शनिवार, 22 अगस्त 2015

थैंक्यू भैय्या की जगह, सिर्फ थैक्यू ही बोल देती...तो क्या चला जाता?

रोजाना मैट्रो रेल से ही आवास से ऑफिस की दूरी तय करता हूं, लेकिन मेट्रो स्टेशन पहुंचने के लिए अक्सर ऑटो विद शेयरिंग (इकोनॉमी, यू नो) प्रीफर करता हूं!

पर आज ऑटो विद शेयरिंग में मुझे लेकर दो ही वंदे ही थे, हमें एक और वंदे की तलाश थी पर १० मिनट इंतजार के बाद भी कोई नहीं आया और ऑफिस पहुंचने की जल्दी में हम थोड़ा झेलने को राजी हो गए और जैसे ही ऑटो वाले से कहा, 'चलो भैय्या' तभी जोर की एक लड़की की आवाज गूंजी, भैय्या हौज खास मेट्रो जाएंगे क्या?
ऑटो वाले ने बोला, हां...आ जाइए!

लड़की १८-२१ की रही होगी,  उसने एक सरसरी नजर मुझपर और मेरे सहयात्री पर दौड़ाई और न कहने वाली थी मैं बोल पड़ा (इकोनॉमी, यू नो) आप हौज खास मेट्रो जाएंगी, डोन्ट वरी यू कैन सिट हीअर...

लड़की ने अनमने ढंग से फिर हमें घूरा और मानों हमें और हमारी औकात को तौल लिया हो और मेरे बगल वाली सीट पर धंस गई (जल्दी में थी शायद)

मैंने ऑटो वाले से कहा, चलो भैय्या...और ऑटो वाला गर्र..र्र..र्र..र्र..से आगे बढ़ लिया....हम ऑल मोस्ट पहुंचने ही वाले थे कि आईआईटी गेट के पास ऑटो गर्र गर्र करके बंद हो गई, मेट्रो स्टेशन वहां से वॉकिंग डिस्टेंस पर है,  हम निश्चिंत थे पर वो लड़की परेशान हो गई, मेरी तरफ देखते हुए, अब...?

मैंने उसकी ओर देखा (बेहद खूबसूरत आंखें) और हड़बड़ाते हुए बोला...अब, कुछ नहीं...पैसे देते हैं ऑटो वाले को और निकलते हैं...पास में ही है हौज खास मेट्रो स्टेशन...वाकिंग डिस्टेंस? ऑटो वाले ने भी विश्वास दिलाया, हां...मैडम, ओवरब्रिज पार करते ही स्टेशन है!

लड़की ने पैसे दिए और घबड़ाते -सकुचाते हुए हमारे साथ चल पड़ी,  उसके भारी बैग हमें अपने कंधों पर उठाने पड़े (घर जा रही होगी, शायद)

मेट्रो स्टेशन दो कदम दूरी पर ही था, लेकिन भारी बैग ने हमारी कचूमड़़ निकाल दी थी...खैर जैसे- तैसे मेट्रो में दाखिल हुए।

हौज खास से राजीव चौक स्टेशन के बीच हम दोनों के बीच काफी बातें हुई औऱ हमने एकदूसरे के नाम भी शेयर किए। लेकिन न मैंने नंबर मांगे और न उसने दिए।

लेकिन राजीव चौक स्टेशन पर उतरते वक्त विदाई स्वरूप उसने जो कहे उससे दिल जल गया, उसने जाते हुआ कहा, थैक्यू भैय्या....आई थॉट, व्हाट? व्हाई भैय्या, सी नोज माय नेम...थैक्यू शिव ही बोल देती...

हम दोस्त भी तो हो सकते थे, क्यों कोई लड़की किसी लड़के को दोस्त नहीं बना पाती (तब जब वह 18 वर्ष की हो, युवा हो)..कौन सा हम मिलने वाले थे, महज इंसानियत के नाते या कह लो पैसे बचाने के लिए हमने मदद की कोशिश की।

देखा जाए तो मैंने एक भाई की तरह उसका ख्याल रखा, एक दोस्त की तरह उसके बोझ उठाए और अभिभावक की तरह मार्गदर्शन भी किया, तो रिश्तों में बांध देना जरुरी है, इंसानियत ही मान लेती!

और...बदले में कुछ भी नहीं, कभी नही..कम से कम मैं नहीं चाहता, न कभी चाहुंगा कभी भी किसी से भी...क्योंकि मुझे तो आजकल नैसर्गिक रिश्ते (भाई-बहन, चाचा-ताऊ) भी बोझ लगते है...तो फिर कृत्रिम रिश्ते कितने दिन चलेंगे..

मैं आज तक नहीं समझ पाता हूं कि आखिर क्यों, कोई, किसी को, किसी अनचाहे रिश्तों में बांधना चाहता है...जबकि इंसान वैयक्तिक रिश्तों को निभाने में असमर्थ है।

मैं तो किसी से दूसरी मुलाकात में तब तक बात नहीं करता, जब तक वो खुद पहल न करे, चाहे वो लड़की हो अथवा लड़का?

मतलब, न भेद न भाव?  न भेद करता हूं न भाव देता हूं, सिंपल!

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