तरह अपना सब कुछ हार रहे हैं। मरता क्‍या ना करता मजदूर रूपी पत्रकार सैंकड़ों हैं और नौकरी दस-बीस।

अब ऐसे में इन संस्‍थानों की ओर से सस्‍ता श्रम क्‍यों नहीं खरीदा जाएगा। यह ऐसा बाजार है जहां बाजार में खड़े गधों और घोड़ों की कीमत बराबर लगती है। ऐसा समाजवाद शायद ही कहीं देखने को मिले। अंग्रेजी

 मीडिया संस्‍थान में पिछले तीन साल से काम करने वाले और हिन्‍दी संस्‍थान में पिछले दस-बीस साल से काम करने वाले के वेतन में अंतर देख कर आसानी से समझ सकते हैं कि स्‍थिति कितनी भयावह है।

प्रत्‍येक वर्ष सरकारी और कुकुरमुत्‍ते मीडिया संस्‍थान लाखों की संख्‍या में डिग्रियां रेवड़ियों की तरह बांट रही हैं। लेकिन रोजगार देने वाले संस्‍थानों की स्‍थिति जस की तस बनी हुई है। लाइन में लगे रहे नंबर आए तो उतर जाओ और जितना नहा सको नहा आओ, वरना नंबर आने का इंतजार करो।

 यहां अंग्रेजी पत्रकारिता की कर्मठता बताने के लिए रीतिकालीन कवि बनने की कोशिश नहीं की जा रही है बल्‍कि सिर्फ वास्‍तविकता की चादर पर लगे धब्‍बों को दिखाने की कोशिश की जा रही है।

मनी है तो ठनी है आज वैश्‍विक बाजार होने के कारण अंग्रेजी पत्रकारों के पास ढेरों विकल्‍प हैं। ऐसे में अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों को प्रतिस्‍पर्धा में आगे आने के लिए कुशल पत्रकारों की जरूरत है और हिन्‍दी पत्रकारों से कहीं अच्‍छा वेतन देकर वे ऐसे अंग्रेजी पत्रकारों की सेवाएं भी ले रहे हैं।

यह बात किसी भी हिन्‍दी और अंग्रेजी पत्रकार के पास उपस्‍थित बुनियादी और आर्थिक संसाधनों को देखकर स्‍वत: ही लगाया जा सकता है। जबकि इसके उलट हिन्‍दी संस्‍थानों में अनुवाद, पेज मेकिंग से लेकर रिर्पोटिंग तक सभी का एक ही आदमी से कराए जाते हैं। लेकिन हालात जस के तस है। बुनियादी और आर्थिक संस्‍थानों की कमी है और उम्र थोड़ा बढ़ जाने पर इधर-उधर भागने का कोई विकल्‍प भी जारी है। बाजार में गिनती के चार लाला की दुकान है एक से बचोगे तो दूसरा नोचेगा। क्‍या करेगा भईया

ऐसे में आप किसी हिन्‍दी पत्रकार से कैसे अपेक्षा कर सकते है कि वह प्रेसविज्ञप्‍ति छापने पर पैसे न ले या गिफ्ट पाकर किसी कंपनी का पीआर और पब्‍लिसिटी करने से बचे, प्रशासनिक धांधलियों से बचे, या रोज एक टाइम का खाना प्रेस कांफ्रेंस के दौरान खाते दिख जाए।

इन्‍हें टोकने का आपको कोई अधिकार नहीं है। क्‍योंकि पेट सबको पालना है। सबको अपने बच्‍चों को डीपीएस में पढ़ाना है। सबको ब्रांडेड कपड़े पहनने है। कोई समझाए ना अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को निभाने के लिए ही नौकरी के एवज में पैसे की दरकार हर कोई करता है।

 कुछ हिन्‍दी मीडिया संस्‍थान बहुत अच्‍छा पैसा दे रहे हैं। लेकिन ऐसे हिन्‍दी मीडिया संस्‍थानों की संख्‍या इक्‍का-दुक्‍का ही है। जिनमें से आधे मूल रूप अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों की उपज है।

दूसरे ऐसे संस्‍थान ज्‍यादा पैसा देने पर काम की जगह खून पी रहें हैं। जिनमें मुख्‍य तौर पर हिन्‍दी टीवी संस्‍थान शामिल है, जहां प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति से औसतन 12 से 14 घंटे काम करवाया जा रहा है। अब अगर कोई आदमी 24 घंटे में से 12 घंटे काम करेगा, 7 से 8 घंटे सोएगा, 2-3 घंटे ऑफिस आने-जाने में बरबाद करेगा तो फिर वो इंसान क्‍यों है, मशीन ही बन जाए क्‍योंकि 7-8 घंटे का आराम तो मिल की मशीनों को भी मिल जाता है।

जिंदगी मौत ना बन जाए संभलो यारों लाख बुरे हालातों के बावजूद आज भी युवा पत्रकारों की एक ऐसी खेप है जो इस इंडस्‍ट्री में सरोकारों की ज्‍वाला को लेकर आती है। भंयकर रचनात्‍मकता से ओत-प्रोत ये लोग हिन्‍दी मीडिया के वर्तमान में सबसे ज्‍यादा प्रताड़ित होने का कारण ये स्‍वयं है क्‍योंकि ये हिन्‍दी पत्रकारिता के उस इतिहास को पढ़ कर पत्रकार बनने चले है जो आजादी और वंचितों की लड़ाई से भरी पड़ी है।

लेकिन भईया माहौल बदल गया है। कलम की ताकत लाला की दुकान हो गई है। जिससे ज्‍यादा मुनाफा होगा, वही छपेगा। लेकिन ये बात इन पत्रकारों की समझ में ही नहीं आती है। क्‍योंकि इन्‍होंने पत्रकारिता के वसूलों और धर्म को गले जो लगा बैठे हैं। अब इस तरह की लड़ाई लड़ने चलोगे तो राह में कंकड़-पत्‍थर तो जरूर मिलेंगे, हां वो सुकूंन की गांरटी अब नहीं दी जा सकती है।

ना समझे तो अनाड़ी हो बाजारवाद को अभी तक नहीं समझे हैं तो अनाड़ी तो हो ही, जल्‍दी नहीं चेते तो पनवाड़ी की दुकान भी खोलनी पड़ सकती है। अब आपका पत्रकारिए धर्म आपसे चाहता है कि आप गरीबी और विकास से जूझ से रहे बुंदेलखंड और विदर्भ के वर्तमान हालातों पर स्‍टोरी करो, लेकिन टीआरपी की मांग है कि राखी सावंत का स्‍वयंवर, करीना की बिकनी, आमिर के ऐट एब्‍स जैसी खबरें। जिसे देखते ही दर्शकों की दीदे टीवी चैनल पर अटक के रह जाए। तो वहीं खबरें चलेंगी, जिससे टीआरपी रेट बढ़े, आपने भले ही बढ़िया पैकेज बनाया हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

हिन्‍दी अखबारों का भी यही हाल है। आधा समय अंग्रेजी खबरों के अनुवाद में बीतता है तो आधा पेज मेकिंग में, थोड़ी बहुत रिर्पोटिंग जो होती भी है, उसमें रिर्पोटर को संस्‍थान की सोच, औद्योगिक और राजनैतिक घरानों से संबंधों की मर्यादा, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों से मिलने वाले विज्ञापनों का लिहाज रखना पड़ता है।

 ऐसे में पत्रकार और मीडिया संस्‍थान के आदर्श में एक गहरा अंतर हो जाता है। जिसका परिणाम या तो अवसादग्रस्‍त पत्रकार नौकरी छोड़ देता है अथवा मीडिया संस्‍थान उसे खुद बाहर का रास्‍ता दिखा देती है। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों की खबर करते समय अगर मुकदमेबाजी या अपराधियों से पंगा लेना पड़ा तो वो भी आपके जिम्‍मे।

सबसे बड़ा रुपैया वैसे गलती मीडिया संस्‍थानों की भी नहीं है। भई आगे रहने का सारा खेल टीआरपी और सर्कुलेशन के मत्‍थे है। चटक-मटक नहीं दिखाऐंगे, नहीं छापेंगे तो टीआरपी और सर्कुलेशन कैसे बढ़ेगा। दर्शक और पाठक भी तो यही पढ़ना और देखना चाहता है। या यह भी कह सकते हैं कि हम दर्शक को जागरूक ही नहीं करना चाहते, मुनाफा जो लक्ष्‍य है।

काश ऐसा हुआ होता मुझे ऐसा लगता है पत्रकारिता के पतन का कारण हमारे देश का देर से आजाद होना है। सोचिए देश अगर सही तरीके से 1857 में ही आजाद हो जाता, तो जल्‍दी विकास होता, जल्‍दी बाजारवाद आता। और विकास के शुरूआती दौर में मीडिया संस्‍थानों की ऊल-जुलूल सामाग्री को पढ़कर, देख कर दर्शक और पाठक अब तक उकता चुके होते और आज इस समय हमारे पास जागरूक पाठक और दर्शकों की एक बहुत भारी खेप होती। जो विकास की खबरों में ही रूचि लेती।
ऐसे में खबरें भी विकास के मुद्दों के लिए ही होती और वे पत्रकार भी खुश रहते जो सामाजिक सरोकारों की लड़ाई के लिए ही पत्रकारिता का रास्‍ता चुनते हैं।

अंगूर खट्टे हैं, चखने को नहीं मिले तो चीखे केजरीवाल!

कहते हैं कि आदमी की औकात उसकी बोल-बच्चन से पता चला जाता है! 

सुना है आजकल अरविंद केजरीवाल चंदा मांगने दिल्ली से दूर अमेरिका प्रवास पर हैं, जहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रॉक स्टार स्वागत पर पूरा भारत ही नहीं,  जहां - जहां भारतीय बसते हैं सीना चौड़ा हो गया था! 

लेकिन केजरीवाल साब को जब अमेरिका में वैसा स्वागत समारोह तो छोड़ो कोई पूछ-तवज्जो तक नहीं मिला तो अमेरिका में अपनी औकात दिखाते हुए उन्होंने उल्टी कर दी है। 

बोले, " प्रधानमंत्रियों को मनोरंजन के लिए विदेश यात्राएं नहीं करनी चाहिए" 

इसे ही कहते हैं आदमी की औकात, जिसकी फितरत जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव पर बदलने में देरी नहीं लगती है। 

राजनीतिक में उठा-पटक तो ठीक है, लेकिन ऐसी बेहूदगी तो एक सामान्य नागरिक भी नहीं करेगा और फिर  जनाब केजरीवाल तो देश की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिशें पाल रखी थी! 

प्रधानमंत्री देश का प्रधानमंत्री होता है और विदेश में भारतीय नागरिक ही अपने देश के प्रधानमंत्री का मजाक बनाएगा तो बाहर देश की साख पर बट्टा नहीं  लगेगा? 

धिक्कार है केजरीवाल तुम पर! थोड़ी बहुत जो साख जो बची थी वो भी खत्म कर दी तुमने,  तुमने खुद पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है! 

आओ बेटा, अमेरिका से चंदा लेकर लौटो दिल्ली और मांगना दिल्ली से वोट... इस बार जनता चांटे नहीं, जूते-चप्पल से स्वागत करेगी! 

भरोसा नहीं तो पढ़िए नवभारत टाइम्स की पूरी स्टोरी-
http://navbharattimes.indiatimes.com/world/america/pms-shouldnt-go-abroad-for-entertainment-value-arvind-kejriwal/articleshow/45433374.cms

शादी क्या लड़की की जिंदगी से ज्यादा जरुरी है?

बेटी की शादी की जल्दबाजी हर मां-बाप को रहती है, जिसको वो अपनी जिम्मेदारी से अधिक मर्यादा से जोड़कर अधिक देखते हैं,  ऐसा क्यों?

काफी पड़ताल के बाद पता चला कि लड़कियों की शादी के दौरान मां-बाप वैयक्तिक व सामाजिक सुख अधिक तलाशते हैं बजाय विवाहित लड़की के सुख के!

मां-बाप लड़की के सुख के साधनों का इंतजाम दहेज और पैसे के जरिए तो कर सकते हैं,  लेकिन लड़की  की सुखों का क्या?

लड़की मां-बाप की बात मानें तो गुणवान, चरित्रवान और शीलवान और इनकार तो कर ही नहीं सकती और करने की कोशिश भी करती है तो हजार मसले हो जाऐंगे कि लड़की बेशर्म है, बददिमाग है और हाथ से निकल गई है।

मुद्दा है कि लड़कियों की शादी में मां-बाप का हस्तक्षेप कितना जरुरी है? और शादी के लिए लड़की की रजामंदी कितनी जरुरी है?

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि मां-बाप शादी से पहले बेटी की पसंद-नापसंद जानने के अलावा अमीर-गरीब के तराजू भी किनारे रख दें?

कहने का मतलब है कि बेटी की शादी किसी ऐसे होनहार, ईमानदार और मेहनती लड़के के साथ करने की कोशिश  कर सकते हैं, जिसके पास शादी  से पहले बंगला, गाड़ी और बैंक बैलेंस की  शर्तें ना लागू हो?

हर एक मां-बाप शादी के बाद बेटी को सुखी देखना चाहता है,  शायद यही वजह है कि मां-बाप बेटी की शादी के लिए दहेज बेटी के जन्म से ही जुटाना शुरू कर देते हैं, अब ये धन बेटी की मनपसंद लड़के से हुई अरेंज शादी के बाद बेटी-दामाद के भविष्य में भी सहायक ही नहीं अमूल्य साबित हो सकते हैं!

ऐसी शादियों से दो बातें बिल्कुल पक्की हो जाएंगी। पहला, दहेज अपराध शून्यता की ओर अग्रसर हो जाएंगे। दूसरा,  घरेलू हिंसा में तेजी से सुधार संभव होगा, लिख के ले लो!

सब कुछ कूंए में डाल, चला केजरीवाल CM बनाने?

पारंपरिक देसी नेताओं की नूराकुश्ती से दिल्ली को मुक्त कराने के लिए जन आंदोलन छोड़कर मजबूरी में राजनीति में आने वाले अरविंद केजरीवाल अब सत्ता ही नहीं,  मुख्यमंत्री पद के भी लालची हो चले हैं?

यही तो बात है... पारंपरिक नेता ही तो नहीं थे केजरीवाल,  जिसपर भरोसा करके लोगों ने केजरीवाल  को वोट  किया था!

क्योकि.. वो तो जन आंदोलन से निकले-उबले और हारे आम आदमी थे...जिन्हें मजबूरी में चुनाव में उतरना पड़ा था...

केजरीवाल खुद कहा करते थे कि क्योंकि बाकी सभी पार्टियों  के नेता चोर थे, झूठे थे और भ्रष्टाचारी थे, इसलिए वो  राजनीति  में  कूदे और पार्टी  बनाई?

लेकिन राजनीति में आते ही केजरीवाल खुद उसी खांचे में ट्रॉंसफॉर्म हो गए...और लालच और वोट के लिए वही करने लगे जैसे सभी देसी नेता करते हैं,  फिर हम क्यों दे तुम्हें वोट केजरीवाल?

सारा दुख और अफसोस तो इसी बात का है कि एक जन आंदोलन से निकला आदमी महज सत्ता के लिए वहीं सब कर रहा है जिनको गाली देकर वो खुद चुनाव में कूदने की मजबूरी बता रहा था?

#kezriwal #AAP #Delhi #AssemblyPoll

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कांग्रेस के बाद AAP पार्टी भी डूब गई तो क्या होगा?

मीडिया जगत में काम कर चुके एक पीढ़ी के कुछ पत्रकारों ने लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान अपनी पेशेगत निष्पक्षता और ईमानदारी को गिरवी रख तत्कालीन सरकार के पक्ष में और पीएम मोदी के विरुद्ध  माहौल तैयार करने में अपनी एड़ी-चोटी की जोर लगा रखी थी, लेकिन नतीजा शून्य रहा!

उनमें से कुछ चेहरे तो बाकायदा सामने भी आए और हम उनकी फजीहत भी देख चुके हैं, लेकिन शेष बचे ऐसे कई चेहरे अभी और भी हैं, जो मृत्यु की ओर उन्मुख कांग्रेस को छोड़ आम आदमी का समर्थन में नारे लगाते अभी भी देखे जा सकते हैं!

ये लोग आपकी आंखों के सामने रोज होते हैं टीवी की बहसों में, चैनल कोई भी बदल लो?

आपको इन्हें पहचानने में जरा भी दिमाग लगाने की जरुरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि  ये लोग इतनी फर्स्ट्रेशन में हैं कि बहस के दौरान बेसिरपैर की बातों से मुद्दे को व्यक्तिगत बना लेते हैं और ऐसे दलील देते हैं कि एंकर ही नहीं, प्रोड्युसर भी सोचने लगते हैं कि मुद्दा और एजेंडा क्या था, जिस पर वो बहस कर रहे थे?

क्योंकि उपरोक्त पीढ़ी के पत्रकार जब टीवी पर बहस करते हैं तो मुद्दे और एजेंडे कुछ भी हो, सब पीछे छोड़ अपनी पूरी एनर्जी मोदी सरकार के खिलाफ बोलने व उसकी कमियां निकालने में झोंकने लगते हैं!

फर्स्ट्रेशन इसकी नहीं है कि मोदी सरकार अच्छा कर रही है या बुरा कर रही है, बल्कि फर्स्ट्रेशन इस बात का है कि
कांग्रेस के बाद AAP पार्टी भी डूब गई तो उनका भविष्य क्या होगा?

मतलब, पत्रकारिता भी गई और राजनीति में पैर पसारने का मौका भी हाथ न आया यानी ना माया मिली ना राम!

शुक्रिया! पूजा-आरती, तुमने लड़कों को पीड़ित बना दिया?

चलो, एक बार मान भी लें कि #रोहतक की #दबंग लड़कियों ने बस की सीट के लिए लड़कों की पिटाई की होगी और जबरन #वीडियो भी बनाया होगा.. तो?

याद कीजिए, एक वो दौर जब #हरियाणा में हर दिन लड़कियों से #बलात्कार की खबरें अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियां में होती थीं और हम सोचते थे कि लड़के कितने जंगली और खूंखार होते होंगे?

लेकिन रोहतक की पूजा और आरती की कहानी बता रही है कि इन दोनों ने सड़कों पर चल रहें लड़कों के बीच कैसा खौफ भर दिया है, लड़के बलात्कार के बारे में सोचना तो छोड़ो, जान बचा कर भागने को मजबूर दिखाई दे रहें हैं?

नि:संदेह यह एक सामाजिक बदलाव है, जिसमें #पुरुष सत्तात्मक #समाज में पहली बार पुरुष को (लड़का) पीड़ित और निर्दोष के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है...यह पुरुषों के लिए हास्यास्पद है, लेकिन स्त्री समुदाय के लिए गर्व का विषय है!

यह घटना एक बेहतर सामाजिक बदलाव का द्योतक है, जिसे महिलाओं की स्थिति-परिस्थिति और उनके सुनहरे भविष्य का परिचायक कहा जा सकता है!

पहली बार ऐसा हुआ है जब लड़के गिड़गिड़ा रहें हैं और लड़कियां छाती चौड़ी करके धौंस जमाती हुई देखी जा रहीं हैं वरना किसी ने देखा था ऐसा नजारा?

टीवी चैनलों का पूरा का पूरा फ्रेम बदला हुआ है, जहां पीड़ित फ्रेम में पहले लड़कियां होती थीं वहां अब लड़के खड़े हैं और जहां लड़के खड़े होते थे आज उक्त फ्रेम में दबंग लड़कियां खड़ी हैं!

क्या नजारा है, अद्भुत-अविस्मरणीय! यह घटना अब उन सभी लड़कियों को हिम्मत देगा कि कमजोर और लाचार होकर #अत्याचार सहने के बजाय अब वो भी लड़कों को मुंहतोड़ जबाव दे सकती हैं और लड़कों को उनकी जगह दिखा सकती है!

मैं पूजा और आरती का स्वागत करता हूं और चाहता हूं कि देश की हर लड़की पूजा और आरती से प्रेरित होकर हर छेड़छाड़ और #शोषण का #प्रतिरोध करें और लड़कों के अक्ल को ठिकाने लगाए!

दो राय नहीं कि पूजा और आरती देश के लिए एक प्रेरणा बन कर उभरी हैं और दोनों ने अपने बूते लड़कों की पिटाई करके उन सभी लड़कियों को यह संकेत और संदेश दिया है कि लड़कों की #टीजिंग और #छेड़छाड़ का जबाव दिया जा सकता है!

तो लड़कियों आगे बढ़ो और हल्ला बोल दो उन लड़कों पर जो आपको अब तक परेशान करते आ रहें है या तंग करने की मंशा से आगे-पीछे मंडरा रहें है!

शुक्रिया! पूजा और आरती, तुमने जो किया है उससे पूरी नारी जगत का उत्थान और बदलाव जरूर होगा...एक बार और धन्यवाद!

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

बचपन के दिन....

बचपन के दिन और बचपन की बातें

बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
न खर्चे की चिंता न पैसे की यारी
वो गिल्ली, वो डंडा, वो बैल की सवारी। 
टोली, ठिठोली और हवा हवाई बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें। 
पड़ोसी की चाय और हलवाई की दुकान 
वो चुस्की वो मुस्की, और भौजी की मुस्कान 
भरी दुपहरी और इश्क के ठहाके 
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
सावन की रिमझिम और रसभरी बातें
जलेबी से मीठे हर रिश्ते् हर नाते
शाम की बैठक की बाटी और चोखे
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें
खेतों की मेड़ों से खलिहानों का दौर
गोरकी की चक्कर में सवरकी से बैर
भुलाए न भूले वो नहरियां के गोते
बहुत याद आती हैं वो बेफि‍क्री रातें
बचपन के दिन और बचपन की बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

क्यों नहीं खौलता युवा खून


बढ़ते भ्रष्टाचार और लोकतंत्र पर हो रहे लगातार हमलों को देख कर युवा लीडर खामोश क्योंट है, क्यों वो चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देख रहा है। आखिर इन सवालों के जबाव तलाशने की जहमत कोई क्योंो नहीं उठाना चाह रहा। आश्यआर्च होता है कि संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता महात्मां गांधी जी के मूक बंदर से ही इतने प्रेरित क्योंा हैं। युवा सांसद भ्रष्टांचार की सड़ांध पर तो मूक रहते है, लेकिन सुनने और देखने में इन्हेंं कोई आपत्ति नहीं है, शायद मजा आता हो।  अफसोसजनक बात यह है कि इन बंदरों को युवाओं का पैरोकार बताया जाता है, लेकिन इनका खून देश में फैले भ्रष्टारचार और कदाचार पर नहीं खौलता, क्यों कि मुंह खोलने का इन्हें  आदेश नहीं है। हालांकि तमाशा देखने और दिखाने की इनको छूट है। माननीय राहुल गांधी जी का तमाशा पिछले कई वर्षों से लगातार से आप देख ही रहे हैं। पूरा देश केंद्रीय सरकार द्वारा प्रायोजित भ्रष्टाहचार की दलदल में फंसा बास मार रहा है, लेकिन राहुल गांधी जी यहां मूक रहते हैं, क्योंमकि इसका कोई पोलिटिकल माइलेज नहीं है शायद। लेकिन उत्तरर प्रदेश में भ्रष्टांचार के मुद्दे पर बोलने और खून खौलाने के लिए उन्हेंू पूरी आजादी है।  यहां तक कि उन्हें  यहां कानून का उलंघन करके भी बोलने और घेराबंदी करने की इजाजत उनके आकाओं द्वारा दे दी जाती है, लेकिन वो लोकतांत्रिक तरीके से भ्रष्टातचार के विरोध में जुटे हजारों लोगों को बेदर्दी से आधी रात में खदेड़ने से नहीं हिचकिचाते हैं, तुर्रा यह है कि उन्होंटने यह कार्रवाई लॉ एंड आर्डर के खतरे से निपटने के लिए किया।   आखिर क्योंक, यह बात किसी को परेशान नहीं करती है। उत्तदर प्रदेश में भ्रष्टायचार और अपराध के विरोध में राहुल गांधी गांवों और खलिहानों तक के चक्क्र लगा रहे हैं, लेकिन वहीं राहुल गांधी केंद्र सरकार द्वारा लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर किए गए हमलों और निरीह जनता पर आधी रात में लाठी भांजे जाने पर चुप्पीव साथ लेते हैं, इस चुप्पीध की वजह शायद आप समझ ही गए होंगे।  राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री बनने की कतार में खड़े हैं, उन्हें  सोच समझ कर कीचड़ उठाना होगा और सोच समझ कर उसे सही जगह पर फेंकना होगा, ताकि राजनीतिक फायदा मिल सके। इसलिए मजबूरन सब कुछ देखने, सुनने और समझने के बावजूद, वो चुप रह जाते हैं।  अब खुद पर कीचड़ फेंककर वो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक तो नहीं पहुंच सकते। इसलिए वो उत्तिर प्रदेश सरकार पर मजबूरन कीचड़ उछाल रहे हैं, जिससे उनको और उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा मिल सके।  राहुल की निगाह उत्तसर प्रदेश में होने वाले 2012 के विधानसभा चुनाव पर है और भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाकर उनका वोट हासिल करना है ताकि विधानसभा चुनाव में पार्टी का कद बढ़ सके। पता नहीं, माननीय राहुल गांधी जी को जनता इतनी बेवकूफ क्योंि नजर आती है। राहुल इतनी जल्दीम बिहार की पराजय को भूला चुके हैं क्याब। अमेठी को छोड़कर शायद ही राहुल गांधी को कोई ठीक से जानता है, क्योंहकि कलावती जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं, जहां राहुल गांधी बगले झांकते हुए नज़र आते हैं। अब ऐसे युवा पूरे देश का नेतृत्वह कैसे करेंगे। वर्तमान समय में, संसद में 60 से अधिक सांसद युवा श्रेणी में आते हैं, जिनकी उम्र 30 से 40 वर्ष के बीच है। लेकिन किसी भी युवा सांसद में  लोकतांत्रिक हमलों और भ्रष्टांचार के विरोध में आवाज उठाने का दम नहीं हैं। पक्ष-विपक्ष में बैठे निर्वाचित युवा सांसदों द्वारा अभी तक एक भी ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे लगे कि वो सचमुच युवा नेता है अथवा युवाओं का प्रतिनिधित्व  करते हैं। युवा सांसदों का खून क्योंे नहीं खौलता, इसका कारण समझ में आता है, लेकिन क्या  आपको पता है कि इसकी असली वजह क्या  है। वजह साफ है उचित युवा भागीदारी। संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता, वंशवाद की उपज है, इनमें से अधिकांश युवा सांसदों को अपने देश की मिट्टी की असली महक तक नहीं मालूम है। ऐसे युवा लीडर जनता की जरूरतों के लिए नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिए जनता की कुटियाओं का दौरा करते हैं। जब तक इन कुटियों से लीडर नहीं निकलेंगे, यह तमाशा जारी रहेगा।  पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए कुलीन वर्ग के कुछ गंवार और अवसरवादी युवाओं को इसलिए टिकट थमाते हैं ताकि उनसे तात्काालिक लाभ मिल सके और यही मानसिकता लगभग भारत के सभी उच्चक शिक्षण संस्थाेनों में भी नजर आता है। माना जाता है कि महाविद्यालयों की कैंपस राजनीति एक संस्थाक के सुचारू संचालन को बेहतर बनाती है और यहां के माहौल युवाओं की राजनीतिक और नेतृत्वो कौशल को तेज करते हैं।  छात्र आज भी उदासीन प्रशासनों और गुंडो के बीच दबा हुआ महसूस करता है। यही कारण है कि होनहार युवा राजनीति में आने से कतराते हें, जिनसे युवाओं को उबारना जरूरी है, ताकि उन्हेंब मुख्यसधारा में लाया जा सके और देश को एक बेहतर नेतृत्वब हासिल हो सके।   

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

ट्वीट-ट्वीट जनरेशन और लोकतंत्र

शिव ओम गुप्‍ता
यकीन मानिए फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइटों ने लोकतांत्रिक आंदोलनों को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया है। इसमें दो राय नहीं कि कल जन आंदोलनों के लिए प्रसिद्ध प्रमुख ऐतिहासिक स्‍थल जंतर-मंतर और संसद भवन जैसे तमाम स्‍मारक वीरान हो जाएं।
आधुनिक टेक्‍नोलॉजी के संक्रमण और प्रचलन ने निश्चित रूप से लोकतांत्रिक आंदोलन के स्‍वरूपों और स्‍वभावों में भी परिवर्तन ला दिया है। लोकतांत्रिक और सामाजिक हितों की कवायद के लिए कल आयोजित होने वाली रैली और महारैलियों के लिए क्‍या नई जनरेशन के पास समय होगा? गारंटी से नहीं कहा सकता। ऐसे में लोकतांत्रिक मुद्दों पर जनता का समर्थन पाने के लिए सोशल साइट्स और टेक्‍नोलॉजी एक बेहतर विकल्‍प के रूप में उभर कर सामने आएं हैं, जहां नई जनरेशन बिना अपना समय जाया किए अपने रूख और समर्थन को आसानी से रख पाती है।
 गांधीवादी नेता अन्‍ना हजारे शायद इस वास्‍तविकता से वाकिफ थे। उन्‍होंने भ्रष्‍टाचार और जन लोकपाल विधेयक मुद्दे पर नई जनरेशन से समर्थन पाने के लिए नई टेक्‍नोलॉजी का सहारा लिया। आमरण अनशन पर बैठने से पहले उन्‍होंने जनता से मिस्‍ड कॉल समर्थन की दुहाई की, जिसमें खासकर नई जनरेशन ने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। इस दौरान उन्‍होंने फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल साइटों पर जनता से भ्रष्‍टाचार सहित अन्‍य मुद्दों पर लाइव चर्चा की और समर्थन भी प्राप्‍त किया। यकीनन अन्‍ना का यह शिगुफा काम कर गया। शायद समय का तकाजा भी यही है, क्‍योंकि भागमभाग और रस्‍साकसी से भरी जिंदगी में फंसे लोगों के पास समय ही तो नहीं है। सवाल यह है कि अभी तक राजनीतिक रैलियों के लिए बसों और ट्रेनों से भीड़ जुटाने वाले नेता क्‍या कल भी प्रबुद्ध्‍ जनरेशन को भीड़ तंत्र का हिस्‍सा बना सकेंगे, कहना मुश्किन है। राइट टू एजुकेशन और राइट टू इंफरमेशन कानून ने नई जनरेशन को ही नहीं, कभी हासिए पर रहे उनके अभिभावकों को भी अपने अधिकारों के प्रति लड़ने के लिए सचेत कर रही हैं। 
भारतीय दूर संचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के आंकड़े बताते हैं कि भारत में तेजी से मोबाइल और इंटरनेट उपभोक्‍ताओं और उपयोगकर्ताओं की संख्‍या में इजाफा हुआ है। यही नहीं इंटरनेट जैसी सुविधाओं से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्‍चे भी वाकिफ हो चुके हैं।
वक्‍त बदल रहा है, जनता भी बदल रही है, नेता कब बदलेंगे?     

सीरियल सीरियसली हैं खतरनाक


शिव ओम गुप्‍ता
क्‍या आप भी किसी टीवी सीरियल की बहू, बेटी अथवा सास से प्रभावित हैं ?
यह सच है, वर्तमान दौर में टीवी चैनलों पर आने वाले रोजमर्रा के सास-बहू सीरियलों ने खासकर बहुओं और बेटियों के जीवन शैली को पूरी तरह से बदल डाला है, यहीं नहीं इसने उनके नजरिए पर भी कब्‍जा जमा लिया है। असर इतना है कि सीरियल के किरदारों के प्रभाव में हिप्‍नोटाइज होकर ऐसी बहू और बेटियां न केवल सीरियल के किरदारों की नकल कर रही हैं बल्कि वर्चुअल जिंदगी भी जीने को मजबूर हो रही हैं।
मैं, क्‍योंकि सास भी कभी बहू थी की तुलसी नहीं, जो हर जुल्‍म को आर्शीवाद समझ कर निगल जाऊंगी।
मैं, पवित्र रिश्‍ता की अर्चना नहीं हूं, जो सास के जुल्‍मों को आसानी से घूंट जाऊंगी, मुझे ईट का जबाव पत्‍थर से देना आता है।
क्‍या आपने अपनी बहू या बेटी को बंद कमरे में ऐसी खुसुर-पुसुर करते सुना है, यदि नहीं, तो अच्‍छी बात है लेकिन यदि हां, तो सावधान हो जाइए, क्‍योंकि सीरियसली यह सीरियल का असर है, जो उन्‍हें वास्‍तविक जिंदगी में भी वर्चुअल जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर रही है। वाकई में यह चिंतनीय बिषय है, समाजविद्व इसका जब हल निकालेंगे तब निकालेंगे, लेकिन स्थिति भयावह हो, इससे पहले हमें खुद इससे निपटने की कवायद शुरू कर देनी चाहिए।
अभी हाल ही में एक रपट आई है कि घरेलू हिंसा के मामले में बहूएं सास से दो कदम आगे निकल गई हैं। रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान समय की बहुएं आज अपनी सासों पर जुल्‍म ढाने लगी हैं। मतलब यह कि घरेलू हिंसा के मामले में बहुओं की जगह अब सास अधिक शिकार हो रही हैं। हालांकि इसके पीछे कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं, लेकिन सीरियल के प्रभाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। दिलचस्‍प यह है कि पारंपरिक रूप से जहां पहले सास पर बहुओं को सताने का आरोप लगता था, आज वहीं आरोप अब बहुओं के मामले में तेजी से उभर कर सामने आ रहे हैं। टीवी सीरियल का योगदान इसमें कितना है, पता लगाना जरूरी है।
  पवित्र रिश्‍ता सीरियल में प्रतिज्ञा पर ढाए गए जुल्‍मों का असर आपकी बहू पर भी पड़ पर सकता है, ससुराल शिमर का सीरियल की शिमर की तरह आपकी बेटी भी आपके भरोसे और अरमानों के खिलाफ झंडा बुलंद कर सकती है और न आनो इस देश लाडो की अम्‍माजी के कारण आपकी सुशील और समझदार बहू पर बेवजह शामत आ सकती है। राहत वाली बात यह है टीवी सीरियल की आशिकी में मर्दों की संख्‍या काफी कम है वरना घरेलू महाभारत में कितने दुर्योधन और शकुनी रोज जन्‍म ले रहे होते, कहना मुश्किल है।

सृष्टि नहीं, दृष्टि बदलिए

शिव ओम गुप्‍ता
सुकांत, विज्ञान संकाय में सीनियर सेकेंडरी का छात्र है। अगले वर्ष वह बोर्ड परीक्षा में बैठने वाला है, जो उसके करियर की दिशा और दशा दोनों को निर्धारित कर सकती है। लेकिन सुकांत असमंजस में है, वह तो परीक्षा के नाम से ही डरा हुआ है। समस्‍या यह है कि सुकांत विज्ञान नहीं बल्‍कि कॉमर्स से सीनियर सेकेंडरी करना चाहता था, जिससे आगे चलकर वह बीकाम कोर्स में दाखिला ले सके और चार्टेड एकाउंट बनने के सपने के करीब पहुंच सके। लेकिन डाक्‍टर पिता के सपनों के लिए सुकांत अब न केवल पशोपेश में हैं बल्कि अब वह क्‍या करे या और क्‍या ना करे के भंवर में फंस चुका है। बात केवल अकेले सुकांत की होती तो ठीक थी, लेकिन ऐसे कईयों सुकांत ऐसी अनचाही परीक्षाएं देने व अनचाहे करियर बनाने के लिए मजबूर हैं। कुछ माता-पिता के सपनों को जिंदा रखने के लिए ऐसा करते हैं तो कुछ दूसरों के सपनों को साकार करने के लिए ऐसा करते हैं बजाय यह तलाशे कि वह खुद क्‍या करना चाहते है अथवा वह खुद क्‍या कर सकते हैं। एक दिन स्‍थिति यह बनती है कि ऐसे सुकांत डिग्रियां तो हासिल कर लेते हैं लेकिन करियर निर्माण से कोसों दूर हो जाते हैं। फिर सिलसिला शुरू होता है बिन मांगे सलाह का। ‘बेटा घर बैठने से अच्‍छा है कोई काम कर ले अथवा कोई बात नहीं, भूल जा और अब जो तुझे ठीक लगे वह कर ले।’ वही माता-पिता और सगे संबंधी जो कल तक सुकांत को डाक्‍टर और इंजीनियर बनाने पर तुले हुए थे, वह एकाएक बदल जाते हैं। वो भी तब जब बच्‍चे करियर भंवर में गोते व हिचकोले खा रहे होते हैं। होता यह है कि माता पिता के सपने, फिर अपने सपने पूरे करने में ऐसे सुकांत ओवर ऐज हो जाते हैं और सिर्फ रिसाईकिलिंग के लायक रह जाते हैं, जहां उन्‍हें छोटी-मोटी नौकरी से संतोष करना पड़ता है। रमेश रंजन, डबल एम ए है मगर उसे पता नहीं कि वह अब ऐसा क्‍या करें कि अपनी और अपने छोटे से परिवार की आजीविका के लिए कुछ पैसा कमा सके। डिग्रियों के चौके-छक्‍के लगाते वक्‍त रमेश रंजन ने कभी ऐसा नहीं सोचा था कि उसकी खुद की डिग्री ही उसके राह की रोड़ा बन जाएगी। ऐसे डिग्रीधारी ऐसी हालात में चौराहे की किसी भी छोटी-बड़ी नौकरी में भविष्‍य तलाशनें निकल पड़ते हैं। हालांकि इन दिशाहीन डिग्रीधारियों में कुछ एक्‍स्‍ट्रा आर्डनरी छात्र भी होते हैं जो आगे भी निकल जाते हें लेकिन अफसोस यह है कि इनमें से अधिकांश कभी आर तो कभी पार वाली नैया में जिंदगी भर डूबते-उपराते रहने के लिए मजबूर होते हैं। समाचार पत्र का एक विज्ञापन- चपरासी पद हेतु उम्‍मीदवार की आश्‍वयकता है, योग्‍यता है पाचवीं पास, यकीकन चपरासी की नौकरी के लिए पाचवीं पास ही योग्‍यता मांगी गई है लेकिन यह क्‍या? नौकरी के लिए आए आवेदनों में एक चौथाई से अधिक आवेदक बीए व एमए डिग्रीधारी हैं। सवाल उठता है क्‍या डिग्रियां अपनी अहमियत खो चुकी है? अथवा इन डिग्रियों का बाजार में कोई मोल नहीं है? जबाव है हां, हालांकि यह पूरा सच नहीं है, क्‍योंकि कोई भी डिग्री करियर के लिए तभी मायने रखती है जब उस डिग्री से मन मस्‍तिष्‍क में एक विजन तैयार हो। भारत में अभी भी प्रोफेशनल शिक्षा कोई खास मुकाम नहीं हासिल कर सकी है इसलिए करियर निर्माण की ओर अग्रसर छात्रों को खुद ही तय करना होगा कि उन्‍हें क्‍या करना चाहिए। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के करियर काउंसलर गुरूप्रीत सिंह टूटेजा कहते हैं कि छात्र की निजी योग्‍यता, रूचि और श्रम क्षमता एक अच्‍छे करियर की कसौटी होती है और हाईस्‍कूल बोर्ड परीक्षा के परिणाम के बाद यह लगभग सुनिश्‍चित हो जाता है कि छात्र की रूचि, योग्‍यता और क्षमता किस क्षेत्र, विषय और कार्यक्षेत्र के लिए अधिक अथवा कम है। उनके अनुसार सीनियर सेकेंडरी अथवा इंटरमीडियट तक आते-आते यह सुनिश्‍चित हो जाता है कि छात्र को कला, विज्ञान, वाणिज्‍य इत्‍यादि किस ओर कदम बढ़ाना उचित होगा। सीधी सी बात है एक बेहतर भविष्‍य और सुरक्षित करियर के लिए छात्रों को प्रोफेशनल होना अत्‍यंत जरूरी है। क्‍योंकि हाईस्‍कूल का परिणाम यह तय करती है कि किस क्षेत्र में उड़ान भरना उनके करियर के लिए बेहतर होगा। टूटेजा जी के अनुसार छात्रों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में वो छात्र आते है जो लक्ष्‍य की ओर फोकस होते हुए डिग्रियां हासिल करते हैं, दूसरी श्रेणी मीडियोकर छात्रों की होती है जो करियर निर्माण के लिए हमेशा जद्दोजहद में यकीन रखते है। मतलब इस श्रेणी के छात्र एक साथ दो नहीं चार-पांच नावों पर सवारी करना पसंद करते हैं। इनका करियर सफर स्‍कूल टीचर से शुरू होकर सिविल सेवा तक खत्‍म होता है। इनकी संख्‍या काफी होती है, तीसरी श्रेणी में वो छात्र होते हैं जिन्‍हें बेचारा कहना कोई बुराई नहीं है। इस श्रेणी के छात्र मेहनती जरूर होते हैं लेकिन मालदार नहीं होते, इसीलिए इनका फोकस पढ़ाई पर कम कमाई पर ज्‍यादा होता है। गरीबनवाज ऐसे छात्रों के पास करियर के लिए कोई विजन नहीं होता है। बकौल टूटेजा इन श्रेणी के छात्रों के हाथों में करियर के हमेशा चार बॉल होते हें, जिन्‍हें वो हवा में प्राय: उछालते रहते हैं। आज कम्‍प्‍युटर ऑपरेटर, कल कॉल सेंटर में, अगले दिन किसी एमएनसी कंपनी में इन्‍हें देखा जा सकता है। ताज्‍जुब नहीं इस श्रेणी के छात्र छोटे-बड़े सभी पदों पर आसानी से देखे जा सकते हैं। सवाल उठता है कि ऐसा क्‍या किया जाए, जिससे छात्रों को भटकने से बचाया जा सके। भारतीय जन संचार संस्‍थान में प्रोफेसर डा हेमंत जोशी के अनुसार छात्रों का भविष्‍य निर्माण उसके घर से शुरू होता है। मसलन माता-पिता का रवैया, घर का वातावरण और कुछ हद तक आर्थिक स्‍थिति, जो छात्रों में सकारात्‍मक और नकारात्‍मक ऊर्जा भरने के लिए जिम्‍मेदार होते हैं। छात्रों के आत्‍मबल और आत्‍मसंयम का डगमगाना मसलन सांइस की पढ़ाई करते-करते अचानक आर्ट कोर्स में दाखिला लेना, सिविल सेवा का लक्ष्‍य बनाना फिर बीएड-बीपीएड जैसे कोर्सों में दाखिला लेना । बकौल जोशी, छात्र की अभिरूचि और लोगों से उसका व्‍यवहार ही वह कसौटी है जो छात्र की दिशा और दशा को संचालित करती है और उन्‍हें बतलाती है कि वह क्‍या है और कहां पर खड़े है और कहां तक आगे बढ़ सकते हैं। हालांकि शिक्षा के सेलबेस और पद्धति को लेकर प्राय: दलीलें दी जाती है कि शिक्षा की बोझिलता को कम किया जाए, अभिभावक बच्‍चों पर अनावश्‍यक दबाव न डालें वगैरा-वगैरा। लेकिन सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि छात्र, जिसे मेहनत करना है, जिसे काबिल बनना है उसके मन में क्‍या है। क्‍योंकि अधिकांश अभिभावक उनकी बात सुनने, समझने और समर्थन करने के बजाय उन्‍हें अपने सपनों की ओर मुड़़ने के लिए वि‍वश करते हैं। वो सपना, जिसे उनके माता-पिता ने कभी हासिल किया है या जिसे वह कभी खुद नहीं हासिल कर सके।
यह समझ से परे है कि बगैर बीमारी जाने जब डाक्‍टर खुद जांच नहीं शुरू कर पाता, फिर छात्रों से बिना उसकी मंशा जाने कैसे किसी एक खूंटे से बांधना जायज है। छात्र माता-पिता और अध्‍यापकों की अपेक्षाओं से अधिक क्षमतावान हो सकता है अथवा कमजोर, ऐसी परिस्‍थितियों में होता यह है कि छात्र 4 से 5 साल लोगों के सपने पूरी करने में गवांने के सिवाय कुछ हासिल नहीं कर पाता, यकीनन यही भटकाव है जिसके लिए छात्र खुद भी जिम्‍मेदार होता है। जोशी का मानना है कि छात्रों को उनके अभिभावकों से छूट मिलनी चाहिए, जिससे वह खुद अपने करियर निर्माण की दिशा तय करें और अभिभावकों को कोई भी विजन अथवा सपने बच्‍चों पर थोपने से पूरी तरह से बचना चाहिए तभी एक बेहतर करियर निर्माण की तरफ छात्र को पहुंचाया जा सकता है।

1. शिक्षा की बोझिलता को कम किया जाना चाहिए, दसंवीं परीक्षा में ग्रेडिंग प्रणाली काफी हद तक स्‍वागत योग्‍य कहा जा सकता है।
2. कालेजों और महाविद्यालयों के शिक्षकों को छात्रों की क्षमतानुसार सलाहकार की भूमिका निभानी चाहिए।
3. अभिभावकों को अपने बच्‍चों के रूचियों और खूबियों के बारें में विचार-विमर्श करना चाहिए।
4. पाठ्येत्‍तर कार्यक्रमों एंव पठन-पाठन की रूचि को बढ़ाना चाहिए चाहे वा उपन्‍यास ही क्‍यो ना हो।
5. छात्रों के सोचने और समझने की क्षमता बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम पढ़ाए जाने चाहिए।
6. वाद-विवाद प्रतियोगिता व जीवन के बारे में छात्र की राय व सोच जानने के लिए कांउसलिंग करायी जानी चाहिए!
7. जनरेशन टू जनरेशन संवाद कायम किया जाना चाहिए।
8. पाठ्यक्रम को सरल बनाया जाए, बातचीत इत्‍यादि में अधिक ध्‍यान दिया जाना चाहिए।
9. सकारात्‍मक भटकाव से घबड़ाने के बजाय सहयोग दिया जाना चाहिए। दण्‍डात्‍मक कार्रवाई ना करके छात्र को समझाया जाना चाहिए कि क्‍या उसके लिए उसकी क्षमतानुसार ठीक अथवा गलत है।
10. चिंतन और विष्‍लेषणपरक चर्चा की जानी चाहिए।
11. पैरेंट्स का रोल बहुत ही अहम है क्‍योंकि बेहतर भविष्‍य का निर्माण के लिए 60 प्रतिशत पढ़ाई और 40 प्रतिशत आबजरवेशन और कांउसलिंग महत्‍वपूर्ण होती है।

सोमवार, 2 मई 2011

Kaash!!!


Dil Agar HARD DISK hota to sabhi Yadoin ko SAVE kar sakte the... Dimag mein Agar PRINTER hota to khayaloin ko PRINT OUT nikal lete... Dhadkan me agar PENDRIVE hoti to Zindagi ka back up le lete... Man mein jo BLUETOOTH hota to batoin ko transfer kar dete... Ankhoin mein jo WEBCAM hote to tasviroin ko recieve kar sakte... Yadoin ka RECYCLE BIN hota to dukhi hone se pahle unhe bhi DELETE kar dete... Kaash...Zindagi bhi COMPUTER hota to ise phir se RESTART kar lete! Uuf yeh Kaash!!!

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

जिंदगी कैसे-कैसे

‘‘जिंदगी काफी उलझ रही है, कागजी दुनिया पर बिलख रही है।
माटी का पुतला बेदम पड़ा है, और कागजी टुकड़ा बेदम खड़ा है।’’
टूटता-बिखरता फिर जुड़ता हूं मैं
जिंदगी की लड़ी में फिर भी गुथता हूं मैं
र आहट पर चहक-बहक जाता हूं मैं
बेजुबां ख्‍वाब कितने अब गटक जाता हूं मैं
समां से-जमीं से, तो कभी खुद से
कतरा-कतरा पिघल कर भी झुंझलाता हूं मैं
ल हंसता था, बनाता था मैं जिनसे दूरियां
आज आने लगी रास वो बेतुकी राशियां
झूठे-सच्‍चे बहकावें पर मुस्‍कुराता हूं मैं
हार कर रार पर बस, फुसफुसाता हूं मैं
फूट-फूट कर रुलाना-छटपटाता छोड़ना
इस आवारगी पर अपनी तकदीर भेंदना
हर से पहर अब सकपकाता हूं मैं
टूटता-बिखरता, फिर जोड़ दिया जाता हूं मैं
टूटता-बिखरता फिर…