सोमवार, 6 जुलाई 2015

व्यापम घोटाले: मुद्दा भ्रष्टाचार है, कारण भ्रष्टाचार है और मीडिया?

शिव ओम गुप्ता
व्यापम घोटाले में मलाई सबने मिल कर छक कर खाई है, कौन दूध का धुला है कौन नहीं? यह तो वक्त ही बतायेगा!

टीवी चैनलों पर हो-हल्ला और कांग्रेसी लफ्फाजी का कोई मोल नहीं नजर आता है, क्योंकि कांग्रेस के दामन सफेद नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार के काले नाले में बजबजा रही है।

एक चोर दूसरे के बारे में चरित्र का प्रमाण पत्र बांटे? यह सुन और देख कर सिर्फ हंसा और ठहाका लगाया जा सकता है, गंभीर नहीं हुआ जा सकता!

हां, गंभीर बात है एक के बाद एक मौतें और उसके कारण? सरकार का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि प्रदेश में हो रही सभी मौतों के लिए किसी एक नतीजे पर पहुंचा जा सके?

अब दिल्ली में रोजाना सैंकड़ों मौतें होती हैं, तो फिर तो केजरीवाल को उठाकर इस्तीफा दे देना चाहिए या फिर मरे हुए लोगों ने जहां से पढ़ाई-लिखाई करके कमाई शुरु की उस संस्था को कटघरे में खड़ा कर दो? कर दो दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुलपति को अंदर क्योंकि दिल्ली में मरने वाले लोगों में से अधिकांश यूनिवर्सिटी में जरूर पढ़े होंगे?

मुद्दा लगातार हो रही मौतें है और मीडिया कांग्रेस की लगाई-बुझाई और उकसाई राजनीतिक सियासत का हिस्सा महज बनती नजर आ रही है ।

भई ठीक है? क्रांतिकारी पत्रकारिता कर लो, लेकिन पहले मरे लोगों की जांच-पड़ताल हो जाने दो, वे क्यों मरे? लेकिन नहीं मीडिया पूर्वाग्रहों , शंकाओं और अनुमानों की पत्रकारिता ही करती नजर आ रही है?

व्यापम घोटाले में अगर सरकारें दोषी होती हैं तो घोटाले में मलाई चाटने वाले कैसे हरिश्चंद्र की औलादें हो गईं ? बिहार में अभी 1400 फर्जी शिक्षकों का इस्तीफा हमें ध्यान में रखना चाहिए, जो फर्जी तरीके से डिग्री हासिल करके शिक्षक बन बैठे, लेकिन जब हाईकोर्ट का डंडा चला तो 1400 लोगों को कैसे एक साथ गलती और ग्लानि याद आ गई और इस्तीफा दे डाला।

क्या ये फर्जी डिग्री धारी बिहार के शिक्षक बिना पैसा खिलाए सरकारी स्कूलों में शिक्षक बन बैठे थे? जबाव होगा नहीं! ठीक वैसे ही मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाला हुआ है ,जिनमें धांधली के जरिये लोगों ने नौकरियों की रेवड़िया खाई और बांटी है?

तो इसमें इतनी हाय-तौबा करने की क्या जरुरत है? यही तो हमारा सिस्टम है। अभी आप किसी भी प्रदेश के शिक्षा बोर्ड में नौकरी का आवेदन कीजिये, नौकरी के लिए आवेदक कितना भी उपयुक्त क्यो न हो, उसका नाम तब तक इंटरव्यू के बाद बनने वाली लिस्ट में नहीं होगा जब तक बंदे ने पूर्व निर्धारित लाख -दस लाख रुपये नहीं जमा करा दिये हैं।

तो कोसना है तो अपने सिस्टम को कोसिये? बहस करनी है तो मौत के कारणों पर बहस कीजिये और सवाल पूछना है तो खुद से पूछिये कि जब कभी आप खुद भ्रष्टाचार से लड़ने के बजाय सरकारी बाबू को रेवड़ी बांटकर किनारे हो गये थे?

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