कभी-कभी सोचता हूं कि गलत प्रोफेशन में आ गया हूं , पत्रकारिता में भी दांव-पेंच और बनियागिरी करनी होगी तो शायद ही पत्रकारिता को बतौर करियर कभी चुनता, बनियागिरी ही करता?
पत्रकारिता भी नाप-तौल करके ही करनी थी तो बनियागिरी में क्या बुराई है, बनियागिरी में कम से कम आत्मा (जमीर) पर कोई बोझ तो नहीं रहता कि जो कर रहें हैं, वह पेशेगत सही है!
पत्रकारिता करियर में पूरे 9 वर्ष का मेरा कार्यकाल काफी संघर्षपूर्ण रहा, जहां खुद (नैतिकता) के वजूद की रक्षा-सुरक्षा के लिए कईयों को उनकी औकात भी बताई है और नौकरी को लात भी मारी है।
लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि प्रैक्टिकल होना चाहिए? चिपकना नहीं चाहिए, इससे विकास रुक जाता है? सवाल है किसका विकास?
जीविका कमाने के लिए पत्रकारिता ? विकास के लिए पत्रकारिता? दोनों में से हम किसका चुनाव करते हैं? यही पत्रकारिता की दशा और दिशा तय करने वाले हैं?
मैं तो तैयार हूं, लेकिन क्या आने वाली नई जनरेशन इससे तालमेल बिठा पायेगी, जिसे उदाहरण तलाशने के लिए गूगल बाबा की शरण लेनी पड़ेगी?
क्योंकि ऐसी प्रजाति वाले पत्रकार विलुप्त होने के कगार पर हैं और कोई हैरिटेज सिक्युरिटी स्कीम भी नहीं है?
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