शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

मुझे मोदी भक्त कहें परवाह नहीं? पर थोड़े अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाएं?

शिव ओम गुप्ता
प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से पूर्व से नरेंद्र मोदी की छवि एक प्रगतिमूलक और विकासवादी सोच रखने वाले और अपनी कथनी को करनी में तब्दील कर दिखाने वाले नेता के रुप में मशहूर थी। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कितने अग्निपरिक्षाओं से गुजरना पड़ा यह किसी से छिपा नहीं है।

सबका साथ और सबका विकास की सोच को आगे रखकर चलने के बावजूद नरेंद्र मोदी को कांग्रेस समेत उन सभी भयाक्रांत पार्टियों के बेबुनियाद और फिजूल आरोपों-विरोधों का ही सामना नहीं करना पड़ा, बल्कि अपने ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के उत्कंठा प्रेरित प्रतिरोध भी झेलना पड़ा।

बावजूद इसके नरेंद्र मोदी अडिग रहे और देश की जनता ने मोदी के विकासवादी सोच पर भरोसा किया और उन्हें भारी बहुमत देकर प्रधानमंत्री पद पर बैठा दिया, क्योंकि देश की जनता कांग्रेसी डर और विकास की डोर के अंतर को अच्छी तरह समझ गई थी।

बगैर किसी ठोस आधार के गुजरात दंगे में नरेंद्र मोदी के दोषी होने का दुष्प्रचार फैलाकर
कांग्रेस ने मोदी को लगातार राष्ट्रीय राजनीति से दूर रखने की कोशिश की, लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय से सभी आरोपों से बरी होकर और क्लीन चिट मिलने के बाद मोदी खरे सोने की तरह तप कर न केवल बाहर निकले बल्कि कांग्रेस के झूठ, कपट और डराने वाली राजनीति को परास्त कर देश के प्रधानमंत्री मोदी भी बने।

प्रधानमंत्री पद पर बैठने से पूर्व और बैठने के बाद से ही 'सबका साथ और विकास' की सोच को ही आगे रखकर चलने वाले नरेंद्र मोदी ने 18 महीने के अपने कार्यकाल में वह कर दिखाया, जो पहले कोई प्रधानमंत्री नहीं कर पाया, लेकिन इस बीत कभी भी सांप्रदायिक राजनीति का समर्थन नहीं किया और बार-बार खुद मुखर विरोध किया है।

लेकिन लगातार मोदी की विकासवादी छवि चमकने और 'सबका साथ और सबका' विकास नारे की स्वीकार्यता बढ़ने से मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टिया कांग्रेस-सपा समेत करीब सभी विपक्षी पार्टियां हैरान-परेशान हो गई हैं, क्योंकि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले और बाद से वे लगातार हार दर हार झेल रहीं हैं।

आंकड़ें भी कहती हैं लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि हुई है, जिसके बाद बीजेपी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में न केवल दोबारा सत्ता हासिल करने में कामयाब रही, बल्कि राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में भी पार्टी ने कांग्रेसी सरकारों को उठाकर फेंक दिया है।

कारण साफ है ऐसे में कांग्रेस और ऐसी तमाम पार्टियां घबड़ाई हुई हैं और हैरान और परेशान हैं कि ऐसे ही चलता रहा तो बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार बनना लगभग तय है।

पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के दंगे और हाल के दादरी में हुए अति सांप्रदायिक घटनायें इस ओर इशारा कर रही हैं कि कौन क्या कर रहा है और क्यूं कर रहा है, क्योंकि अस्तित्व खो देने के संकट से जूझ रहीं है पार्टियां ही ऐसी आग को हवा दे सकती हैं और अब तक मिले तथ्य भी इसी की ओर इशारा कर रहीं हैं।

क्योंकि सांप्रदायिक दंगों के जरिये समुदाय विशेष को डराकर वोटों के ध्रुवीकरण की जरूरत उन्हें है जो अस्तित्व संकट से जूझ रहीं हैं, उन्हें नहीं जो लगातार लोकप्रियता हासिल कर रही है। सवाल है कि इन दंगों से किसका भला हो सकता है अथवा कौन लाभ लेने की कोशिश कर रहा है?

कारण स्पष्ट है! यह सारी सांप्रदायिक घटनाएं एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, यह जानबूझ करवाये जा रहें हैं, जिसके जरिये मोदी विरोधी मोदी पर कीचड़ उछाल कर एक विशेष समुदाय वर्ग के वोटों का ध्रुवीकरण कर सकें, लेकिन क्या ये सफल होंगे?

बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हालत सबको पता है, लेकिन सुशासन बाबू नीतीश कुमार की पार्टी हालत किसी से छिपी नहीं है और चारा घोटाले में सजायाफ्ता और अभी जमानत पर रिहा चल रहें लालू यादव के महागठबंधन की हकीकत भी किसी से छिपी नहीं है।

देख सकते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव में
महज सत्ता पाने के लिए कैसे सांप, नेवले और छछूंदर एक बिल में बैठने को मजबूर हो गये हैं और सभी आदर्शों को ताख पर रख कर नीतीश बाबू राजद के जंगलराज और कांग्रेस के 2जी, कोलगेट और कॉमनवेल्थ घोटाले से बदनाम पार्टियों से गठजोड़ करके बिहार की जनता से एक बार फिर जनादेश मांगने को मजबूर हैं?

नोएडा के दादरी में हुई सांप्रदायिक घटना के मायने बिहार विधानसभा चुनाव मद्देनजर देखे जाने होंगे, क्योंकि मोदी विरोधी सभी पार्टियों के पास अभी कोई और दूसरा हथियार नहीं हैं, जिससे वे बीजेपी को बिहार में जीत से रोक सकें।

30 से अधिक साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लौटाने की कवायद भी इसी रणनीति का हिस्सा है, जिसके जरिये बिहार की जनता (मुस्लिम समुदाय) को डराया जा रहा है ताकि वे बीजेपी को वोट न करें।

मतलब, ऐसे कोमल हृदय साहित्यकार पर सवाल उठ रहें हैं, जो एक अदने से दादरी की घटना से इतने आहत हो गये हैं कि अपने-अपने पुरस्कार लौटा रहें हैं, लेकिन इनका कोमल हृदय तब जरा भी नहीं आहत हुआ जब पिछले वर्ष  मुजफ्फरनगर दंगे में 60 से अधिक लोग मौत के घाट उतार दिये गये और तब भी नहीं जब वर्ष1992 में मुंबई सांप्रदायिक दंगों में सुलग गया, जब 1984 में सिख मौत के घाट उतारे गये, और तब भी जब वर्ष 1984 में ही हजारों भोपाल गैस त्रासदी में मारे गये और कांग्रेस ने दोषी वॉरेन एंडरसन को देश से भगा दिया था।

कहते हैं राजनीति में सब जायज होता है, लेकिन साहित्यकार भी राजनीतिक पार्टियों के मोहरे की तरह इस्तेमाल होंगे, यह सोचकर ही डर लगता है। लेकिन 'लिया है तो चुकाना ही पड़ेगा' की तर्ज पर पुरस्कार पाने वाले साहित्यकार फर्ज निभाये तो कोई क्या कह सकता है। आखिर कहीं तो वफादारी निभानी ही पड़ती?

कहते हैं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने की आजादी होती है। मतलब, फ्रीडम ऑफ स्पीच। लेकिन मोदी विरोधी (राजनीतिक नेता-बुद्धिजीवी वर्ग) बीजेपी नेताओं के फ्रीडम ऑफ स्पीच को उचित नहीं मानते?

कहने का अर्थ है बीजेपी नेता किसी भी सांप्रदायिक दंगा प्रभावित इलाके का दौरा करते हैं और कुछ कहते हैं तो गलत है और वहीं दूसरे किसी पार्टी का नेता कुछ कहते हैं और दौरा करते है तो वह 'फ्रीडम ऑफ नीड' हो जाता है? जिसकी मुखालफत कोई नहीं करता?

दादरी घटना के बाद सबसे पहले कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पहुंचे, फिर एमआईएम नेता असुद्दीन ओवैसी पहुंचा, फिर क्रांतिकारी नेता केजरीवाल गये, तब तक कुछ नहीं हुआ, लेकिन बीजेपी नेताओं के वहां पहुंचने पर राजनीतिक रोटी सेंक रहें तथाकथित सेकुलर असहज हो गये।

क्रांतिकारी टाइप के कुछ मीडिया भी बीजेपी नेताओं के दादरी दौरे पर असहज होकर रिपोर्टिंग करने लगी और बीजेपी नेताओं को छोड़कर अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के दौरे और बयानों को मीडिया ने मरहूम अखलाक के मरहम साबित करते नहीं थके।

अब इतनी समझ तो देश की जनता को खुद में विकसित करनी ही होगी कि कौन सी पार्टी और कौन सी सोच उनके विकास और प्रगति में सहायक हो सकती है और कौन नहीं?

देश के प्रत्येक वर्ग को अपनी और देश की माली हालत पता है और देश के अलग-अलग समुदायों को कभी जाति, तो कभी वर्ग में बांटकर वोट बैंक समझने वाली लुटेरी कांग्रेस को भी समझती है, जिसने देश को पिछले 68 वर्ष तक लूटा है और जनता उन पार्टियों दशा-दिशा भी उसे बखूबी समझती है जो उनके विकास के नाम पर अपना और अपने परिवार का विकास करती आईं है।
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