बुधवार, 10 दिसंबर 2014

मीडिया में और मीडिया की नौकरी, दोनों जुदा बातें हैं?

पत्रकारिता होती थी या होती रहती है अथवा होती होगी के बीच कड़ी है पत्रकारिता की जाती है?

इसका सच-उसका सच, मेरा सच-तेरा सच, पहला सच-आखिरी सच, और जरुरी सच-गैर जरूरी सच के दोराहे पर खड़े हम हमेशा यूटर्न लेने को मजबूर होते है कि पहला सच किसका दिखाएं इसका या उसका?

सबके अपने गढ़े हुए सच हैं और उन सचों के वर्जनों में वेराइटी भी मौजूद है, बोलो क्या खरीदोगे...बस रिमोट बाजू में रख दो...टीआरपी का सवाल है बाबू?

किस सच से लाभ है, किससे हानि? यह तय करके ही सच उजागर किया जाएगा, क्योंकि सच की ना ही गुंजाइश है और ना ही सच कभी प्रोडक्टिव कारोबार रहा है, क्योंकि जल्दी चुक (खत्म) जाता है? मतलब 'जितनी सच से दूरी-उतनी तरक्की पूरी'

सच से किसको लोभ और लाभ है भला, कहते भी हैं कि अगर झूठ से किसी की जान बचती है तो वो सच के बराबर है, शायद इसीलिए झूठ का कारोबार ही मीडिया और पत्रकारिता का मूल मंत्र बन गया है!

भई, सच से किसका भला हुआ आज तक? हममें से 90 फीसदी अपनी पूरी जिंदगी झूठ के सहारे जीेते है और सच से दूर, जितना दूर हो सके भागते रहते है...और कोई झटके देकर सच का सच और झूठ का झूठ बतलाता भी है तो भी हम नहीं मानते कि दुनिया गोल है, क्योंकि हम लंबी सोच में प्राय: लंबे जो रहते है!

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