शुक्रवार, 19 मई 2023

रोक सको तो रोक लो, जल्द ऐसी सच्ची घटनाओं से प्रेरित फिल्मों की बाढ़ आने वाली है...

90 के दशक में कश्मीर की घाटी से कश्मीरी पंडितों की पलायन की सच्ची घटना को कैमरे के कैनवॉस पर दिखाने की हिम्मत करने वाले निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म “द कश्मीर फाइल्स” ने ऐसा लगता है बॉलीवुड सिनेमा को अपसाइड डाउन कर दिया है। ऐसा लगता है कि सच को सेक्यूलर की चाश्नी में लपेटकर बेचने वाले मुंबईया फिल्मकारों के दिन अब लद गए हैं, क्योंकि सच को सच कहने वाली फिल्मों और फिल्मकारों पर दर्शक लहालोट होने लगी है।


इसकी ताजा बानगी है सुदीप्तो सेन निर्देशित फिल्म “द केरला स्टोरी”। द केरला स्टोरी एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है, जो केरल में कट्टर मुस्लिमों द्वारा हिंदू और ईसाई लड़कियों को “लव जेहाद” का शिकार बनाने और फिर उन्हें आंतकवादी गतिविधियों में संलिप्त करने की कहानी को उजागर करती है। यह फिल्म सच को दिखाने की वजहों से चर्चा में है और सेक्यूलर फिल्मकारों की आंखों में खटक रही है। ऐसा ही दुस्साहस विवेक रंजन अग्निहोत्री द कश्मीर फाइल्स के जरिए पहले किया था और अब “द केरला स्टोरी” दूसरी कड़ी है।

उल्लेखनीय है पारंपरिक बॉलीवुडिया फिल्में सच को सेक्यूलर की चाश्नी में डूबोकर परोसने की हिमायती रही है, जिसमें आतंकी को साधू की तरह पेश करने की मजबूरी होती है। सच को दबाने की यह परिपाटी वाली फिल्में पिछले 7 दशकों तक दर्शकों को परोसा गया है, लेकिन जैसे फोड़े को छुपाने से फोड़ा नासूर बन जाता है, ठीक वैसा ही हाल बॉलीवुड सेक्यूलर फिल्मों के साथ हो रहा है। हकीकत से दूर फसाना परोसने वाली पारंपरिक फिल्मों की हाल उनकी रिलीज के बाद हुए बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से आसानी से समझा जा सकता है।

अब इसी कड़ी में जल्द ही एक औऱ सच्ची घटना पर आधारित फिल्म “टीपू” जुड़ने जा रही है, जो 40 लाख से हिंदुओं को जबरन धर्मांतरण करने और मौत के घाट उतारने वाले आततायी मैसूर के सुल्तान टीपू सुल्तान पर आधारित है। 8000 हिंदू मंदिरों के विध्वंश के दोषी टीपू सुल्तान को महान बताने वाली वामपंथी और कांग्रेसी प्रेरित जुगलबंदी वाले फिल्मकारों ने यह झूठ परोस कर दर्शकों को खूब गुमराह किया, लेकिन अब जब सच का सामना दर्शकों को टीपू के जरिए होगा, तो ऐसे फिल्मकार कहां जाकर मुंह छिपाएंगे। कहते हैं “सांच को आंच नहीं” जैसे ही द कश्मीर फाइल्स को दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया, ठीक वैसा ही दर्शकों का प्यार द केरला स्टोरी को मिलता दिख रहा है। फिल्में समाज का आईना होती हैं, लेकिन सेक्यूलरिज्म के ठेकेदार फिल्मकारों ने इतिहास की तमाम घटनाओं की असलियत छुपाई और उनमें झूठ की मिलावट करके कई दशकों तक दर्शकों को गुमराह करने का पाप किया है, लेकिन देर से ही सही, उनकी कलई खुलने लगी है।

ऐसी उम्मीद है कि आने वाले भविष्य में सच्ची घटना पर आधारित ऐसी फिल्मों की बाढ़ आने वाली है, जिसको दर्शकों का भरपूर साथ मिलेगा और उन तथाकथित सेक्यूलर को मुंह काला होगा। कहने का मतलब है कि दर्शक अब सेक्यूलर फिल्मकारों द्वारा छुपाए गए सच को जानने में कामयाब होंगे। सभी जानते हैं कि इतिहास में ऐसे बहुत राज हैं, जिन्हें सेक्यूलर की चाश्नी में डूबोकर दर्शकों को मूर्ख बनाया गया। आशा है कि नई पीढ़ी के फिल्मकार उन पर भी अब जरूर काम करेंगे, लेकिन दर्शकों की भूमिका भी गंभीर हो जाती है, उनको थियेटर में जाकर ऐसी फिल्मों को देखकर ऐसी फिल्मों का साथ देना होगा, ताकि उन्हें ऐसे विषयों को पर्दे पर लाने और झूठ के आवरण को उन तक पहुंचाने की हिम्मत मिलती रहे।     

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फिल्म फ्लॉप हो या हिट, सलमान खान जैसे स्टार्स की सेहत पर क्यों नहीं होता है असर?

आज का दौर ऐसा है कि फिल्म निर्माण में बड़े ही नहीं, छोटो-छोटे कलाकार भी हाथ आजमाने लगे हैं। तो क्या फिल्म निर्माण में अंधाधुंध कमाई है। हालांकि कईयों को फिल्म प्रोड्यूसर बनने के साथ जेल तक चक्कर लगाने पड़े हैं और कई तो फिल्म प्रोड्यूसर बनने के बाद कंगाली के दौर में पहुंच गए हैं। अब सवाल है कि मुंबई में बनने वाली बॉलीवुड फिल्मों की कमाई का फार्मूला क्या है और सफल फिल्मों का फिल्म प्रोड्यूसर और फिल्म वितरकों के बीच शेयरिंग का क्या फार्मूला है?

 मौजूदा दौर में खान तिकड़ी शाहरूख, सलमान और आमिर खान का अपना प्रोडक्शन हाउस है और तीनों ने अपने प्रोडक्शन में बनी फिल्मों सफलता का स्वाद भी चखा है। हालांकि इस मामले में सबके चहेते सलमान खान शाहरूख और आमिर की तुलना में थोड़ा दुर्भाग्यशाली रहे हैं। उनकी प्रोडक्शन कंपनी एसकेएफ के बैनर तले अब तक 10 फिल्में बनीं हैं, लेकिन अफसोस कि बजरंगी भाईजान को छोड़ सारी फिल्में घाटे का सौदा रही हैं। एसकेएफ की हालिया रिलीज फिल्म ‘किसी का भाई, किसी की जान’ के हश्र से कौन अनभिज्ञ है।

अब लौटते हैं असल मुद्दे पर...सवाल था कि फिल्मों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन और फिल्म निर्माण में पैसा लगाने वाले प्रोड्यूसर्स की कमाई कैसे वितरित होती है। जैसे किसी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ रुपए कमाती है तो उसका डिस्ट्रीब्यूशन कैसे होता है और कोई फिल्म को हिट करार देने का गणित क्या होता है।

हम अभी मौजूदा दौर के फिल्म निर्माण के फार्मूले पर ही बात करेगें, क्योंकि पूर्व में फिल्म प्रोड्यूसर ही अपनी फिल्मों का मालिक होता था, लेकिन अब फिल्म प्रोड्यूसर्स फिल्म बनाकर डिस्ट्रीब्यूटर्स को बेंचकर किनारे हो लेते हैं और कमाई का असली प्रेशर डिस्ट्रीब्यूटर्स के सिर पर होता है, जो वह लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और थियेटर मालिकों को दे देता है।

मान लीजिए सलमान खान प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बनी एक के निर्माण की लागत 200 करोड़ रुपए है। चूंकि फिल्म सलखान खान प्रोडक्शन की है तो 200 करोड़ रुपए में निर्मित फिल्म 250 से 300 करोड़ रुपए में बिकेगी। अब सलमान खान की प्रोडक्शन हाउस ने बिना अतिरिक्त पैसा खर्च किए 50-100 करोड़ रुपए अपनी में जेब में डाल लिया। अब फिल्म चले न चले सलमान खान को कुछ लेना-देना नहीं, क्योंकि फिल्म अब डिस्ट्रीब्यूटर्स द्वारा खऱीद ली गई है।  

 अब डिस्ट्रीब्यूटर्स फिल्म के प्रमोशन पर 20-40 करोड़ खर्च करके लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स के जरिए थियेटर में रिलीज करवाती है और फिल्म की साप्ताहिक कमाई के आधार पर बॉक्स ऑफिस कलेक्शन निर्धारित किया जाता है। अब अगर 20 करोड़ रुपए प्रमोशन का जोड़ दें तो डिस्ट्रीब्यूटर्स को यह फिल्म 270 करोड़ रुपए में पड़ती है। हालांकि अगर फिल्म के म्युजिक राइट्स और सेटेलाइट की कमाई डिस्ट्रीब्यूटर्स के लागत जीरो बना देती है।

जी हां, फिल्म के सेटेलाइट और म्युजिक राइट्स बेंच कर ही अधिकांश डिस्ट्रीब्यूटर्स की लागत जीरो हो जाती है। आपने भी सुना और पढ़ा होगा कि रिलीज से पहले ही फलां फिल्म ने 400 करोड़ की कमाई कर ली, अब चाहे फिल्म थियेटर में चले न चले डिस्ट्रीब्यूटर्स को कानों में जूं नहीं रेंगता। यह ठीक वैसे ही है, जैसे फिल्म प्रोडक्शन हाउस डिस्ट्रीब्यूटर्स को अपनी फिल्म को एक अच्छी रकम पर बेंचकर कर नफा-नुकसान से मुक्त हो जाते हैं।

 अब बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और थियेटर मालिक की कमाई सुनिश्चित होती है। यानी दर्शक फिल्म देखने पहुंचे तो फिल्म कमाई करेगी और फिल्म कमाई करेगी तभी लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिकों को लाभ होगा। अगर फिल्म थियेटर पर चलती है और प्रमोशन लागत के साथ 270 करोड़ की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर 210 करोड़ रुपए भी कमाने में कामयाब हो जाती है, तो फिल्म को सुपरहिट करार दे दिया जाता है और फिल्म की साप्ताहिक कमाई को टैक्स अदायगी के बाद को लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक के बीच 60-40 फीसदी (पहला सप्ताह) फिर 50-50 फीसदी (दूसरा सप्ताह) और 40-60 फीसदी (तीसरा सप्ताह) के बीच बंटता जाता है।  



उदाहरण सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘किसी का भाई, किसी की जान’ का लेते है। सलमान खान अभिनीत इस फिल्म की लागत 150 करोड़ प्रमोशन समेत रुपए थी, लेकिन फिल्म ने 20वें दिन घुटने टेक दिए हैं, और उसकी कुल कमाई 110 करोड़ तक भी नहीं पहुंच सकी है। इस तरह फिल्म लागत से 40 करोड़ रुपए घाटे में पहुंच गई है। इससे लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक दोनों को लंबा चपत लग चुका है।

सलमान खान और उनके डिस्ट्रीब्यूटर पार्टनर के लिए यह किसी बड़े धक्के से कम नहीं है। भले ही सलमान और उनके पार्टनर जी स्टूडियो को नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन लोकल डिस्ट्रीब्यूटर्स और सिनेमा मालिक अगली बार सलमान की फिल्मों पर आगे भी रूचि दिखा पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी। 

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2024 लोकसभा चुनाव: बीजेपी के लिए सिरदर्द बनेगा मोदी Vs योगी की प्रतियोगिता

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के निहितार्थ यह बात कितनी ही खरी या खोटी हो, लेकिन अभी यह लोग सोचने को तैयार नहीं होंगे कि आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी को योगी टेकओवर करने को तैयार हो गए हैं। इसकी बानगी उत्तर प्रदेश में हुए निकाय चुनाव के रिजल्ट हैं, जिसमें प्रदेश के 17 नगर निगमों में बीजेपी के चुनकर आएं है। यह बहुत बड़ी जीत है। यह जीत गुजरात विधानसभा से भी प्रचंड जीत कही जा सकती है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पूर्व बीजेपी हिमाचल विधानसभा चुनाव और पंजाब विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी है, जिसका श्रेय और सेहरा प्रधानमंत्री मोदी को ही दिया जाएगा। इसमें बीजेपी अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा की भूमिका सिर्फ चुनाव मैनेजमेंट ही आया है, चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ा गया था, तो धूल-धूसरित उनका ही चेहरा होगा।



तो क्या यह माना जा सकता है कि यह चुनाव प्रधानमंत्री को आखिरी चुनाव होगा और अगर यह प्रधानमंत्री मोदी का आखिरी चुनाव है, तो प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे में बीजेपी लोकसभा चुनाव 2024 की वैतरणी पार कर पाएगी। निः संदेह बीजेपी आलाकमान प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही लोकसभा चुनाव 2024 का चुनाव लड़ेगी, लेकिन क्या कर्नाटक, हिमाचल और पंजाब के चुनाव परिणामों के मद्देनज़र यह दांव निशाने पर लगेगा।

उत्तर प्रदेश में दूसरी बार पूर्ण बहुमत से चुनकर आए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की छवि दिनोंदिन बेहतर होती गई है। एक कुशल प्रशासक के रूप में सीएम योगी की प्रसिद्ध प्रादेशिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर फैली है। सवाल है ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में बीजेपी आलाकमान योगी को मोदी के विकल्प के रूप में सोचने के लिए मजबूर कर सकती है।

यह बात कड़वी भले हो, लेकिन सच है कि कई मोर्चे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई कार्यशैली ने बहुसंख्यक हिंदुओं को परेशान किया है। इसका कारण बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रधानमंत्री मोदी से बढ़ती अपेक्षाएं दोषी हो सकती है। इसे भारतीय क्रिकेट के सबसे करिश्माई कप्तान एमएस धोनी के करियर की ढलान और आखिरी ओवर में चौके-छक्के लगाकर टीम को अपेक्षित जीत नहीं दिला पाने की असमर्थता से देखा जा सकता है।

प्रधानमंत्री मोदी संभवतः उसी दौर से गुजर रहे हैं, जहां उनके करिश्में पर ग्रहण सा लगता दिखा है। अब ऐसे में बीजेपी आलाकमान के लिए 2024 लोकसभा चुनाव मंथन का विषय बन गया है। बीजेपी के खिलाफ यह मोमेंटम लोकसभा चुनाव के लिए घातक साबित हो जाए, इससे पहले बीजेपी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव से पूर्व कुछ नया सोचना पड़ेगा। वरना तीनों प्रदेशों में जीती हुई बाजी बीजेपी के हाथ से फिसलते देर नहीं लगेगी।

यह बात दीगर है कि 2024 लोकसभा चुनाव से पूर्व तीनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए सेमीफाइनल मैच की तरह होंगे और 2024 लोकसभा चुनाव में जीत के लिए इन तीनों प्रदेशों में बीजेपी का नॉकआउट ही उसे फाइनल में बड़ी जीत की ओर ले जा सकता है। ऐसे में यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ 2024 लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए तुरूप को इक्का साबित होंगे, इसमें किसी को संदेह नहीं होगा।      

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अब आएगा मजा, जब कर्नाटक के दो बड़े नेता काम करेंगे कम और चिल्लाऐंगे ज्यादा

अब आएगा असली मजा...जब कर्नाटक में पावर गेम के लिए दो कांग्रेसी नेताओं का नाटक हर दिन वहां की जनता फ्री में देख सकेगी। प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का मजा वहां की जनता को कांग्रेस अब अपने दो बड़े नेताओं की नूराकुस्ती से दिलाएगी। जहां "अब चील उड़ेगी कम, चिल्लाएगी ज्यादा।"
मतलब अब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह कर्नाटक में भी प्रदेश सरकारें विकास कार्यों के लिए नहीं, बल्कि दो नेताओं की मुर्गा युद्ध से जनता का मनोरंजन करेगी। यह तमाशा राजस्थान की जनता पिछले 5 साल से देख रही है, जहां जनता से मिले पूर्ण जनादेश को कांग्रेस ने अपने दो नेताओं की निजी पावर गेम की भेंट चढ़कर प्रदेश को मिट्टी में मिला दिया है।

पिछले 5 साल से वहां की जनता सचिन पायलट और अशोक गहलोत की नूराकुश्ती देख रही है और सिर धुन रही है। कर्नाटक की जनता ने राजस्थान से सबक नहीं लिया, और लगता है निकट भविष्य में कर्नाटक में मध्य प्रदेश दोहराया जाने वाला है, जहां वैसा ही सत्ता परिवर्तन करके डीके शिवकुमार कांग्रेस को ठेंगा दिखा सकते हैं।
मजेदार यह है कि आखिर कांग्रेस जनता से मिले अच्छे खासे जनादेश का कबाड़ा क्यों कर देती है। सचिन पायलट, ज्योतिरा सिंधिया और डीके शिवकुमार की मेहनत को दरकिनार कर वो बूढ़ों को क्यों आगे कर देती है, और ऐसे बचकाना फैसले जनादेश की मटियामेट कर वह क्या हासिल करती है। जबाव सबको पता है, लेकिन सवाल है ऐसे वह अपनी तिजोरी कब तक भरेगी।


अव्वल तो कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार चलेगी नहीं, और अगर राजस्थान की तरह चल भी गई तो डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया की आपसी टशन में कर्नाटक की जनता का भला होने वाला नहीं है। अधिक संभावना है कि मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह डीके शिवकुमार कांग्रेस को एक और झटका देंगे।
कांग्रेसी आलाकमान इन सभी राजनीतिक उठापटक और गुजाइशों से परिचित है, लेकिन फिर भी वो जनता के जनादेश का अपमान करके नूराकुश्ती वाली सरकार का गठन करती हैं ताकि वह गांधी परिवार के नमक हलाल नेताओं में शुमार हो सकें। सरकार बच गई तो विपक्ष को दोषी ठहरा कर वो भोली भाली जनता को फिर ठग लेंगे और अपने नकारेपन से फारिग हो चुनाव में चले जाएंगे।

मंगलवार, 2 मई 2017

दहेज को कोसिए, लेकिन खुद को भी कोसना जरूरी है?


शिव ओम गुप्ता
भारतीय परंपरा में पैतृक संपत्ति में पुत्रियों का हक दहेज के रुप में देने का प्रचलन रहा है, क्योंकि शादी के बाद पुत्र ही पैतृक संपत्ति में बंटवारा करते हैं, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि पुत्री को पैतृक संपत्ति में उसका हिस्सा दहेज में दिया जा चुका होता है?

क्योंकि बहन व बेटी की शादी होने के बाद भाई व पिता (कानून कुछ भी हो) वैयक्तिक रुप से घर-जायदाद में बेटी व बहन को हिस्सा देना अथवा उन्हें हिस्सा बनाना कभी मंजूर नहीं करते? वहीं, बहन, बेटी और स्त्री (आधीन) में बंटी लड़की कभी समझ ही नहीं पाती कि "बेटी की घर से डोली और ससुराल से अर्थी उठती है" वाला जुमला क्यों गढ़ा गया है?

बेचारी बनीं ऐसी बेटियां, बहनें और महिलाओं को हमारा समाज त्याग और बलिदान की मूर्ति बनाकर ऐसे बलि बेदी पर चढ़ा देता है कि वो उफ तक नहीं कर पातीं! शायद यही कारण होता है जब ससुराल पहुंचते ही बहू, बेटी और लड़की धन-जायदाद पर अपना स्वाभाविक हक हासिल करने के लिए पहले पति और फिर उसके परिवार के इमोश्नल ड्रामें में नहीं फंसती है?

तो अब किसी भी बहू, बेटी और महिला पर परिवार तोड़ने का आरोप लगाने से पहले अपनी बौद्धिक क्षमता को टटोलिए, फिर अपनी जड़ हो चुकी सामाजिक मान्यताओं को कोसिए और बाद में उसकी तुच्छ सोच की लानत-मलानत कीजिए, क्योंकि मायके में हकों और अधिकारों से महरूम व असुरक्षित बेटी ससुराल में बेटी बनकर इसीलिए नहीं रह पाती है, क्योंकि हमारे वर्तमान सामाजिक ढ़ांचे में महिलाओं को वास्ता देकर इमोश्नल मूर्ख बनाने की बड़ी पुरानी परंपरा है!

क्योंकि अपने प्राकृतिक, वैयक्तिक और कानूनी हकों व अधिकारों के मिलने के भरोसे में अपना सब कुछ न्यौछावर कर चुकी ऐसी बेटियां, बहूएं और महिलाएं हमेशा अपनों से (पिता- भाई, ससुर-पति) धोखा खाती आई हैं, तो आगे से किसी बहू, बेटी व महिला को घर तोड़ने अथवा उसे कोई उपाधि देने से पहले उसके मानसिक और आर्थिक पहलुओं पर जरूर गौर कीजिए, जबाव आपको स्वत: मिल जाएगा!

बुधवार, 3 अगस्त 2016

ये दलित क्या होता है बे?

शिव ओम गुप्ता
ये दलित क्या होता है बे, तुम लोगों ने उन्हें मुख्यधारा में लाना ही नहीं है। गरीब ठीक है, अति गरीब ठीक है, लेकिन दलित क्या होता है? यह साजिश नहीं है तो क्या है? कहते हैं जिसको जिस नाम से पुकारों इंसान उसी छवि से बंधा रह जाता है और खुद को उसमें कैद कर लेता है।
सही तो यह है कि कोई भी किसी भी वर्ण/जाति/संप्रदाय से आता है उसको उसके कर्म और ज्ञान के आधार पर पहचान मिलनी चाहिए। भले ही वह क्षत्रिय, ब्राह्मण अथवा वैश्य के घर में पैदा हुआ हो।
क्योंकि अगर क्षत्रिय के घर वैश्य कर्म वाला, ब्राह्मण के घर क्षत्रिय और वैश्य के घर ब्राह्मण पैदा हो सकता है तो क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य के घर में शूद्र भी पैदा होते हैं और हम उन्हें खुली आंखों से देखते भी हैं। 

जरूरत है कि हम दलितों के बारे में अपनी दूषित राय बदलें?
मैं दलितों द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने की धमकी को सकारात्मक रुप में ले रहा हूं, क्योंकि यह एक नई दलित क्रांति साबित हो सकता है और यह दलित उत्थान और दलित नवचेतना का द्योतक है।
इसी बहाने कम से कम हिंदू धर्म के सर्वेसर्वा दलितों के बारे में सोचना शुरू करेंगे और उनके बारे में अपनी मानसिकता को बदलने को मजबूर होंगे।
दलितों के प्रति लोगों की मानसिकता अभी भी दूषित है और अब जब दलित हिंदू धर्म छोड़ने की धमकी दे रहें हैं तो संभव है अन्य हिंदू धर्मावलंबी दलितों के साथ अपने व्यवहार और मानसिकता में बदलाव लाने को मजबूर हों।
वैसे भी कहते हैं कि हक मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है और मैं दलितों की धमकी को इसी रुप में देखता हूं। अब यह हम पर है कि हम उन्हें उनका सम्मान कितनी जल्दी लौटाना पसंद करेंगे या अक्ल सब कुछ गंवाने के बाद आयेगी।
क्योंकि दलितों को हमारे एहसान की नहीं, हमारे सम्मान की जरुरत है और हमें उन्हें अब लौटाना ही होगा। 

मोदी सरकार पर देश ही एनआईआई नागरिकों में बढा भरोसा

हिंदुस्तान में जब से मोदी सरकार आई है विदेशों में रह रहे भारतीयों में अपनी मुश्किलों और समस्याओं को लेकर सजगता बढ़ी है। पहले या तो उनकी सुनवाई नहीं होती थी या एनआरआई भारतीयों को पूर्ववर्ती सरकारों पर इतना भरोसा नहीं था कि मदद भी होगी?
क्योंकि ऐसी खबरें मीडिया के किसी भी माध्यम में न के बराबर सुर्खियों में रही हैं? आज की खबर है कि सउदी अरब के जेद्दा शहर में 10,000 से अधिक बेरोजगार भारतीय भूखे मरने को अभिसप्त हैं। पता चला है कि उन्होंने मोदीे सरकार से खुद के बचाने की गुहार की है।
हमेशा की तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने मामले को संज्ञान में लिया है और जेद्दा में बेरोजगार और भूखे भारतीयों की मदद के लिए आगे आईं हैं और सउदी अरब में मौजूद भारतीय दूतावास से उन्हें मुफ्त आनाज वितरित करवाने का आदेश दिया है।
मुझे याद है जब से मोदी सरकारों वजूद में आई है तब से सैंकड़ों ऐसे मामले सामने आए हैं जब सुषमा स्वराज एंड टीम ने विदेशों में फंसे भारतीयों की मदद और उनके बचाव के लिए आगे आई है।
नि: संदेह सरकार की सक्रियता से विदेशों में बसे भारतीयों में एक नया विश्वास और भरोसा बहाल हुआ है वरना परेशानी में पहले भी भारतीय रहे होंगे, लेकिन सुर्खियां अखबारों की अब ही देखने को मिल रही हैं।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

चुप मत बैठिए, आईएस को इस्लाम का ठेकेदार से बनने से रोकिए?

शिव ओम गुप्ता
विश्व समाज में बुराई के प्रतीक बन चुके आईएस आतंकियों के लगातार आतंकी हरकतों ने एक बात साफ कर दिया है कि इनका समूल विनाश निकट है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन क्रूर चरमपंथियों ने इस्लाम के अनुयायिओं के खिलाफ एक विचित्र सा बीज रोप दिया है, जिससे हरेक को संदेह और अविश्वास से देखा जाने लगा है?
कहने को फ्रांस के नीस में हुआ आतंकी हमला आईएस आतंकियों का एक जबावी हमला है, जिसमें भीड़ में खड़े लोगों को बारूद से भरा एक ट्रक रौंदता हुआ चला गया, इसे आतंक का एक और बर्बर स्वरुप कहा जा सकता है!
फ्रांस में हुए ऐसे बर्बर हत्याकांड में तकरीबन 80 निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं, जिसके लिए फ्रांस सरकार का इस्लामी अनुयायिओं के विरुद्ध लिए गए कड़े फैसलों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, लेकिन सवाल उठता है, ऐसी बर्बरता से क्या इस्लामिक अनुयायिओं के खिलाफ वैश्विक समाज के मन-मस्तिष्क में संदेह और अविश्वास के रोपे गए बीज अंकुरित नहीं हो रहे होंगे?
अभी भी वक्त है कि इस्लाम धर्म के अनु़यायी और इस्लामी अनुयायिओं के नेता घरों में दुबकने के बजाय बाहर निकलें और आईएस जैसे दुर्दांत आतंकियों की मुखालफत और मुजम्मत करें और उनको सीधे शब्दों में बताएं कि विश्व का कोई भी सच्चा मुसलमान ऐसे इस्लाम रक्षकों के साथ नहीं हो सकता है, जिन्होने उन्हें उनकी ही जमीन, उन्हें उनके अपने घर और उन्हें अपने हीे देश में संदेह और अविश्वास का प्रतीक बना दिया है!
जहां उन्हें उनका ही पड़ोसी, जहां उनकी ही पुलिस और जहां उनकी ही सरकार उन्हें शक की निगाह से देखने लगी है और एहतियात बरतने को मजबूर है, ठीक फ्रांस की तरह और फ्रांस में हुए इस बर्बर हत्याकांड के बाद इस शक, संदेह और अविश्वास की जड़ें और अधिक गहरी होंगी ही होंगी?
तो चुपचाप मत बैठिए, घरों बाहर निकलों और इससे पहले कि आईएस जैसे चरमपंथी आतंकी इस्लाम को टेकओवर कर लें, उन्हें बताएं कि इस्लाम की रक्षा के लिए विश्व के किसी भी मुसलमान को आईएस की जरूरत नहीं है, ये आईएस खुद ब खुद जहन्नुम पहुंच जाएगा!
क्योंकि उनको गलतफहमी हो चली है कि विश्व का अधिकांश मुसलमान उनको कहीं न कहीं से सपोर्ट करता है और उनकी गलतफहमी की वजह आप अब समझ चुके हैं, तो टीवी बंद कीजिए, घरों से बाहर निकलिए और आईएस को उनकी जगह बताइए वरना बहुत देर हो जाएगी?

शुक्रवार, 10 जून 2016

रिमोट हाथ में हो तो कौन उठकर चैनल बदलता है यार ?

जिस दिन से लोगों ने साल, महीना और दिन में छोड़कर अपनी जिंदगी घंटे, मिनट और सेकेंड में जीना शुरु कर दिया उस दिन से सारे खुद ब खुद सुखी हो जायेंगे।

क्योंकि इंसान की सभी मुश्किलों का जड़ डर है और यह डर ही इंसान को आज और अभी में नहीं, बल्कि अगले साल, अगले महीने और अगले दिन में ढ़केलता रहता है और अफसोस है कि वह अगला साल, महीना और दिन उसकी जिंदगी में कभी नहीं आता है।

तो यारों छोड़ों अगले साल, अगले महीने और अगले दिनों का चक्कर और घंटे, मिनट और सेकेंड में हासिल हो रहीं खुशियों में जिंदगी का आनंद लीजिए, क्योंकि कल कभी नहीं आता है?

और जो लोग कल लाने का दंभ भरते है वे खुशियां इकट्ठा करने के लिए भ्रष्टाचार जैसे अनगिनत बीमारियों का शिकार होकर अपनी ही नहीं, बल्कि अपनी 7 पुश्तों का साल, महीना और दिन खराब कर जाते हैं, क्योंकि रिमोट हाथ में होने पर कोई चैनल उठकर नहीं बदलता है बे?
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गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

बीजेपी के चुप होते ही खत्म हो जायेगा कन्हैया?

बीजेपी ने जितनी बड़ी गलती दिल्ली में केजरीवाल को अंडरइस्टीमेट करने में की थी, वह उससे भी बड़ी गलती छछुंदर कन्हैया के मामले में कर रही है।

छोड़ो साला कन्हैया-फन्हैया को, मरन दो ससुरे को, जो जी में आये करे, जो जी में आये बोले, जब जनता में  माइलेज नहीं मिलेगा तो लौट जायेगा ससुरा अपनी मांद में, नाहक ससुरे को महत्व पर महत्व दिये जा रहे हो?

अरे कौन ऐसा देशवासी होगा जो भारत मां के खिलाफ बोलने वाले को पानी तक पूछेगा, ये तुन लोगों की बेवकूफी ने उसको हीरो बना दिया, कुछ करना ही नहीं था, जेएनयू प्रशासन को कुछ ठीक लगता, तो करता, नहीं करता तो वो भी ठीक होता, कम से कम साला सिम्पैथी तो नहीं बटोर पाता, जैसे दिल्ली में केजरीवाल बटोर ले गया?

ससुरा बड़का नेता बन गया है, एरोप्लेन में घूम रहा है और बत्तीसी निकाल के दिखा रहा है। लिख के ले लो, जिस दिन बीजेपी ने ध्यान देना बंद किया, ससुरे की सारी टे-टे टांय-टांय फिस्स हो जायेगा।

अमित शाह की बहुत बड़ी राजनीतिक भूल है, जो चीजों को अंडरइस्टीमेट करके चलते हैं। दिल्ली को अंडरइस्टीमेट किया तो केजरीवाल निकल गया, बिहार को अंडरइस्टीमेट किया तो लालू निकल आया और कन्हैया को अंडरइस्टीमेट करके कुछ नहीं तो सांसद बन ही जायेगा ससुरा?

मरन दो साले को, भौंकने दो जो भौंकता है, कोई कुछ नहीं डालेगा तो कू-कू करके निकल जायेगा?
#KahaiyaKumar #JNU #Left #CPIM #Modi #AmitShah

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

केजरीवाल एंड पार्टी: यानी चील का उड़ना कम, चिल्लाना ज्यादा?



शिव ओम गुप्ता
ऐसा लगता है केजरीवाल ने ऑड_ईवन फॉर्मूले में ही सत्ता में दोबारा वापसी की कुंजी खोज ली है, क्योंकि केजरीवाल एंड पार्टी सीना चौड़ा करके और छाती पीटकर चुनाव में किये उन 70 वादों को ऐसे गायब कर दिया है, जैसे गधे के सिर से सींघ गायब हुआ हो?
आम आदमी पार्टी को जरूरत से ज्यादा प्यार और वोट देकर लुटी-पुटी दिल्ली की मूर्ख जनता को अब समझ आ रहा होगा कि एक मजबूत विपक्ष का क्या मतलब होता है?
स्थिति यह है कि केजरीवाल ने पिछले एक वर्ष के कार्यकाल चिल्लाया ज्यादा है किया कुछ नहीं। यानी चील का उड़ना कम, चिल्लाना ज्यादा?
बंदे की हिम्मत देखो! एक ऑड-ईवन फॉर्मूले के छलावे से दिल्ली चुनाव से पूर्व किये उन 70 लोक लुभावन वादों को कूड़े में डाल रखा है, जिसकी असफलता की बात केजरीवाल खुद स्वीकार चुका है।

गनीमत बस इतनी है कि केजरीवाल केंद्र प्रशासित दिल्ली का मुख्यमंत्री है वरना तो दिल्ली का तो फिर भगवान ही मालिक होता?
झूठ और छल-कपट की राजनीति में माहिर केजरीवाल एंड पार्टी के दिमागी दिवालियेपन का आलम यह है कि ये अपने नकारेपन का रेडियो, टीवी और अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन के जरिये खुलासा भी कर रही हैं, लेकिन फिर भी अफीम चाटकर सो रही दिल्ली जनता और कुछ अति उत्साही टाइप के लोगों को केजरीवाल में एक महान महापुरुष और क्रांतिकारी ही नजर आ रहा है।
‪#‎OddEven‬ ‪#‎70Promises‬ ‪#‎AAP‬ ‪#‎Kejriwal‬

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

खुदकुशीः जज्बातों में जहन्नुम का सफ़र क्यों?

              शिव ओम गुप्ता
सेलिब्रिटीज खुदकुशी का मामला अब कोई नई बात नहीं है। आज प्रत्युषा बनर्जी सुर्खियों में हैं, तो कल बॉलीवुड अभिनेत्री जिया खान की खुदकुशी का मामला सुर्खियों में छाया हुआ था और वह दिन दूर नहीं जब कल कोई और इस फेहरिस्त में दिखाई होगा।

इससे पहले भी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में एक्टिंग और मॉडलिंग की दुनिया से जुड़ी सिल्क स्मिता, कुलजीत रंधावा, विवेका बाबाजी, वर्षा भोंसले, नफीसा जोसेफ जैसी हस्तियों ने कारण-अकारण खुदकुशी करके अपनी इहलीला समाप्त की है। इनमें सबसे चर्चित मामला था उभरती हुई अभिनेत्री दिव्या भारती का है, जिनकी बिल्डिंग से गिर कर मौत हो गईं थीं।

सवाल यह है कि सेलीब्रिटीज की खुदकुशी के पीछे का वास्तविक कारण आखिर क्या है। क्योंकि यह मसला महाराष्ट्र में किसानों की खुदकुशी के मामले से बिल्कुल इतर है, जहां भुखमरी, कर्ज और बेचारगी खुदकुशी का प्रमुख कारण है, लेकिन सेलिब्रिटीज खुदकुशी का कारण भौतिक कम, मनोनैज्ञानिक अधिक प्रतीत होता हैं।

कहते हैं कि जब एक महिला घर से बाहर पांव रखती है, तो वह जज्बातों और सामाजिक बंदिशों को लांघ कर खुद को साबित करने की बीड़ा उठाती है और तब ऐसी महिलाएं मर्दों की तरह न केवल जीने लगती है, बल्कि मर्दों की तरह सोचने भी लगती है।

सेलिब्रिटीज को छोड़िये, अपने घर और दुकान के आस-पास ही नज़र दौड़ाईये, जहां सैकड़ों महिलाएं रोजाना रोजी-रोटी और परिवार चलाने के लिए मर्दों की बनाई दुनिया में मजबूती से खड़ी हैं और आगे बढ़कर बुलंदियां भी छू रहीं है। कहने का मतलब है कि जब भी महिलायें घर की दहलीज से बाहर निकली है उन्होंने जज्बातों से तौबा करके ही कमाल किया है। ऐसा लगता है खुदकुशी अब सेलिब्रिटीज के चोचले बन गये हैं, जो सीधे-सीधे  महिलाओं के सशक्तिकरण आंदोलन पर कुठाराघात कर रहें हैं।

कहते हैं कि सही और गलत, बुरा और अच्छा से बाहर निकलकर ही जिंदगी का वजूद हासिल होता है और जो इसमें फंसा रहता है, वह जिंदगी में कभी उबरता नहीं, डूबता ही जाता है। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े सेलिब्रिटीज के मामलों में यह सफेद सच साबित हो रहा है, क्योंकि जिंदगी में सफलता और असफलता में धैर्य के साथ खड़ा रहने वाला ही आगे बढ़ पाता है, जिसके कई उदाहरण बॉलीवुड में ही मौजूद हैं।

इनमें सर्वप्रथम नाम बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन का लिया जा सकता है, जिन्होंने जिंदगी में आई विपरीत परिस्थितियों में कभी हार नहीं मानी और धैर्य के साथ मुसीबतों का सामना किया और आज उनके वर्तमान से कोई अपरिचित नहीं है।

महत्वपूर्ण सवाल है कि आखिर ये सेलीब्रिटीज समाज में महिलाओं की कैसी छवि पेश रहीं हैं, जहां महिलाएं सिर्फ और सिर्फ कमजोर, आहत और इमोशनल फूल के अलावा कुछ नहीं दिख रहीं हैं।

बात दिवंगत प्रत्युषा बनर्जी की करें तो बालिका वधू नामक जिस सीरियल से उन्होंने सुर्खियां और स्टारडम हासिल की थी, उसके मूल चरित्र में महिला सशक्तिकरण ही था। सीरियल में प्रत्युषा महिला अधिकारों और जरुरतों के लिए हमेशा लड़ती और जूझती हुई दिखाई देती हैं और उन्होंने महिलाओं के बीच अपनी छवि एक हीरो की बना ली थी, लेकिन निजी जीवन में प्रत्युषा ने खुदकुशी जैसे कदम उठाकर एक बार फिर महिलाओं को कमजोर ठहराने की कोशिश की है।

अंततः यह सवाल अब लाजिमी है कि क्या एक महिला दिल और दिमाग की लड़ाई में हमेशा कमजोर साबित होती है। क्योंकि मौजूदा उदाहरण बताते हैं कि प्यार और तकरार की दशा में कमजोर और मजबूत दोनों तबके की महिलाएं एक जैसा ही व्यवहार करती है।

एक सेलीब्रिटीज महिला, जो पैसों, अधिकारों और फैसलों को लेकर पूरी तरह इंडीपेनडेंट हैं, बावजूद वह प्यार और बेवफाई में टूट कर खुदकुशी कर लेती है जबकि पैसा, प्यार और अधिकारों के लिए पूरी तरह से मर्दों पर निर्भर करोड़ों महिलाएं जिंदगी में आगे बढ़ जाती है और उनकी खुदकुशी का औसत भी काफी निम्न है।

निः संदेह खुदकुशी जैसे ऐसे उदाहरणों से सेलिब्रिटी महिलाओं ने महिला सशक्तिकरण के आंदोलन को कमजोर किया है, क्योंकि ऐसी तथाकथित इंडिपेनडेंट महिलाओं ने अपनी व्यावसायिक और निजी जिंदगी के भिन्न हरकतों से वूमन इंपॉवरमेंट की परिभाषा को पूरी तरह से दकियानूसी करार दे दिया हैं, जो पुरुषवादी समाज को वास्तविकता और रुपहले पर्दे की हकीकत और उसके बीच के अंतर बता देती है। यानी कह सकते हैं कि प्रत्युषा बनर्जी की खुदकुशी ने वूमन इंपॉवरमेंट की ताबूत में  एक और कील ठोक दी हैं। 

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

देशद्रोह के साथ या मोदीद्रोह से पीड़ित हैं समर्थकों की जमात ?


क्या ये सच है कि कुछ कुलीन से दिखने वाले लोगो को, गुजराती गुदड़ी पर बैठने वाला देश के प्रधानमंत्री की नरम और गुदगुदी गद्दी पर बैठे देखना फूटी आँख नहीं सुहा रहा है ? ये सवाल इसलिए है क्योकि दो दिन पहले मोदी ने खुद कहा कि 'उनकी सरकार के खिलाफ साज़िश हो रही है' एक ऑडियो टेप भी सामने आ गया साज़िश की बू और तेज़ महसूस होने लगी। कुलीन वर्ग के ये मुठ्ठी भर लोग जो दशको से देश के पॉवर कॉरिडोर को बपौती समझ बैठे थे, बहुत ताकतवर हैं, सत्ता की मलाई को अपने भोग विलास के लिए मनमाफिक इस्तेमाल कर रहे थे, वो अब सरकारी रवायतें- रियायतें बंद होने से खिसियाए फिर रहे हैं। गृहमंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि ऐसे कुलीन वर्ग ,अकादमियों आयोगों, गैर सरकारी संगठनो के ज़रिये खूब मलाई लूट रहे थे । 2014 में गरीब चाय बेचने वाले ने जब सत्ता संभाली तो पाया कि ऐसे छद्म कुलीनों का मायाजाल तंत्र को खोखला कर रहा है , गरीबो और वंचितो के नाम पर सरकार से,कॉर्पोरेट से और विदेशो से खूब पैसा लूटा जा रहा है। मोदी ने इस पर लगाम लगाने की भूल कर दी । अक्टूबर 2014 में ऐसे 4200 NGO को नोटिस दे दिया कि पिछले तीन साल का आयकर रिटर्न दाखिल करे, सिर्फ 250 NGO ने आयकर रिटर्न दाखिल किया। मार्च 2105 में फिर से इनको नोटिस दिया गया कि पैसे का हिसाब किताब दे, लेकिन सत्ता के केंद्र पर रसूख रखने वाले इन छद्म कुलीनों ने हिसाब नहीं दिया तो नहीं दिया । सभी का FCRA लायसेंस सरकार ने रद्द कर दिया । इस FCRA लायसेंस के ज़रिये ये NGO विदेशो से अरबो रूपये की दौलत बटोरते थे। इतना अकूत धन कहा खर्च होता था इसका अंदाज़ा इस बात से लगेगा कि , तीस्ता शितलवाड़ के NGO ने पैसे का जो हिसाब किताब दिया है गरीबो, बच्चों और वंचितो के नाम पर 5000 रूपये के ब्यूटी पार्लर के बिल, 1200 से 2500 रूपये तक की महँगी विदेशी चॉकलेट के बिल, कीमती कपड़ो के महँगे शोरूम की खरीदारी के बिल शामिल है। क्या यहीं सत्ता के करीबी कुलीनों का असली गरीबो और वंचितो के लिए दुःख? क्या ऐसे ही गरीब और गरीबी को दूर करने का अल्हड़ खेल दशको से हो रहा था? अब बर्र के छत्ते में मोदी सरकार ने हाथ डाल दिया है तो डंक भी खाने होंगे लेकिन डंक इतने ज़हरीले होंगे ये नहीं पता होगा ? पहला डंक झनझनाता हुआ चुभा,पता है कब ? जब दादरी कांड हुआ । न लेना एक न देना दो , मोदी से क्या लेना देना था इसका ? लेकिन ऐसा तमाशा छद्म कुलीन साहित्यकारों ने खड़ा किया कि लगा मुल्क की हर गली, चौपाल , चौराहे पर अख़लाक़ को मोदी मार डालेगा ! पुरुस्कार लौटा दिए, हंगामा खड़ा किया, क्यों ? सरकारी विदेशी दौरे, सरकारी रेबड़िया सब बंद जो हो गया ! भाई किसी पेट पर लात मारोगे तो वो तो तमाशा नहीं देखेगा न ! कुछ तो करेगा ! कर दिया , और ऐसा किया कि दुनिया भर में देश की बदनामी हो गयी, लन्दन में मोदी से सवाल पूछा गया " भारत में असहिष्णुता क्यों बढ़ रही है?" बदनाम तो हुआ देश न ! लेकिन इन निकम्मो को क्या ? अब तक नहीं सोचा तो अब देश की परवाह क्यों करे? देश हिन्दू मुस्लिम में बाँट दिया अलग ! इतिहास इन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।कई सवाल पूछेगा ? जवाब देते हलक सूख जायेगा इनका? मालदा पर मौत क्यों न आई तुम्हे ? बंगलौर पर बगले क्यों झांकने लगे ? केरल में सुजीत की मौत पर साँप क्यों सूंघ गया ? और ....देशद्रोह के नारे पर फिर क्यों नाच उठे ?
निखट्टूओ अब भी जाग जाओ, 30 साल बाद जनता ने गरीब के बेटे को दिल्ली की गद्दी पर पूरा बहुमत देकर बैठाया है, जनता के बहुमत का सम्मान करो, उसको काम कर लेने दो! दूसरो के लिए गड्डा खोदने वालो तुम्हारे नसीब खाई आएगी, ऊपर वाला यही न्याय करेगा ! अब देखो JNU को, 10 साल से ये नक्सली हमले पर जश्न मना रहे हैं, किसी गरीब के घर का बेटा शहीद होता है और ये उसकी मौत का जश्न मनाते हैं, इनके लिए असली शहीद अफजल गुरु की बरसी का उत्सव करते हैं,भारत के टुकड़े टुकड़े के नारे और बर्बादी की जंग का एलान भी करते हैं , फिर भी देशभक्त होने का दम्भ भरते हैं ये कैसे ? किसी ने प्रधानमंत्री को ख़त लिखा और सलाह दी कि देशद्रोह का कानून ब्रिटिश काल का है उसको रद्द कर दो ब्रिटेन ने भी 2010 में उस पुराने कानून को ख़त्म कर दिया है लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया की 2015 में ब्रिटेन ने देशद्रोह और आतंकवाद पर सबसे कड़ा कानून भी बनाया है । विरोध के लिए विरोध मत करो, तथ्यों के साथ मैदान में आओ । माना "मोदीद्रोह" में नाम मिलता है, चिठ्ठी लिखने का मौका मिलता है, लेकिन केरल में सुजीत की हत्या पर कलम क्यों सूख ? मालदा पर मन क्यों नहीं तड़पा उठा ? ये विरोधभास क्यों ? गुणवान हो, सामर्थ्यवान हो, कुछ नेक काम ही कर लो !
कुछ तो जैसे कसम खाकर बैठे हैं "मोदीद्रोही" का मेडल लेकर ही ज़न्नत नसीब होगा उनको! काला चश्मे से उजला कैसे दिखेगा ? नीतियों की निंदा हो कोई हर्ज़ नहीं, फैसलों का समीक्षा हो कोई शिकवा नहीं । लेकिन डंडा लेकर पीछे पड़ जाना, हर बार करोंदे को करेला कहना, सियार को शेर बताना, भागो भागो भूत आया चिल्लाना ! साँप निकल जाने पर लकीर पीटना ! अरे ऐसा भी क्या "मोदीद्रोह" ? अभी हाल में किसी ने आर्टिकल लिख दिया "मैं एंटी नेशनल हूँ " किस लिए ? JNU के देशद्रोही नारे के साथ खड़े हो ? तो सीधे लिख देते "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" ! एक लाइन में सारा काम हो जाता, आठ कॉलम लिखने का वक्त बचता, देश की कुछ स्याही भी बच जाती, किसी गरीब बच्चे के काम आती, जो ख़राब लेखनी में "हिंदुस्तान ज़िंदाबाद" तो लिख देता ! स्याही भी अपने भाग्य पर इठलाती ।
ये एक नमूना हैं "मोदीद्रोह" का 2002 से पीछे पड़े हैं छोड़ ही नहीं रहे हैं .... दूसरे भी कई है एक ने सब कुछ काला कर दिया, उन्हें भी भूत सवार है "मोदीद्रोह" का, एक बार गुजरात में देखा था, तब ढूंढ कर सूखा तालाब निकाला और बताने लगे कि गुजरात सूख रहा है बर्बाद हो रहा है, तन, बदन और शब्द बाण इनकी चिंता की दुहाई दे रहे थे । लेकिन "भारत की बर्बादी का नारा" इनको बहूत सुहाता है, "भारत के टुकड़े" इन्हें बहूत भाते हैं, मौला जाने किस टुकड़े में रहने का ख्वाब पाले बैठे हैं ये जनाब ? ना .... ना बाबू कुछ नहीं टूटेगा अब ख्वाब ही देखियेगा " मुंगेरीलाल की तरह " । शैली अच्छी है , ऊर्जावान भी है, ऊर्जा के स्त्रोत बनिये अंधेरा क्यों फैला रहे हैं ? जैसे बिहार में तरक़्क़ी ही तरक्की दिखा रहे थे। करोडो अरबो के घोटाले हुए, कुछ घर के भी नाम आये लेकिन तब भी रंगीन टीवी ही दिखाते रहे , ये अचानक क्या हुआ ? पेट में इतनी मरोड़ क्यों उठी ? इतने असहिष्णु क्यों हो गए दर्शक के साथ, यहाँ से इस्तीफा देने और रेडियो जॉकी बनने , इस्तीफा मोदी के सर मढ़ देने का विक्लप तो खुला ही रहता... दर्शक के साथ असहिष्णुता भी नहीं होती और रेडियो सेवा भी हो जाती और "मोदीद्रोह" भी परवान चढ़ जाता। ऐसा लगता है कि "मोदीद्रोही" दिखने के लिए ये जमात देशद्रोही के साथ भी खड़ी हो रही है, बस मोदी का विरोध करना है चाहे देशद्रोही के समर्थक क्यों न बनना पड़े.... इतना भी अहंकार ठीक नहीं है कबीर दास जी ने कहा है " ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ||
(मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो )
राजनेता हो तो ठीक है वो राजनीती ही करेगा सत्ता पर गरीब का बेटा बैठा है तो पेट में लोटन दर्द होगा, मुझसे ज़्यादा गरीब कोई कैसे हो गया ? मुझसे ज़्यादा पिछडो का हमदर्द कैसे बने कोई , दलित के मसीहा तो हम ही हैं, दूसरा कोई कैसे हमसे आगे निकल जाएगा ? ये गरीब के बेटे से गरीब को छीनने का, पिछड़े के बेटे से पिछडो को छीनने का , दलित के बेटे से दलितो को छीनने का षड़यंत्र है, रोहित वेमुला ने लिखा मेरी मौत का कोई ज़िम्मेदार नहीं लेकिन मोदी को दोषी ठहरा दिया, अख़लाक़ की हत्या मोदी के माथे मढ़ दी, JNU देशद्रोह, मोदी को दोषी ठहरा देगे।अब विद्वान कह रहे हैं कि JNU के छात्रो को देशद्रोही मत कहो अभी आरोप सिद्ध नहीं हुये हैं , बिलकुल सहमत हूँ , लेकिन 2002 के दंगे पर मौत का सौदागर कह दिया , हत्यारा कह दिया, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कह दिया , तब भी आरोप कहाँ सिद्ध हुये थे दोहरा पैमाना क्यों? क्यों कि वो गरीब का बेटा है पिछड़े का बेटा है ! या कुलीन वर्ग के गोरखधंधे बंद कर दिए हैं और उस कुलीन वर्ग की कठपुटली हम बने हुए हैं ?
सावधान .सावधान सावधान ..ये राजतन्त्र के कुलीनों का महा षड़यंत्र है।
*साभार-विकास भदौरिया-ABP News Vikas Bhadauria

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

जेएनयू में देशद्रोही नारे लग रहें है दोगले नेता राजनीति कर रहें हैं!

शिव ओम गुप्ता
जेएनयू में देश विरोधी नारे लग रहें है, पाकिस्तान जिंदाबाद कहा जा रहा है, कश्मीर, बंगाल और केरल को तोड़ने की बात की जा रही है, जिसके लाइव साक्ष्य मौजूद हैं और ऐसे देशद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई को सीताराम येचुरी जैसे दोगले नेता आपातकाल से बदतर स्थिति बता रहें हैं। 

नि:संदेह यह देश के लिए आपातकाल जैसी स्थिति है, जहां देश के दिल राजधानी दिल्ली में स्थित जेएनयू परिसर में खड़े होकर लोग देश विरोधी नारे लगा रहें हैं और ऐसे लोगों की भर्त्सना करने के बजाय ये राजनीतिज्ञ बेहूदा राजनीति कर रहें।

धिक्कार है ऐसी राजनीति और ऐसे राजनेताओं पर, जो महज वोट बैंक की राजनीति के लिए देश विरोधी हरकतों के साथ खड़े होकर सियासी उल्टिया कर रहें हैं।

कम से कम देर ही सही, केजरीवाल अव्वल निकला और पहले बयान के उलट जाकर देश विरोधी नारा लगाने वाले छात्र और छात्राओं के कार्रवाई को उचित बताने लगा!

#ShutDownJNU #SitaramYuchury #Traiters #Leftist #JNU #Congress #Pappu

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

तो लड़कियों इस वेलेंटाइन इश्क का रिश्क लीजिए जरा?

शिव ओम गुप्ता

मुझे नहीं समझ आता है कि एक लड़की अपने प्रेम का इजहार करने में पहल क्यों नहीं करती हैं अगर वो सचमुच प्रेम, मोहब्बत और इश्क में विश्वास करती हैं?
क्या लड़कियां डरती हैं कि लड़का मुकर गया तो, लड़के ने इनकार कर दिया तो और लड़के ने दुत्कार दिया तो क्या होगा?
कुछ भी हो? इश्क के इजहार और उसके रिश्क की स्यापा लड़के ही हिस्से क्यों? भई इश्क के इजहार में लड़कियों से लड़कों को पिटते बहुत बार देखा है, लेकिन रिश्क हमेशा लड़के लेते हैं?
जबकि लड़कियां अगर इश्क में रिश्क लेती हैं तो कसम कलकत्ते की, कि लड़का इनकार भी इजहार वाले अंदाज में करेगा यानी प्यार से करेगा। कम से कम लड़कियों को चप्पल, जूते और थप्पड़ की गूंज तो गालों और कानों में नहीं सुननी पड़ेगी।

लड़कियों के इश्क को इजहार की पहल करने से लड़कियों को फायदे हैं, वह भी एक नहीं दो-दो?
पहला, लड़कियों द्वारा मनपसंद लड़के को प्रेम का इजहार किये जाने से प्रेम त्रिकोण का खतरा कम हो जायेगा। दूसरा, लड़कियों को मनपसंद लड़का खोने की संभावना, आशंका और उम्मीद भविष्य में नहीं रहेगी।
क्योंकि हर शादी-शुदा लड़की महीने में एक बार तो अपने पति को यह सुना ही देती है कि "मेरी तो किस्मत फूटी थी, जो तुम्हारे गले बंध गई, वरना मेरे लिए तो लड़कों की लाइन लगी हुई थी"
तो पहल एक और फायदे अनेक हैं इस फार्मूले के? इसलिए इस बार वेलंटाइन डे को लड़कियों को रिश्क लेकर अपने इश्क के इजहार की पहल कर लेनी चाहिए।

क्योंकि लड़की के इजहार से लड़कों द्वारा दुत्कार और पिटने का खतरा जहां बिल्कुल नहीं है, दूसरे शादी के बाद जीवन में कभी अफसोस भी नहीं रहेगा कि लाइन में कोई और नहीं, सिर्फ पति परमेश्वर खड़े थे, वो पति जो भी हो, क्लास के पहले बेंच लड़का या आखिरी बेंच का?
‪#‎ValentineDay‬ ‪#‎Love‬ ‪#‎Proposal‬ ‪#‎Ishq‬

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

माल्दा में असहिष्णुता का नंगा नाच,फिर गूंगी-बहरी हुई अवॉर्ड वापसी गैंग!

शिव ओम गुप्ता
पश्चिम बंगाल के माल्दा जिले में असहिष्णुता और आतंक का ऐसा नंगा नाच खेला गया, लेकिन कोई बुद्धिजीवी और प्रबुद्ध कवि, लेखक और वैज्ञानिक अभी तक असहिष्णुता का अनुभव नहीं कर रहा?

क्या यह असहिष्णुता का नाटक और अवॉर्ड वापसी की ड्रामेबाजी महज एक राजनीतिक खेल था, जो बिहार के लोगों को मूर्ख बनाने के लिए चक्रव्यूह की तरह रचा गया था?

लेकिन जिन प्रबुद्ध कवि, लेखक, वैज्ञानिक और कलाकारों ने असहिष्णुता की दुहाई देकर अवॉर्ड वापसी की ड्रामेबाजी की थी, उनको पढ़ने वाले प्रशंसक/पाठक, सुनने वाले श्रोता और देखने वाले दर्शकों को हाय-हाय करके सड़को पर बाहर नहीं आना चाहिए!

क्या ऐसे प्रबुद्धजनों से उनके प्रशसंकों, पाठकों को खुद के राजनीतिक बलात्कार का हिसाब नहीं मांगना चाहिए, जिन्होंने किसी एक पार्टी विशेष को फायदा पहुंचाने के लिए अपना ईमान, जमीर, और आत्मा तक गिरवी रख कर देश में असहिष्णुता का राग अलापा और अवॉर्ड वापसी की ड्रामेबाजी की?

क्योंकि अगर ये सभी प्रबुद्ध लोग सही थे तो बिहार चुनाव से पहले असहिष्णुता का राग गाकर अवॉर्ड वापस करने वाले एकाएक बिहार चुनाव का परिणाम आते ही चुप क्यों हो गये, लेकिन माल्दा में हिंसा, असहिष्णुता के हो रहे नंगे नाच पर इनके कानों में जूं तक नहीं रेग रहा?

कोई भी अवॉर्ड वापसी के लिए निकल रहा, कोई भी असहिष्णुता की बात करते हुए देश छोड़ने की बात नहीं कर रहा, कोई भी असहिष्णुता पर बयानबाजी की नहीं सूझ रही? सब चुप है और माल्दा में असहिष्णुता का नंगा देखकर खोल में घुस गये है।

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

दर्शकों को बड़ी और संकुचित सोच में बांटकर शाहरूख दिलवाले हिट कराना चाहते हैं?

शाहरूख खान जैसे बकलोल ने कहा है कि कुछ संकुचित  सोच वाले लोग उनका विरोध कर रहें हैं, लेकिन इस दोगले को कोई यह बताये कि संकुचित इसकी थी, जिसने अपनी छोटी और ओछी सोच से देश के प्यार और आशीर्वाद पर असहिष्णुता कहकर बट्टा लगा दिया है।

कमीना को 18 दिसंबर को रिलीज होने जा रही अपनी नई फिल्म #दिलवाले को सुपरहिट करवानी है, इसलिए कमीने ने दर्शकों को संकुचित और बड़ी सोच में बांटकर उन्हें बेवकूफ बनाने की साजिश रची है।

ताकि एक बड़ा दर्शक वर्ग बड़ी सोच का दिखावा करने के लिए दिलवाले के खिलाफ घोषित -अघोषित बाइकाट से अलग-थलग हो जाये और दिलवाले बॉक्स ऑफिस पर कमाई कर सके?
#Dilwale #ShahRukhKhan #BoxOffice #Bollywood

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

You really changed the face of corruption Mr.Kezriwal?

Dear Delhites...Did you heard 400 % hike in your voted/elected MLA's salary?

Yeah it's true, Your so called revolutionary government AAP approved this sin and looted govt treasure/people's money at front?

Can't remember such thief like AAP party who stealing money in front of each eye with beating drums.

AAP leader Arvind kezriwal shows his style of corruption & loot against people's money!

Shame on you krzriwal... You said inncent people of Delhi that helplessly you joined Politics to clean the corruption because everyone political party are corrupt?

Now Mr. Kezriwal see your face in the mirror and decide who is most corrupt today? Think once...you got answer...?

Mr.Kezriwal... You are most corrupt leader of today who looted public money/Govt treasure in front of elected people.

You really change face of corruption Mr. Kezriwal?

#Kezriwal #AAP #Corruptipn #SalaryHike

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

कांग्रेसी नेता कु. सैलजा भी मान गईं कि कांग्रेसी सरकारें नकारा थीं!

कांग्रेस और कांग्रेसी नेताओं की फस्ट्रेशन देखते ही बनती है। कभी यूनियन मिनिस्टर रहीं कुमारी सैलजा कहती है कि वर्ष 2013 में जब वह द्वारका स्थित मंदिर गईं थीं तो उनसे उनकी जाति पूछा गया था?

सैलजा मैडम, जब यह सवाल अगर 2013 में पूछा गया था तो बतौर यूनियन मिनिस्टर तब क्यों नहीं कुछ उखाड़ लिया और अब क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रही हो?

हद है मतलब...कुछ भी? क्या सैलजा जैसे नेता देश की जनता को अभी भी मूर्ख समझती हैं कि जो भी बकलोली वो करेंगी वो मान जायेगी।

सैलजा मैडम जो काम पिछले 60-65 वर्षों में कांग्रेस की कोई सरकारें नहीं कर पाई, उसे वह बीजेपी सरकार के 18 महीने के कार्यकाल में ही देखना चाहती है या मकसद कुछ और है।

मैडम सैलजा यह 5, 000 वर्ष पुरानी संस्कृति है, जिसे सुधरने में वक्त लगता है और आपने कुछ किया होता तो आपको अपना मुंह खोलने हक भी होता और अब महज सरकार को बदनाम करने के लिए बनावटी असहिष्णुता का झूठा मातम कर रहीं हैं।

मैडम सैलजा ही नहीं, ऐसे तमाम कांग्रेसी नेता समाज सुधार की लुकाठी लिए जहां-तहां घूमते फिर रहें हैं, लेकिन इनमें यह बताने की जरा भी संकोच और शर्म नहीं है कि देश पर प्रत्यक्ष और परोक्ष 60 वर्ष से अधिक शासन करने वाली कांग्रेसी नेताओं ने सरकार में रहते हुए मलाई काटने के अतिरिक्त अब तक कुछ क्यों नहीं किया था?

मतलब, आज हर कांग्रेसी नेता समाज और संस्कृति सुधार के लिए निकल पड़े हैं, जिसको देखो वही ज्ञान पेल रहा है कि देश में फलां गलत है और ढेमका को सही होना चाहिए, लेकिन यह नहीं बताते उन्होंने क्या उखाड़ लिया था?

यानी कांग्रेसी यह मान चुके हैं कि देश में कुछ भी अच्छा व सुधार हो सकता है तो वह मोदी (बीजेपी) सरकार ही कर सकती है और अब तक चुनी गई कांग्रेसी सरकारें नकारा थी, जिन्होंने सिर्फ अपनी जेबें भरीं और कुछ नहीं किया?
#KumariShailja #Congress #Intolerance

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

मुस्लिमों को निजी हकों के लिए हितैषियों की जरूरत नहीं है!

शिव ओम गुप्ता
कांग्रेस समेत जितनी भी राजनीतिक पार्टियां और पार्टी के नेता मुस्लिम हितैषी होने की बात करते हैं, मुस्लिमों को सर्वाधिक इन्हीं लोगों ने ठगा है।

हिंदुस्तान में मुस्लिम की आबादी जहां कहीं भी है, वहां मुस्लिमों ने चाहते और न चाहते हुए इन्हीं चिकनी -चुपड़ी बात करने वाले राजनीतिक पार्टियों को वोट दिया है और आजादी के बाद से लेकर अब तक की मुस्लिमों की हालत किसी से छिपी नहीं है।

बात उत्तर प्रदेश की हो, या पश्चिम बंगाल अथवा बिहार की, बात साउथ की हो या नॉर्थ की। ऐसा लगता है कि देश का मुस्लिम मतदाता और मुस्लिम मतों का विभाजन अपने-अपने पाले में करने वाली पार्टियां एक दूसरे पर एहसान कर रहीं हैं?

 "हमें तो वोट तुम्हें देना ही था, नहीं तो तुम कहां जाओगे" (तथाकथित मुस्लिम हितैषी राजनीतिक दल)
"हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन पार्टी सरकार बनाती है, बस फलां को वोट नहीं करना है।" ( एक आम मुस्लिम)

मतलब, देश के मुस्लिम मतदाताओं को तथाकथित मुस्लिम हितैषी दलों ने इस कदर डरा और धमका रखा है कि देश के प्रत्येक चुनाव में हिस्सा तो जरूर लेते हैं लेकिन उनके हकों की हिस्सेदारी कभी योजनाओं में, तो कभी दान-अनुदान तक सिमट जाती है।

देश के नागरिक के तौर पर मुस्लिम प्रत्येक 5 वर्ष तक अपना राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक हक तथाकथित मुस्लिम हितैषी दलों के घर गिरवी रख आता है, लेकिन जो उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक मोर्चे पर सबल और सशक्त बनाना चाहता है, उससे उन्हें साजिश की बू आती है।

इतिहास गवाह है कि पिछले 60-65 वर्षों से देश का मुस्लिम ऐसे दंश चुपचाप झेलता आ रहा है, क्योंकि तथाकथित मुस्लिम हितैषी दलों ने उन्हें डर के चंगुल में दबा रखा है, जिससे बाहर निकल कर मुस्लिम न सोच पाते हैं और न बोल पाये हैं।

उस पर तुर्रा यह है कि मुस्लिम वोट के जरिये धन पशु बन चुके ऐसे तमाम राजनीतिक दल देश में मुस्लिमों की हालत पर मातम करते हैं और फिर डराये गये मुस्लिम हर बार डरे, सहमें और भरमे फिर उन्हीं में अपना रहनुमा भी खोज लेते हैं।

देश के मुस्लिम हितैषी राजनीतिक पार्टियां अभी देश के मुस्लिमों को असहिष्णुता नामक चोचलेबाजी से डरा रहीं है, जिसका परिणाम हम आप देख ही रहें हैं और अगर देश के सो रहे मुस्लिम नहीं जागे तो यह सिलसिला यूं ही अगले 60-65 वर्ष तक चलता ही रहेगा।

तो देश के मुस्लिम जागो और इन मुस्लिम हितैषी दलों को बता दो कि यह देश तुम्हारा है और डराने और धमकाने की राजनीति के लिए तुम्हारा वोट अब उनको नहीं मिलेगा। मुस्लिम खुद सोचें कि जब यह देश तुम्हारा है और तुम उसके नागरिक हो तो कोई कैसे भी राजनीतिक दल आपके नागरिक हितों से समझौता कर सकता है, फिर पार्टी की चेहरा लाल हो या हरा? क्या फर्क पड़ता है?