शनिवार, 11 अप्रैल 2015

सोते को जगाना आसान है, लेकिन जागे हुये को क्या जगाना?

शिव ओम गुप्ता
वे लोग जो किसी समाज द्वारा बनाई सांस्कृतिक सभ्यता और मान्यताओं में भरोसा रखते हैं और अमल करने में विश्वास रखते हैं, ऐसे अगर भटक भी जायें तो उनकी सुधरने की उम्मीद हो सकती है?

लेकिन वे लोग जो अपनी ही विरासत, संस्कृति और मान्यताओं में यकीन ही रखते या रखना ही नहीं चाहते और सबको धता बता कर नये समाज और उसूल की कल्पना कर रहें हैं, उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है?

बात हो रही है सामाजिक विद्रूपता की। हमारा समाज परिवार में पैदा हुये लड़का-लड़की को भाई-बहन की मान्यता देती हैं और दोनों से जुड़े उन तमाम रिश्तों को भी एक सारगर्भित रिश्तों से जोड़ती है, लेकिन आज कल तमाम ऐसी खबरें मीडिया में सुर्खियों में होती हैं, जो समाजिक ताने-बाने को न केवल तोड़ रहीं हैं, बल्कि नष्ट करके कुछ नया करने पर अमादा हैं!

हां, हम बात कर रहें है, ऐसी खबरों की जो अमर्यादित रिश्तों से जुड़ी होती हैं, जहां पिता-बेटी, भाई-बहन, चाचा-भतीजी और मामा-भांजी के रिश्तों को नष्ट कर रही है?

कौन है जिम्मेदार, यह तो तय करना जरूरी है, वरना समाज का यह चेहरा वसूलों को ही नहीं, रिश्तों को भी खत्म कर देगा!

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