गुरुवार, 29 जनवरी 2015

देश के लिए विध्वंशकारी है केजरीवाल की राजनीति!

केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में ऐसी गंध फैला दी है कि राजनीति में सुचिता और नौतिकता जो बची है वो भी चौपट हो जायेगी।

किसी भी देश के राजनीतिकों में वसूल और नैतिक मूल्‍य खत्म हो जाये तो उस देश का पतन भी शुरू हो जाता है, जैसा कि पड़ोसी मुल्क में हुआ है,  जहां की जनता राजनीतिकों और दहशतगर्दों के बीच हमेशा बंटी रहती है और देश बर्बाद हो जाता है?

कुछ ऐसी ही तरह की राजनीति केजरीवाल टाइप का मकौड़ा कर रहा है,  वह दिन दूर नहीं जब भारतीय राजनीति में भी सुचिता और नौतिकता खत्म हो जायेगी,  जिसके दोषी और जिम्मेदारी सिर्फ देश के वोटर्स होंगे।

हमारे देश में राजनीतिक कैसे भी हों,  लेकिन उनमें लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमी है। भारतीय इतिहास की अब तक सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दलों में सुचिता और नौतिकता हमेशा जिंदा रहती हैं, लेकिन केजरीवाल ने ऐसी अराजक, झूठ और आरोपों वाली राजनीति शुरू की है जो नौतिकता और वसूलों आधारित राजनीति को ध्वस्त कर रही है ।

भारतीय लोकतंत्र और भारतीय राजनेताओं (जिनमें AAP को छोड़कर सभी पार्टियां शामिल हैं) की एक खूबसूरती और पहचान रही है कि चुनाव में मिली हार को स्वीकारने में वे देर नहीं लगाते, भले ही किसी पार्टी की सरकार 10 वर्ष या 15 वर्ष सत्ता में क्यों न रही हो,  साफगोई से हार स्वीकार करते हैं और सत्ता छोड़कर चुनाव जीतने वाले दूसरे दल को सत्ता सौंप देते है!

लेकिन केजरीवाल की अराजक और नौतिकता विहीन राजनीति को देख सुनकर डर लगता है कि अगर राजनीति से नौतिकता और सुचिता खत्म हो गई तो भारत और पड़ोसी मुल्क की राजनीति में अंतर खत्म हो जायेगा?

अब देश की जनता को तय करना है कि वो कैसा देश और राजनीतिक चाहते है, क्योंकि केजरीवाल की राजनीति में नौतिकता, सुचिता और वसूल छोड़कर कर सब-कुछ है, चुनाव आपको करना है कि आपको कैसा देश चाहिए?

क्योंकि केजरीवाल की राजनीतिक गंदगी देश में ऐसा जहर फैला रही है, जिससे कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रह पायेगा!

सत्ता पाने के लिए,  वोट पाने के लिए और मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए केजरीवाल भारतीय राजनीति में ऐसे बीज रोप रहा है, जिसमें निराधार झूठ, आरोप और छल  हैं, जो देश को गर्क में ही ले जायेगा!

सोचिये,  अगर राजनीति में नौतिकता, सुचिता, वसूल और शर्म खत्म हो गई तो भारतीय राजनीति का कैसा विद्रूप चेहरा हो सकता है, जो भारत को पाकिस्तान भी तब्दील कर सकता है?

पाकिस्तानी राजनेताओं की हैसियत कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है, वहां की जनता पार्टियों को वोट तो जरुर देती है लेकिन देश की बागडोर कई लोगों के हाथ में बंटी रहती है?

तो कैसा देश चाहते है आप? अराजक पसंद और झूठ फैलाकर राजनीति करने वाले केजरीवाल की राजनीति नि:संदेह देश के लिए विध्वंशकारी है, निर्णय वोटर्स को करना है, क्योंकि देश के वोटर्स ही देश का मुस्तकबिल बनाते है, चाहे वो अच्छा हो या बुरा?

#केजरीवाल #AAP #KEZRIWAL #DelhiPoll

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

कांग्रेसी क्यों भस्मासुर की तरह व्यवहार कर रहें हैं?

कांग्रेसी नेता उस भस्मासुर की तरह व्यवहार कर रहें हैं जो खुद को ही अंतत:भस्म कर लेता है। मोदी सरकार के विरोध वो जो कुछ भी करते हैं वो उनके खिलाफ जाते हैं।

कांग्रेस के एक से एक बुद्धजीवी नेता ऐसे फस्ट्रेशन वाले मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं जो फिजूल हैं, उनकी बातें सुनकर ऐसा लगता है कांग्रेसी नेताओं ने भस्मासुर वाला हाथ खुद के सिर पर रख लिया हो और पूरी तरह से भस्म होने को तैयार हैं ?

सच कहूं तो कांग्रेस मुक्त भारत के लिए कोई और कांग्रेसी नेता ही काफी जिम्मेदार हैं, इन्हें किसी और की जरूरत ही नहीं है!

मतलब, क्या बोलना चाहिए, किस पर बोलना चाहिए इसकी भी अक्ल नहीं है। राहुल गांधी (पप्पू) कह रहें हैं कि अमेेरिकी - भारत संबंध केवल मोदी की पर्सनल पीआर करते हैं, हद है पप्पूगिरी की,  तो भाई तू भी कर लेता?

उधर, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अमेेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा को बराक कहने पर लोग रो-गा रहें हैं। भई, दो राष्ट्र प्रमुखों का अपना कंफर्ट लेबल है तो वो कैसे भी बात करेंगे उन्हें तय करने दें!

बराक ओबामा के तीन दिवसीय दौरे में हजार अच्छी बातें और करार हुई, लेकिन ये उसकी बातें नहीं करेंगे, क्योंकि इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करनी पड़ेगा, लेकिन ऐसा न करके कांग्रेसी नेता फिजूल की बातें कर रहे हैं, जो गैर जरूरी ही नहीं, वाहियात भी है!

#Congress #NAMO #Modi #Obama

आचार संहिता का लगातार उलंघन: केजरीवाल का कोई स्केप प्लॉन तो नहीं है?

केजरीवाल लगातार चुनावी आचार संहिता का उलंघन कर रहे हैं, "पैसा सबसे लो और वोट AAP को दो" के खिलाफ शिकायत होने के बावजूद केजरीवाल नहीं रुके और दूसरे दिन भी लोगों से यही बात दोहराई!

अभी दिल्ली बीजेपी की मुख्यमंत्री उम्मीदवार किरण बेदी को अवसरवादी* और खुद को ईमानदार* ठहराने वाले पोस्टर बतलाते हैं कि केजरीवाल आसन्न पराजय से भयभीत तो जरूर हो गया है और लगातार चुनाव आयोग की अवमानना कर रहा है!

कहीं केजरीवाल भागने की फिराक में तो नहीं है,  क्योंकि लगातार चुनाव आयोग चेतावनी दे रहा है और केजरीवाल लगातार मनमानी कर रहा है और आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रहा है?

आज एक बार फिर चुनाव आयोग ने केजरीवाल को आचार संहिता उलंघन करने के लिए चेतावनी दी है? क्या यह केजरीवाल का स्केप (Escape plan) प्लॉन है, जिससे उसकी उम्मीदवारी रद्द हो सके और वह दूसरों पर आरोप लगाकर किनारे लग सके?

हालांकि अराजक केजरीवाल से ऐसी उम्मीद की जा सकती है, उदाहरण सबके सामने है! चाहे पीएम की कुर्सी के सीएम की कुर्सी छोड़कर बनारस भागना हो अथवा पिछले गणतंत्र दिवस पर धरने पर बैठना और खुद अराजक बताना हो?

आइए, देखते हैं आगे होता है क्या? इतना तो पक्का है केजरीवाल नहीं मानने वाला, क्योंकि अराजकता और भागना दोनों केजरीवाल के स्वभाव में है!

नि:संदेह केजरीवाल के लक्षण बता रहे हैं कि वो भागेगा और नहीं भागा तो अराजकता लगातार जारी रखेगा, परीक्षा यहाँ चुनाव आयोग की होगी कि वो कितने क्षमाशील और सहनशील होते हैं?

चूंकि केजरीवाल को दोनों में लाभ होगा! उसकी चिट भी सही और पट भी सही होगी, भई छोड़कर भागने के लिए कोई तो बहाना होना चाहिए,  हैं जी!

#केजरीवाल #दिल्लीचुनाव #पराजय #AAP #Kezriwal #DelhiPoll #BJP #EC

हाजमा खराब हो गया है तो पखाना चले जाएं प्लीज?

पिछले तीन दिनों बड़ी ही ऊहापोह में रहा, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खासकर सोशल मीडिया में लिखी गयी टिप्‍पड़ी तलाशने में बड़ी ही माथा-पच्ची में बीता।

हालाँकि कुछ खास नहीं मिला, क्योंकि लोगों को कहने को कुछ मिला नहीं,  क्योंकि पीएम मोदी न केवल नागरिक एटमी डील साइन करवा ने सफल रहे बल्कि सब कुछ उम्मीद से बेहतर ही जा रही है।

लेकिन नकारात्मक प्रवृत्ति के लोग कहां मानने वाले? अजी पेट में मरोड़ में जो है! खबर है लोगों को पीएम मोदी की जोधपुरी जैकेट मे प्रिंटेट नाम और अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा की चिउन्गम से राहत मिली है?

वामपंथी और चरमपंथियों विचारधारा टाइप के लोग इसमें अधिक सक्रिय हैं, जिन्हें पिछले तीन दिनों से कुछ लिखने-कहने को मनमुताबिक कोई मैटेरियल नहीं नसीब हुआ था?

मत पूछो, अब आलम यह है कि फेसबुक-टिवटर में पू-पो और फुस्स - फस्स की दुर्गंध इस कदर फैली हुई है कि हालत खराब है!

भाई लोगों हाजमा खराब हो गया है तो पखाना चले जाओ, सोशल मीडिया और हमें प्लीज बख्श दो!

#मोदी #मीडिया #फेसबुक #Modi #Media #Facebook #Fart

सोमवार, 26 जनवरी 2015

बेटे को 5 साल तो दे दो ताकि...

शादी जिंदगी का एक पड़ाव है और हर एक की जिंदगी का महत्व पूर्ण हिस्सा भी है, लेकिन इसमें की गई जल्दबाजी दो जिंदगी को अनाश्यक दुश्वारियों में ढकेल देती है,  जिसके फलस्वरूप मानसिक और शारीरिक बीमारियां जन्म लेते हैं,  जैसे-समय पूर्व बाल झड़ना,  बालों की सफेदी और चिड़चिड़ापन एवं तोंद निकलना प्रमुख हैं।

बात निकलेगी तो दूर तक जायेगी?

सच कहूं तो मैं चाहता भी यही हूँ, क्‍योंकि हमारा समाज युवकों की शादी को लेकर बेहद लालायित और दीवाने होते हैं।

गांव - जवार, नाते-रिश्ते और आस-पड़ोस के कुंवारे लड़के और लड़कियां इनकी आँखों को खटकते हैं, युवक की नौकरी लग चुकी हो तो जैसे इनकी छाती पर साँप लोटने लग जाते हैं कि फलाने उसकी शादी क्यों नहीं कर रहें?

कुछ नहीं तो ७५ रिश्ते खुद लेकर पहुँच जायेंगे(नेकी कर दरिया में डाल शैली में) और तब तक बेचैन रहते हैं जब तक शादी की चेन न बंधवा दें!

ये तो रही सामाजिक बात अब कुछ वास्तविक हो लेते हैं- माने, हम-आप बोझ उठाने से पहले खुद की बोझ उठा पाने की क्षमता का परीक्षण जरूर करते हैं, लेकिन शादी से पहले युवक की जिम्मेदारियों के उठा पाने की क्षमता के परीक्षण के लिए वक्त क्यों नहीं दे पाते?

भैय्या,  नौकरी सरकारी हो या निजी(प्राइवेट),  दोनों नौकरियों को करने,  सीखने और पारंगत होने में वक्त तो लगता है? सीधे कहूं तो नौकरी पा लेना और नौकरी करना आना में जमीं - आसमां का अंतर होता है?

युवक की नौकरी देखी, मोटी तनख्वाह देखी और ढूँढने-बताने लगे रिश्ते,  कहीं रिश्ता हाथ से निकल न जाये,  फिर चाहे शादी के बाद वो ही युवक मां-बाप के हाथ से ही क्यों न निकल जाए?

नौकरी लगते ही शादी होने से युवकों को दोहरी जिम्मेदारी का भार झेलना पड़ता है, प्राइवेट नौकरी है तो उसे नौकरी बचाये रखने के लिए नियोक्ता की जरुरी - गैर-जरुरी सभी शर्तों के साथ नौकरी करनी होगी।

जबकि सरकारी नौकरी वाले युवक को नौकरी के शुरू के २ साल तो डिपॉर्टमेंट के अपर-सब ऑर्डिनेट और लोअर-सब ऑर्डिनेट को समझने, झेलने और गुस्से से बचने में नौकरी करनी पड़ती है, जिसका गुस्सा वह अपनी पत्नी पर निकालेगा, क्योंकि वह पत्नी की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए ही सारे शोषणों को झेल रहा है, ऐसे में युवक या तो पत्नी का पति रह सकेगा अथवा मां-बाप का बेटा?

युवक नि:संदेह पत्नी की सुनेगा तो 'जोरू का गुलाम'और मां-बाप की सुनेगा तो 'दूध पीता बच्चा' कहलाता है? इसीलिए वह मां-बाप के हाथ से निकल जाता है और दुनिया कहती है कि युवक नाकारा निकला?

वैसे, कई बिरले जोरू का गुलाम और दूध पीछा बच्चा टैग को सीरियसली ले लेते हैं और बीच (मध्यम मार्ग) का रिश्ता निकलने की कोशिश करते हैं तो मां-बाप और पत्नी दोनों ओर से हमला जिंदगी भर झेलने को अभिसप्त होते हैं,  जिससे वे जल्दी ही मानसिक रोगी भी बन जाते हैं!

चूंकि मां-बाप को शादी के बाद भी वही आज्ञाकारी बेटा चाहिए और शादी के बाद पत्नी को भी आदर्श पति चाहिए, लेकिन 'आज्ञाकारी' और 'आदर्श पति' के दोराहे से गुजरता युवक हमेशा यही सोचता है कि काश! कोई हाइवे होता,  जहाँ से निकल भागता पर वह नहीं निकल पाता,  क्यों? वो तो आपको भी पता ही है! ⛄🍼

एक क्षेत्रिय अखबार का अनुभव: जैसे आत्मा बिना शरीर!

पिछले कुछ एक दिन एक क्षेत्रिय अखबार के दफ्तर में गुजरा, अनुभव बेहद ही खराब रहा?

हालांकि ऐसी आशंका ही नहीं, भरोसा भी था कि कुछ ऐसा ही नजारा मिलेगा और हुआ भी ऐसा!

मैंने देखा, क्षेत्रिय अखबारों के दफ्तरों में पत्रकारिता और पत्रकारिए धर्म दोनों के मायने जुदा होते हैं, मतलब यह है कि क्षेत्रिय अखबार में काम करने वाले पत्रकार सरोकारी और नैतिक पत्रकारिता से उतने ही दूर रहते हैं जैसे ?

क्षेत्रिय अखबारों की प्राथमिकता और प्रसांगिकता भी समझ से परे होते हैं, बिल्कुल मैकेनिकल? क्योंकि उनका झुकाव जन सरोकार से हमेशा इतर होता है और उनके कलम और कॉलम प्राय: जरूरतंमंदों के लिए नहीं, बल्कि वैयक्तिक जरुरतों के लिए अधिक जगह घेरते हैं।

मैंने यह महसूस ही नहीं किया बल्कि व्यक्तिगत रूप से देखा भी है, और सोच रहा हूँ कि ऐसे क्षेत्रिय पत्रकार साथी कैसे सरोकारी पत्रकारिता करते होंगे जब वो स्थानांतरित होकर राजधानी में पहुंचते होंगे?

हालांकि पत्रकारिता भी अब कॉरपोरेट और कारोबारी हो चली है, लेकिन आत्मा अभी यहां जिंदा है और उन्मुखता भी उसी ओर दिखती है पर क्षेत्रिय पत्रकारिता और पत्रकारों में विचित्र बीज रोपे जाते हैं, जो अफसोस जनक है।

मैंने हमेशा क्षेत्रिय स्तर की पत्रकारिता से दूरी बनाये रखने की कोशिश की और भविष्य में चाहूंगा कि क्षेत्रिय पत्रकारों में पत्रकारिए धर्म को विकसित करने के लिए एक ऐसी संस्था बनाये जो नौकरी से पूर्व एक क्रैश कोर्स के जरिए पत्रकारिता के छात्रों में सरोकारी पत्रकारिता की गुण धर्म विकसित कर सके !

मोदीजी एक नियामक संस्था जरूरी है?

मैं चाहता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसी निगरानी और नियामक संस्था विकसित करें जो रोजमर्रा की जरूरत की सामग्रियों की बिक्री दरों की निगरानी और नियमन का कार्य संभाले!

क्योंकि दुकानदार घटती लागत के बावजूद बढ़ाई कीमतों को वापस लेने से कतराते हैं जबकि जरुरी चीजों के मूल्‍यों में मामूली वृद्धि से भी कीमत बढ़ाने से गुरेज नहीं करते?

जरूरत है एक ऐसी स्वतंत्र नियामक संस्था की जो बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध सामग्रियों की कीमतों की मनमानी पर रोक लगाए और लागत के आधार पर उनकी बिक्री सुनिश्चित करे और चरणबद्ध तरीकों से उनके मुनाफे की सीमा का निर्धारण भी करे!

पिछले 7-8 माह में देश की खुदरा और थोक मूल्‍यों की महंगाई दरों में निरंतर गिरावट दर्ज हुई है बावजूद इसके दुकानदार पुराने बढ़ाये मूल्‍यों पर ही सामानों की बिक्री कर रहें हैं और घटती महंगाई दरों का लाभ अकेले दुगना-चौगुना करके डकार रहें है,  जिन्हें आज रोकने वाला कोई नहीं है?

मोदी सरकार को ऐसे सभी दुकानदारों पर नकेल कसने के लिए एक नियामक संस्था विकसित करनी चाहिए, जिससे दुकानदारों की मनमानी मुनाफाखोरी बंद हो और घटती महंगाई दरों का लाभ आम लोगों को भी हो?

जो समोसे 6 रुपये में दुकानदार बेचते थे उन्होंने महंगाई के नाम पर समोसे की कीमत बढ़ाकर 10 रुपये प्रति तो कर दिये, लेकिन महंगाई दरों में जारी गिरावट के बाद भी आज वे समोसे 10 रुपये में ही बेच रहे है,  इनकी मनमानी कौन रोकेगा ?

कौन इन्हें घटती लागतों के बीच चीजों की कीमतों में कमी लाने के लिए रेगुलेट करेगा,  क्योंकि अभी तक कोई ऐसी संस्था वजूद में ही नहीं है, जो इन्हें लागत के मुताबिक चीजों की कीमतों के घटाने-बढ़ाने और स्थिर  रखने की कोशिश कराती दिखती हो?

#महंगाई #कीमत #दर #नियामक #संस्था #Inflation #Regularlybody #ModiGovernment #NarendraModi #NAMO

फेमनिस्ट या लंबरदार : कोई आईना दे दो भाई!

वो जो अपने घरों में पत्नी को बगैर वेतन की नौकर और बेटी को बोझ मानते/समझते हैं, ऐसे लोग आजकल फेमनिस्ट के लंबरदार बने फिर रहे हैं? 

प्रधानमंत्री मोदी के पत्नी त्याग पर मुंह खोलने वाले ऐसे घड़ियालों को नहीं पता है कि दुनिया ऐसे दर्जनों हैं, जिन्होंने सामाजिक और धार्मिक हितों के लिए स्वैच्छिक   रुप से ऐसा रास्ता चुना, जिसको बाद में ने केवल मान्यता मिली बल्कि सिरोधार्य किया गया!

लेकिन क्षणिक चर्चा में आने के लिए अथवा महज विरोध के लिए विरोध करने वाले बुद्धिहीनों पर केवल तरस ही क्या जा सकता है, क्यों?

क्योंकि इनकी सुनते तो राजसी ठाठ-बाट और पत्नी यशोधरा को छोड़कर भागे तत्कालीन राजा सिद्धार्थ सूली पर चढ़ा दिये जाते,  भगवान बुद्ध बनना तो दूर की बात थी!

क्योंकि सिद्धार्थ तो गृहस्थ आश्रम में भी प्रवेश कर चुके थे और तो और पत्नी के साथ - साथ उनपर एक बच्चे की जिम्मेदारी भी थी?

मैं यहाँ तुलना नहीं कर रहा हूँ, बस कुछ लोगों को आईना दिखाने की कोशिश कर रहा हूं, शायद किसी को अपनी सही शक्ल दिख जाये!

अधिक ज्ञान चाहिए तो नीचे क्लिक कर लें-🔌
http://www.palpalindia.com/2015/01/18/awesome-Gautama-Buddha-Enjoyment-yoga-meditation-news-in-hindi-india-83553.html

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

कांग्रेस काल में 9000 मुस्लिमों ने किया धर्मान्तरण, तब कहां थी मीडिया?

केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी का 2012 में वहां की विधानसभा में दिए बयान के मुताबिक वर्ष 2006 से 2012 के बीच केरल में कुल 7,000 से अधिक लोगों को धर्म परिवर्तन के जरिए मुसलमान बनाया गया, लेकिन कोई भी नेशनल चैनल्स ने चर्चा तो छोड़ो, टिकर भी देना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज मीडिया चैनल्स ने ऐसी मछली बाजार लगा रखी है कि दिमाग का दही कर दिया।

क्या मीडिया पर सवाल नहीं उठने चाहिए कि क्या वह अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा रही है या महज हंगामा खड़ा करना ही अब मीडिया का मकसद रह गया है?

क्या केन्द्र में आई बीजेपी (मोदी सरकार) के खिलाफ मीडिया का इसे साजिश नहीं करार नहीं देनी चाहिए?

क्योंकि वर्ष 2006 से वर्ष 2009 के बीच मनमोहन सरकार के दौरान कुल 9000 लोगों ने धर्मान्तरण किया, जिनमें 2000 से अधिक लोगों ने मुस्लिम धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म स्वीकार किया था पर तब ना तो नेताओं ने कुछ बोला और ना तथाकथित ज़िम्मेदार मीडिया ने कोई चर्चा (हो-हल्ला) की थी?

यही नहीं, पूरे नॉर्थ-ईस्ट में मिशनरीज ने पैसे और अन्य लालचो़ं के धोखे से पूरे के पूरे हिंदू आबादी को ईसाई बनाती जा रही है, मीडिया इस पर भी चुप है,  क्यों?

नॉर्थ-ईस्ट ही क्यों, देश भर के अलग अलग हिस्सों में भी ऐसा ही हो रहा है लेकिन मीडिया वहां इतनी गंभीर नहीं,  क्योंकि वहां मसाला नहीं है?

पूरे नॉर्थ-ईस्ट में राशन कार्ड जैसी चीज़ों के लिए हर वर्ष हजारों हिन्दू जबरन ईसाई बनाने जाते हैं पर मीडिया कान में तेल डालकर सोई रहती है,  क्योंकि नॉर्थ-ईस्ट की खबरों में ज्यादा माइलेज नहीं होता है?

मीडिया देश का एजेंडा तय करती है,  लेकिन मीडिया एकतरफा रिपोर्टिंग करती है इसका सुबूत सबके सामने है!

यह बात सौ फीसदी सच है कि गरीबी,  तंगहाली और लालच में आकर अधिकांश धर्म परिवर्तन की ओर बढ़ने की सोचते हैं, जिसके लिए जितनी जिम्मेदारी सरकारें हैं उससे अधिक जिम्मेदार तथाकथित मीडिया है!

क्या मीडिया तमाशबीन नहीं हो गईं हैं,  जो दिनभर के तमा़शाई खबरों का मज़मा लगाती है और उन्हीं खबरों को मुद्दा वे एजेंडा बनाती है, जिसमें अधिक विवाद व दर्शक मिलते हैं!

अब देश की जनता और दर्शकों को तय करना होगा कि वो कितनी जिम्मेदार है और वह मीडिया के चोचलों और झांसों से कैसे निपटेगी?

देश के दर्शकों को मीडिया को अब बताना ही होगा कि वह न्यूज चैनल या न्यूज पेपर मनोरंजन के लिए नहीं, मसाले के लिए नहीं, बल्कि देश का हाल जानने के लिए और खबर जानने के लिए करती है,  क्योंकि मनोरंजन थे लिए सैकड़ों चैनल हैं और हाथ में रिमोट है!

ऐसा तरीके से ही मीडिया को उसकी  जगह दिखाई जा सकेगी और तभी मीडिया देश की बुनियादी मुद्दों को उठाएगी और मसालों को छोड़ विकास को एजेंडा बनाना शुरू करेगी ?

नॉर्थ-ईस्ट में संघ परिवार एकल विद्यालय के जरिए लाखों हिन्दुओं को मिशनरीज के चंगुल से बचाने का काम करती है, लेकिन मजाल है किसी मीडिया ने निष्पक्ष होकर उस पर रिपोर्टिंग करने कोशिश की हो?

हालांकि हम दर्शक भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितनी की मीडिया? क्योंकि हम खुद मसालेदार खबरों के आदी हो चुके हैं?

अब हम जब मसाला देखेंगे और देश की अन्य खबरों पर नहीं रुकेंगे तो टीआरपी के लिए हमें वैसी ही खबरे परोसी जाएंगी,  जहां आपका रिमोट रूक जाता है?

दर्शक कल से मसालेदार खबरों से नजरें फिराना शुरू करके सिर्फ और सिर्फ न्यूज देखना शुरू कर दें तो देश के विकास और  समस्याओं से जुडी खबरें हिट होनी शुरू हो जाएंगी और न्यूज चैनलों से मसालेदार  खबरें खुद-ब-खुद गायब होने लगेंगी!

तो मीडिया को सबक सिखाना शुरू कीजिए और उसे मजबूरी कीजिए कि आप न्यूज चैनल समाचार सुनने और देखने के लिए देखते है, हंसने, गुदगुदाने और मनोरंजन के लिए नहीं, क्योंकि मनोरंजन के लिए आपके पास काफी विकल्प है और हाथ में रिमोट है!

दर्शक अगर कल से न्यूज चैनल पर हो रहे तमाशों का बहिष्कार करना शुरु कर दें और तमा़शाई खबरों के शुरू होते ही चैनल बदल लें तो मजबूरन चैनल्स सुधारना शुरू कर देंगे, करके देखिए... ये आपका हक भी है और जिम्मेदारी भी, जय हिंद!

मर्दो के इज्जत कारोबार में आया रिशेसन?

मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करती हैं कि इज्जत सिर्फ लड़कियों की ही क्यों होती है? या लड़कों की भी कोई इज्जत होती होगी?

क्योंकि मर्द (लड़के) प्राय: अपनी तथाकथित इज्जत की शेखी महिला पर शासन करके व उसे मन मुताबिक प्रतिबंधित करके ही कमाता आया है?

लेकिन अब जब लड़कियां खुद की रक्षा-सुरक्षा करने के लिए इंडिपेंडेंट हुई जा रहीं हैं तो लड़कों (मर्दो) के तथाकथित इज्जत का क्या होगा? वो इज्जत, जो मर्द महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर अब तक कमाते रहें हैं?

अब मर्दों के दंभ का क्या होगा? जो ये मानते आए हैं कि उनके बिना महिलाओं का वजूद कुछ नहीं है?

क्योंकि आज की इंडिपेंडेंट महिलाएं खुद अपनी इज्जत की सुरक्षा के लिए मर्दों की ओर नहीं देख रहीं!

तो क्या महिला की इज्जत बचाकर इज्जत कमाने वाले कारोबारी मर्द अब बेरोजगार हो जाएंगे? मतलब जब  लड़कियां इंडिपेंडेंट होंगी तो मर्द बेरोजगार ही नहीं, बल्कि इज्जतविहीन हो जाएंगे?

क्योंकि लड़कियां इंडिपेंडेंट हो रहीं है और इज्जत का कारोबार मर्दों के हाथों से छिनता जा रहा है, तो बड़ा सवाल है कि अब लड़के क्या करेंगे?

क्योंकि लड़कों (मर्दों) की अपनी कोई इज्जत तो होती नहीं है? मर्दों की इज्जत तो घरों की उन बेरोजगार महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा से जुड़ी होती है, जो मर्दों के लिए सुबह-शाम खाना पकाती है और दिन-रात सेवा में जुटी रहती हैं?

भारतीय घरों के हर एक मर्द को इज्जत बचाने के कारोबार पर जन्मसिद्ध अधिकार है! पति-पत्नी की रक्षा (पहरा) करता है, फिर पिता-बेटी की रक्षा करता है और भाई- बहन की रक्षा करता है?

बहुत बड़ा है यह इज्जत बचाने का कारोबार, लेकिन अब जब ये कारोबार ही नहीं बचेगा तो मर्दों का फर्स्ट्रेट होना स्वाभाविक ही है!

क्या भाई! कारोबार भी छीन लोगे और बोलने भी नहीं दोगे? अब लड़कियों के जींस पहनने और उनके मोबाइल उपयोग पर प्रतिबंध को मर्दों का डैमज कंट्रोल मान लीजिए और ऑनर किलिंग को साइड इफैक्ट!

मर्दों (लड़कों) की इज्जत नहीं होती है, इसका प्रमाण किसी भी भारतीय घर में मिल जाएगा?

यह किसी भी भारतीय घर में लड़कियों और लड़कों की परवरिश में साफ साफ नजर आता है, लड़का बाहर से कितना भी मुंह काला करके आए हमारे समाज व परिवार में उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता?

लेकिन उसी घर की लड़की को स्कूलिंग के आगे की पढ़ाई इसलिए छोड़नी पड़ जाती है, क्योंकि लड़की की इज्जत का सवाल है?

मीडिया में और मीडिया की नौकरी, दोनों जुदा बातें हैं?

पत्रकारिता होती थी या होती रहती है अथवा होती होगी के बीच कड़ी है पत्रकारिता की जाती है?

इसका सच-उसका सच, मेरा सच-तेरा सच, पहला सच-आखिरी सच, और जरुरी सच-गैर जरूरी सच के दोराहे पर खड़े हम हमेशा यूटर्न लेने को मजबूर होते है कि पहला सच किसका दिखाएं इसका या उसका?

सबके अपने गढ़े हुए सच हैं और उन सचों के वर्जनों में वेराइटी भी मौजूद है, बोलो क्या खरीदोगे...बस रिमोट बाजू में रख दो...टीआरपी का सवाल है बाबू?

किस सच से लाभ है, किससे हानि? यह तय करके ही सच उजागर किया जाएगा, क्योंकि सच की ना ही गुंजाइश है और ना ही सच कभी प्रोडक्टिव कारोबार रहा है, क्योंकि जल्दी चुक (खत्म) जाता है? मतलब 'जितनी सच से दूरी-उतनी तरक्की पूरी'

सच से किसको लोभ और लाभ है भला, कहते भी हैं कि अगर झूठ से किसी की जान बचती है तो वो सच के बराबर है, शायद इसीलिए झूठ का कारोबार ही मीडिया और पत्रकारिता का मूल मंत्र बन गया है!

भई, सच से किसका भला हुआ आज तक? हममें से 90 फीसदी अपनी पूरी जिंदगी झूठ के सहारे जीेते है और सच से दूर, जितना दूर हो सके भागते रहते है...और कोई झटके देकर सच का सच और झूठ का झूठ बतलाता भी है तो भी हम नहीं मानते कि दुनिया गोल है, क्योंकि हम लंबी सोच में प्राय: लंबे जो रहते है!

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

पत्रकारिए धर्म के बदलते-सिमटते पैमाने?

ये कहां आ गए हम, सरे राह चलते-चलते...
पत्रकारिए बिडंबना दिल्‍ली में रहने वाले 28 वर्षीय विकास को एक साल पहले जब एक प्रतिष्‍ठित हिन्‍दी चैनल में बतौर प्रशिक्षु नौकरी मिली तो माथे से बेरोजगारी का कलंक हटने से विकास काफी प्रसन्‍न था। दूसरी तरफ सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ने का जोश हिलोरे मार रहा था। बगैर पल गवांए विकास लड़ाई में उतर जाना चाहते थे। पर ये क्‍या हुआ।

अभी पत्रकारिता में कुछ ही दिन बीते थे कि अचानक विकास साहब का कथित पत्रकारिता से ही मोहभंग हो गया। उम्र ढल जाए कि इससे पहले आज विकास एक सरकारी नौकरी ढूंढने में मशगूल है ताकि बाकी की जिंदगी शांति से अपनी शर्तों पर जी सकें।

दिल ढूंढता है फिर वहीं यह हकीकत किसी एक युवा पत्रकार की नहीं, बल्‍कि हर उस युवा पत्रकार की है, जो वास्‍तविकता से परे इस पत्रकारिता की काली कोठरी में खिंचे चले आ रहे हैं। फिर तो ग्‍लैमर, पैसा और साथ में समाजसेवा के गढ़े हुए मानकों को कंठस्‍थ करके ही उस कोठरी से बाहर निकलते हैं, लेकिन वो युवा पत्रकार जिनके सपने चकनाचूर हो गए, जब ग्‍लैमर, पैसा और समाजसेवा के गढ़े इन तीनों मानकों में से एक भी हाथ में नहीं पाता। तो उस पर क्‍या बीतती है, समझा जा सकता है। ग्‍लैमर, पैसा और पत्रकार चलिए बात ग्‍लैमर से ही शुरू करते हैं, आप समझाइए।

मौजूदा दौर के समाचार पत्रों और चैनलों की भीड़ में आज कितने युवा पत्रकार प्रभाष जोशी, प्रणय राय और विनोद दुआ जैसे बड़े नाम बन पाऐंगे। प्रभाष जोशी उस समय के पत्रकार रहें हैं जब अखबार सामाजिक सरोकारों से जुड़े मिशनों के लिए बिकते थे न कि बांबे स्‍टॉक एक्‍सचेंज में अपने शेयर होल्‍डरों की संख्‍या बढ़ाने के लिए, जैसा आज है।

रही बात प्रणय राय, दीपक चौरसिया और पुण्‍य प्रसून बाजपेयी जैसे गिनती के पत्रकारों की, तो ये भारतीय टीवी पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार रहे हैं जब टीवी पत्रकारिता के नाम पर समाचार चैनलों के एक दो ही विकल्‍प रहा करते थे।

दौर-ए-जहन्‍नुम लेकिन क्‍या आज टीआरपी और मसाला खबरों की भीड़ में कोई अंगदी पैर जमाने की गल्‍ती कर पाएगा, अपने आपको इन्‍हीं की तरह मजबूती से स्‍थापित कर पाएगा। मान लिया कोई फैंटम बन भी गया तो इस बात की गारंटी नहीं है कि दफ्तर उनकी सेवाओं को कब समाप्‍त कर दे और उनके स्‍टार-दम को अर्श से फर्श पर दे मारें।

एक टीवी चैनल से धोखा खा चुके पुण्‍य प्रसून बाजेपयी जो पुराने खिलाड़ी थे बगैर छीछालेदर के निबट गए, लेकिन वहीं अगर कोई नया खिलाड़ी होता तो उसे दूसरे संस्‍थानों में नौकरी पाने में कितने तलवे घिसने पड़ते, भुक्‍तभोगी युवा समझ चुके हैं।

दम है जान है फिर भी हैरान हैं एक संस्‍थान में सभी तो हीरो बन नहीं सकते, आखिर रोटी और रोजी का सवाल है जिसके लिए समझौते पर तैयार होना लाजिमी है। वह पहले अपना तन काला करता है फिर मन काला होने देता है यहीं नही धन कमाने के लिए कुछ भी कहने-सुनने के लिए तैयार भी है।

मतलब तन मन धन सारे काले करने के बाद भी असुरक्षा और अनिश्‍चितता की भंवर में उसे डूबना ही है। बतलाइए दम और जान के बगैर इंसान तो चल नहीं सकता एक पत्रकार ही चल पाता है क्‍योंकि झटके से स्‍टार्ट और बदं होने वाले ऐसे मशीनी पत्रकार पेट्रोल तब तक पाते है जब तक वे मालिक के मनमुताबिक चलते है वरना मशीन बंद तो पेट्रोल बंद। यही दस्‍तूर है मशीनीकरण का। बुरा मत मानिएगा।

का करूं सजनी भाए ना कॉलम

भई दिल्‍ली और मुंबई जैसे मीडिया केंद्रों में जिंदगी जीने के लिए आप बेहद कंजूसी से भी पैसा खर्च करेंगे तो 8 से 10 हजार का भट्ठा बैठ जाएगा।

 बावजूद इसके ऐसे सैकड़ों युवा पत्रकार इस विचित्र सी दुनिया में आपको विचरण करते दिख जाऐंगे जो समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में 4 से 8 हजार में ड्यूटी बजाने को तत्‍पर दिख जाऐंगे।

यहीं नहीं कितने तो ऐसे है जो महीनों इस आस में मुफ्त में ही सेवाएं दे रहे हैं कि कब बुलावा आ जाए और बेड़ा पार लगे। कई युवा पत्रकार तो ऐसे भी है जिन्‍हें बावजूद नौकरी के खुद का खर्चा चलाने के लिए घर से पैसे मंगाने पड़ रहें हैं।

खुद की जिम्‍मेदारी उठाने में काले हो चुके ऐसे पत्रकार को करियर के चार-पांच साल बाद जब घर-बार और शादी-विवाह की जिम्‍मेदारी निभानी का भार आता है तो वह जद्दोजहद करता दिखता है। ऐसे में बहन की शादी या माता-पिता की बीमारी के इलाज जैसी अगर कोई बड़ी पारिवारिक जिम्‍मेदारी ऊपर आ गई तो कल्‍पना ही कंपा देती है।

व्‍यथा की कथा मैं आपको एक पत्रकार दोस्‍त के बारें में बताता हूं जिनकी शादी को पिछले तीन साल से ज्‍यादा हो चुके हैं और वे चाहते हुए अगले दो साल तक बच्‍चा पैदा नही करना चाहते। उनका कहना है कि जब वेतन बढेगा या कोई अच्‍छी नौकरी मिलेगी तभी वे इस बारे में सोचेंगे।

 रजिस्‍ट्रार ऑफ न्‍यूज पेपर ऑफ इंडिया के आंकड़ो मुताबिक यूं तो देश में चार हजार से ज्‍यादा हिन्‍दी पत्र-पत्रकाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन हिन्‍दी मीडिया बाजार में राज करने वाले गिनती के दो चार नामी संस्‍थानों को छोड़ बाकी लागत ही नहीं निकाल पा रहें है तो पत्रकारों को तनख्‍वाह कहां से देंगे, और अगर कोई लागत निकाल रहें हैं तो वे गुलाम पत्रकारों के शोषण से कमा रहे हैं।

 ऐसे में दो चार हिंदी मीडिया संस्‍थान बुर्जुवा बनने में तनिक भी लज्‍जा महसूस नहीं कर रहे हैं और हम मार्क्‍स के सर्वहारा मजदूरों की तरह अपना सब कुछ हार रहे हैं। मरता क्‍या ना करता मजदूर रूपी पत्रकार सैंकड़ों हैं और नौकरी दस-बीस।

अब ऐसे में इन संस्‍थानों की ओर से सस्‍ता श्रम क्‍यों नहीं खरीदा जाएगा। यह ऐसा बाजार है जहां बाजार में खड़े गधों और घोड़ों की कीमत बराबर लगती है। ऐसा समाजवाद शायद ही कहीं देखने को मिले। अंग्रेजी

 मीडिया संस्‍थान में पिछले तीन साल से काम करने वाले और हिन्‍दी संस्‍थान में पिछले दस-बीस साल से काम करने वाले के वेतन में अंतर देख कर आसानी से समझ सकते हैं कि स्‍थिति कितनी भयावह है।

प्रत्‍येक वर्ष सरकारी और कुकुरमुत्‍ते मीडिया संस्‍थान लाखों की संख्‍या में डिग्रियां रेवड़ियों की तरह बांट रही हैं। लेकिन रोजगार देने वाले संस्‍थानों की स्‍थिति जस की तस बनी हुई है। लाइन में लगे रहे नंबर आए तो उतर जाओ और जितना नहा सको नहा आओ, वरना नंबर आने का इंतजार करो।

 यहां अंग्रेजी पत्रकारिता की कर्मठता बताने के लिए रीतिकालीन कवि बनने की कोशिश नहीं की जा रही है बल्‍कि सिर्फ वास्‍तविकता की चादर पर लगे धब्‍बों को दिखाने की कोशिश की जा रही है।

मनी है तो ठनी है आज वैश्‍विक बाजार होने के कारण अंग्रेजी पत्रकारों के पास ढेरों विकल्‍प हैं। ऐसे में अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों को प्रतिस्‍पर्धा में आगे आने के लिए कुशल पत्रकारों की जरूरत है और हिन्‍दी पत्रकारों से कहीं अच्‍छा वेतन देकर वे ऐसे अंग्रेजी पत्रकारों की सेवाएं भी ले रहे हैं।

यह बात किसी भी हिन्‍दी और अंग्रेजी पत्रकार के पास उपस्‍थित बुनियादी और आर्थिक संसाधनों को देखकर स्‍वत: ही लगाया जा सकता है। जबकि इसके उलट हिन्‍दी संस्‍थानों में अनुवाद, पेज मेकिंग से लेकर रिर्पोटिंग तक सभी का एक ही आदमी से कराए जाते हैं। लेकिन हालात जस के तस है। बुनियादी और आर्थिक संस्‍थानों की कमी है और उम्र थोड़ा बढ़ जाने पर इधर-उधर भागने का कोई विकल्‍प भी जारी है। बाजार में गिनती के चार लाला की दुकान है एक से बचोगे तो दूसरा नोचेगा। क्‍या करेगा भईया

ऐसे में आप किसी हिन्‍दी पत्रकार से कैसे अपेक्षा कर सकते है कि वह प्रेसविज्ञप्‍ति छापने पर पैसे न ले या गिफ्ट पाकर किसी कंपनी का पीआर और पब्‍लिसिटी करने से बचे, प्रशासनिक धांधलियों से बचे, या रोज एक टाइम का खाना प्रेस कांफ्रेंस के दौरान खाते दिख जाए।

इन्‍हें टोकने का आपको कोई अधिकार नहीं है। क्‍योंकि पेट सबको पालना है। सबको अपने बच्‍चों को डीपीएस में पढ़ाना है। सबको ब्रांडेड कपड़े पहनने है। कोई समझाए ना अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को निभाने के लिए ही नौकरी के एवज में पैसे की दरकार हर कोई करता है।

 कुछ हिन्‍दी मीडिया संस्‍थान बहुत अच्‍छा पैसा दे रहे हैं। लेकिन ऐसे हिन्‍दी मीडिया संस्‍थानों की संख्‍या इक्‍का-दुक्‍का ही है। जिनमें से आधे मूल रूप अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों की उपज है।

दूसरे ऐसे संस्‍थान ज्‍यादा पैसा देने पर काम की जगह खून पी रहें हैं। जिनमें मुख्‍य तौर पर हिन्‍दी टीवी संस्‍थान शामिल है, जहां प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति से औसतन 12 से 14 घंटे काम करवाया जा रहा है। अब अगर कोई आदमी 24 घंटे में से 12 घंटे काम करेगा, 7 से 8 घंटे सोएगा, 2-3 घंटे ऑफिस आने-जाने में बरबाद करेगा तो फिर वो इंसान क्‍यों है, मशीन ही बन जाए क्‍योंकि 7-8 घंटे का आराम तो मिल की मशीनों को भी मिल जाता है।

जिंदगी मौत ना बन जाए संभलो यारों लाख बुरे हालातों के बावजूद आज भी युवा पत्रकारों की एक ऐसी खेप है जो इस इंडस्‍ट्री में सरोकारों की ज्‍वाला को लेकर आती है। भंयकर रचनात्‍मकता से ओत-प्रोत ये लोग हिन्‍दी मीडिया के वर्तमान में सबसे ज्‍यादा प्रताड़ित होने का कारण ये स्‍वयं है क्‍योंकि ये हिन्‍दी पत्रकारिता के उस इतिहास को पढ़ कर पत्रकार बनने चले है जो आजादी और वंचितों की लड़ाई से भरी पड़ी है।

लेकिन भईया माहौल बदल गया है। कलम की ताकत लाला की दुकान हो गई है। जिससे ज्‍यादा मुनाफा होगा, वही छपेगा। लेकिन ये बात इन पत्रकारों की समझ में ही नहीं आती है। क्‍योंकि इन्‍होंने पत्रकारिता के वसूलों और धर्म को गले जो लगा बैठे हैं। अब इस तरह की लड़ाई लड़ने चलोगे तो राह में कंकड़-पत्‍थर तो जरूर मिलेंगे, हां वो सुकूंन की गांरटी अब नहीं दी जा सकती है।

ना समझे तो अनाड़ी हो बाजारवाद को अभी तक नहीं समझे हैं तो अनाड़ी तो हो ही, जल्‍दी नहीं चेते तो पनवाड़ी की दुकान भी खोलनी पड़ सकती है। अब आपका पत्रकारिए धर्म आपसे चाहता है कि आप गरीबी और विकास से जूझ से रहे बुंदेलखंड और विदर्भ के वर्तमान हालातों पर स्‍टोरी करो, लेकिन टीआरपी की मांग है कि राखी सावंत का स्‍वयंवर, करीना की बिकनी, आमिर के ऐट एब्‍स जैसी खबरें। जिसे देखते ही दर्शकों की दीदे टीवी चैनल पर अटक के रह जाए। तो वहीं खबरें चलेंगी, जिससे टीआरपी रेट बढ़े, आपने भले ही बढ़िया पैकेज बनाया हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

हिन्‍दी अखबारों का भी यही हाल है। आधा समय अंग्रेजी खबरों के अनुवाद में बीतता है तो आधा पेज मेकिंग में, थोड़ी बहुत रिर्पोटिंग जो होती भी है, उसमें रिर्पोटर को संस्‍थान की सोच, औद्योगिक और राजनैतिक घरानों से संबंधों की मर्यादा, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों से मिलने वाले विज्ञापनों का लिहाज रखना पड़ता है।

 ऐसे में पत्रकार और मीडिया संस्‍थान के आदर्श में एक गहरा अंतर हो जाता है। जिसका परिणाम या तो अवसादग्रस्‍त पत्रकार नौकरी छोड़ देता है अथवा मीडिया संस्‍थान उसे खुद बाहर का रास्‍ता दिखा देती है। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों की खबर करते समय अगर मुकदमेबाजी या अपराधियों से पंगा लेना पड़ा तो वो भी आपके जिम्‍मे।

सबसे बड़ा रुपैया वैसे गलती मीडिया संस्‍थानों की भी नहीं है। भई आगे रहने का सारा खेल टीआरपी और सर्कुलेशन के मत्‍थे है। चटक-मटक नहीं दिखाऐंगे, नहीं छापेंगे तो टीआरपी और सर्कुलेशन कैसे बढ़ेगा। दर्शक और पाठक भी तो यही पढ़ना और देखना चाहता है। या यह भी कह सकते हैं कि हम दर्शक को जागरूक ही नहीं करना चाहते, मुनाफा जो लक्ष्‍य है।

काश ऐसा हुआ होता मुझे ऐसा लगता है पत्रकारिता के पतन का कारण हमारे देश का देर से आजाद होना है। सोचिए देश अगर सही तरीके से 1857 में ही आजाद हो जाता, तो जल्‍दी विकास होता, जल्‍दी बाजारवाद आता। और विकास के शुरूआती दौर में मीडिया संस्‍थानों की ऊल-जुलूल सामाग्री को पढ़कर, देख कर दर्शक और पाठक अब तक उकता चुके होते और आज इस समय हमारे पास जागरूक पाठक और दर्शकों की एक बहुत भारी खेप होती। जो विकास की खबरों में ही रूचि लेती।
ऐसे में खबरें भी विकास के मुद्दों के लिए ही होती और वे पत्रकार भी खुश रहते जो सामाजिक सरोकारों की लड़ाई के लिए ही पत्रकारिता का रास्‍ता चुनते हैं।

अंगूर खट्टे हैं, चखने को नहीं मिले तो चीखे केजरीवाल!

कहते हैं कि आदमी की औकात उसकी बोल-बच्चन से पता चला जाता है! 

सुना है आजकल अरविंद केजरीवाल चंदा मांगने दिल्ली से दूर अमेरिका प्रवास पर हैं, जहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रॉक स्टार स्वागत पर पूरा भारत ही नहीं,  जहां - जहां भारतीय बसते हैं सीना चौड़ा हो गया था! 

लेकिन केजरीवाल साब को जब अमेरिका में वैसा स्वागत समारोह तो छोड़ो कोई पूछ-तवज्जो तक नहीं मिला तो अमेरिका में अपनी औकात दिखाते हुए उन्होंने उल्टी कर दी है। 

बोले, " प्रधानमंत्रियों को मनोरंजन के लिए विदेश यात्राएं नहीं करनी चाहिए" 

इसे ही कहते हैं आदमी की औकात, जिसकी फितरत जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव पर बदलने में देरी नहीं लगती है। 

राजनीतिक में उठा-पटक तो ठीक है, लेकिन ऐसी बेहूदगी तो एक सामान्य नागरिक भी नहीं करेगा और फिर  जनाब केजरीवाल तो देश की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिशें पाल रखी थी! 

प्रधानमंत्री देश का प्रधानमंत्री होता है और विदेश में भारतीय नागरिक ही अपने देश के प्रधानमंत्री का मजाक बनाएगा तो बाहर देश की साख पर बट्टा नहीं  लगेगा? 

धिक्कार है केजरीवाल तुम पर! थोड़ी बहुत जो साख जो बची थी वो भी खत्म कर दी तुमने,  तुमने खुद पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है! 

आओ बेटा, अमेरिका से चंदा लेकर लौटो दिल्ली और मांगना दिल्ली से वोट... इस बार जनता चांटे नहीं, जूते-चप्पल से स्वागत करेगी! 

भरोसा नहीं तो पढ़िए नवभारत टाइम्स की पूरी स्टोरी-
http://navbharattimes.indiatimes.com/world/america/pms-shouldnt-go-abroad-for-entertainment-value-arvind-kejriwal/articleshow/45433374.cms

शादी क्या लड़की की जिंदगी से ज्यादा जरुरी है?

बेटी की शादी की जल्दबाजी हर मां-बाप को रहती है, जिसको वो अपनी जिम्मेदारी से अधिक मर्यादा से जोड़कर अधिक देखते हैं,  ऐसा क्यों?

काफी पड़ताल के बाद पता चला कि लड़कियों की शादी के दौरान मां-बाप वैयक्तिक व सामाजिक सुख अधिक तलाशते हैं बजाय विवाहित लड़की के सुख के!

मां-बाप लड़की के सुख के साधनों का इंतजाम दहेज और पैसे के जरिए तो कर सकते हैं,  लेकिन लड़की  की सुखों का क्या?

लड़की मां-बाप की बात मानें तो गुणवान, चरित्रवान और शीलवान और इनकार तो कर ही नहीं सकती और करने की कोशिश भी करती है तो हजार मसले हो जाऐंगे कि लड़की बेशर्म है, बददिमाग है और हाथ से निकल गई है।

मुद्दा है कि लड़कियों की शादी में मां-बाप का हस्तक्षेप कितना जरुरी है? और शादी के लिए लड़की की रजामंदी कितनी जरुरी है?

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि मां-बाप शादी से पहले बेटी की पसंद-नापसंद जानने के अलावा अमीर-गरीब के तराजू भी किनारे रख दें?

कहने का मतलब है कि बेटी की शादी किसी ऐसे होनहार, ईमानदार और मेहनती लड़के के साथ करने की कोशिश  कर सकते हैं, जिसके पास शादी  से पहले बंगला, गाड़ी और बैंक बैलेंस की  शर्तें ना लागू हो?

हर एक मां-बाप शादी के बाद बेटी को सुखी देखना चाहता है,  शायद यही वजह है कि मां-बाप बेटी की शादी के लिए दहेज बेटी के जन्म से ही जुटाना शुरू कर देते हैं, अब ये धन बेटी की मनपसंद लड़के से हुई अरेंज शादी के बाद बेटी-दामाद के भविष्य में भी सहायक ही नहीं अमूल्य साबित हो सकते हैं!

ऐसी शादियों से दो बातें बिल्कुल पक्की हो जाएंगी। पहला, दहेज अपराध शून्यता की ओर अग्रसर हो जाएंगे। दूसरा,  घरेलू हिंसा में तेजी से सुधार संभव होगा, लिख के ले लो!

सब कुछ कूंए में डाल, चला केजरीवाल CM बनाने?

पारंपरिक देसी नेताओं की नूराकुश्ती से दिल्ली को मुक्त कराने के लिए जन आंदोलन छोड़कर मजबूरी में राजनीति में आने वाले अरविंद केजरीवाल अब सत्ता ही नहीं,  मुख्यमंत्री पद के भी लालची हो चले हैं?

यही तो बात है... पारंपरिक नेता ही तो नहीं थे केजरीवाल,  जिसपर भरोसा करके लोगों ने केजरीवाल  को वोट  किया था!

क्योकि.. वो तो जन आंदोलन से निकले-उबले और हारे आम आदमी थे...जिन्हें मजबूरी में चुनाव में उतरना पड़ा था...

केजरीवाल खुद कहा करते थे कि क्योंकि बाकी सभी पार्टियों  के नेता चोर थे, झूठे थे और भ्रष्टाचारी थे, इसलिए वो  राजनीति  में  कूदे और पार्टी  बनाई?

लेकिन राजनीति में आते ही केजरीवाल खुद उसी खांचे में ट्रॉंसफॉर्म हो गए...और लालच और वोट के लिए वही करने लगे जैसे सभी देसी नेता करते हैं,  फिर हम क्यों दे तुम्हें वोट केजरीवाल?

सारा दुख और अफसोस तो इसी बात का है कि एक जन आंदोलन से निकला आदमी महज सत्ता के लिए वहीं सब कर रहा है जिनको गाली देकर वो खुद चुनाव में कूदने की मजबूरी बता रहा था?

#kezriwal #AAP #Delhi #AssemblyPoll

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कांग्रेस के बाद AAP पार्टी भी डूब गई तो क्या होगा?

मीडिया जगत में काम कर चुके एक पीढ़ी के कुछ पत्रकारों ने लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान अपनी पेशेगत निष्पक्षता और ईमानदारी को गिरवी रख तत्कालीन सरकार के पक्ष में और पीएम मोदी के विरुद्ध  माहौल तैयार करने में अपनी एड़ी-चोटी की जोर लगा रखी थी, लेकिन नतीजा शून्य रहा!

उनमें से कुछ चेहरे तो बाकायदा सामने भी आए और हम उनकी फजीहत भी देख चुके हैं, लेकिन शेष बचे ऐसे कई चेहरे अभी और भी हैं, जो मृत्यु की ओर उन्मुख कांग्रेस को छोड़ आम आदमी का समर्थन में नारे लगाते अभी भी देखे जा सकते हैं!

ये लोग आपकी आंखों के सामने रोज होते हैं टीवी की बहसों में, चैनल कोई भी बदल लो?

आपको इन्हें पहचानने में जरा भी दिमाग लगाने की जरुरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि  ये लोग इतनी फर्स्ट्रेशन में हैं कि बहस के दौरान बेसिरपैर की बातों से मुद्दे को व्यक्तिगत बना लेते हैं और ऐसे दलील देते हैं कि एंकर ही नहीं, प्रोड्युसर भी सोचने लगते हैं कि मुद्दा और एजेंडा क्या था, जिस पर वो बहस कर रहे थे?

क्योंकि उपरोक्त पीढ़ी के पत्रकार जब टीवी पर बहस करते हैं तो मुद्दे और एजेंडे कुछ भी हो, सब पीछे छोड़ अपनी पूरी एनर्जी मोदी सरकार के खिलाफ बोलने व उसकी कमियां निकालने में झोंकने लगते हैं!

फर्स्ट्रेशन इसकी नहीं है कि मोदी सरकार अच्छा कर रही है या बुरा कर रही है, बल्कि फर्स्ट्रेशन इस बात का है कि
कांग्रेस के बाद AAP पार्टी भी डूब गई तो उनका भविष्य क्या होगा?

मतलब, पत्रकारिता भी गई और राजनीति में पैर पसारने का मौका भी हाथ न आया यानी ना माया मिली ना राम!

शुक्रिया! पूजा-आरती, तुमने लड़कों को पीड़ित बना दिया?

चलो, एक बार मान भी लें कि #रोहतक की #दबंग लड़कियों ने बस की सीट के लिए लड़कों की पिटाई की होगी और जबरन #वीडियो भी बनाया होगा.. तो?

याद कीजिए, एक वो दौर जब #हरियाणा में हर दिन लड़कियों से #बलात्कार की खबरें अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियां में होती थीं और हम सोचते थे कि लड़के कितने जंगली और खूंखार होते होंगे?

लेकिन रोहतक की पूजा और आरती की कहानी बता रही है कि इन दोनों ने सड़कों पर चल रहें लड़कों के बीच कैसा खौफ भर दिया है, लड़के बलात्कार के बारे में सोचना तो छोड़ो, जान बचा कर भागने को मजबूर दिखाई दे रहें हैं?

नि:संदेह यह एक सामाजिक बदलाव है, जिसमें #पुरुष सत्तात्मक #समाज में पहली बार पुरुष को (लड़का) पीड़ित और निर्दोष के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है...यह पुरुषों के लिए हास्यास्पद है, लेकिन स्त्री समुदाय के लिए गर्व का विषय है!

यह घटना एक बेहतर सामाजिक बदलाव का द्योतक है, जिसे महिलाओं की स्थिति-परिस्थिति और उनके सुनहरे भविष्य का परिचायक कहा जा सकता है!

पहली बार ऐसा हुआ है जब लड़के गिड़गिड़ा रहें हैं और लड़कियां छाती चौड़ी करके धौंस जमाती हुई देखी जा रहीं हैं वरना किसी ने देखा था ऐसा नजारा?

टीवी चैनलों का पूरा का पूरा फ्रेम बदला हुआ है, जहां पीड़ित फ्रेम में पहले लड़कियां होती थीं वहां अब लड़के खड़े हैं और जहां लड़के खड़े होते थे आज उक्त फ्रेम में दबंग लड़कियां खड़ी हैं!

क्या नजारा है, अद्भुत-अविस्मरणीय! यह घटना अब उन सभी लड़कियों को हिम्मत देगा कि कमजोर और लाचार होकर #अत्याचार सहने के बजाय अब वो भी लड़कों को मुंहतोड़ जबाव दे सकती हैं और लड़कों को उनकी जगह दिखा सकती है!

मैं पूजा और आरती का स्वागत करता हूं और चाहता हूं कि देश की हर लड़की पूजा और आरती से प्रेरित होकर हर छेड़छाड़ और #शोषण का #प्रतिरोध करें और लड़कों के अक्ल को ठिकाने लगाए!

दो राय नहीं कि पूजा और आरती देश के लिए एक प्रेरणा बन कर उभरी हैं और दोनों ने अपने बूते लड़कों की पिटाई करके उन सभी लड़कियों को यह संकेत और संदेश दिया है कि लड़कों की #टीजिंग और #छेड़छाड़ का जबाव दिया जा सकता है!

तो लड़कियों आगे बढ़ो और हल्ला बोल दो उन लड़कों पर जो आपको अब तक परेशान करते आ रहें है या तंग करने की मंशा से आगे-पीछे मंडरा रहें है!

शुक्रिया! पूजा और आरती, तुमने जो किया है उससे पूरी नारी जगत का उत्थान और बदलाव जरूर होगा...एक बार और धन्यवाद!

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

बचपन के दिन....

बचपन के दिन और बचपन की बातें

बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
न खर्चे की चिंता न पैसे की यारी
वो गिल्ली, वो डंडा, वो बैल की सवारी। 
टोली, ठिठोली और हवा हवाई बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें। 
पड़ोसी की चाय और हलवाई की दुकान 
वो चुस्की वो मुस्की, और भौजी की मुस्कान 
भरी दुपहरी और इश्क के ठहाके 
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
सावन की रिमझिम और रसभरी बातें
जलेबी से मीठे हर रिश्ते् हर नाते
शाम की बैठक की बाटी और चोखे
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें
खेतों की मेड़ों से खलिहानों का दौर
गोरकी की चक्कर में सवरकी से बैर
भुलाए न भूले वो नहरियां के गोते
बहुत याद आती हैं वो बेफि‍क्री रातें
बचपन के दिन और बचपन की बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

क्यों नहीं खौलता युवा खून


बढ़ते भ्रष्टाचार और लोकतंत्र पर हो रहे लगातार हमलों को देख कर युवा लीडर खामोश क्योंट है, क्यों वो चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देख रहा है। आखिर इन सवालों के जबाव तलाशने की जहमत कोई क्योंो नहीं उठाना चाह रहा। आश्यआर्च होता है कि संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता महात्मां गांधी जी के मूक बंदर से ही इतने प्रेरित क्योंा हैं। युवा सांसद भ्रष्टांचार की सड़ांध पर तो मूक रहते है, लेकिन सुनने और देखने में इन्हेंं कोई आपत्ति नहीं है, शायद मजा आता हो।  अफसोसजनक बात यह है कि इन बंदरों को युवाओं का पैरोकार बताया जाता है, लेकिन इनका खून देश में फैले भ्रष्टारचार और कदाचार पर नहीं खौलता, क्यों कि मुंह खोलने का इन्हें  आदेश नहीं है। हालांकि तमाशा देखने और दिखाने की इनको छूट है। माननीय राहुल गांधी जी का तमाशा पिछले कई वर्षों से लगातार से आप देख ही रहे हैं। पूरा देश केंद्रीय सरकार द्वारा प्रायोजित भ्रष्टाहचार की दलदल में फंसा बास मार रहा है, लेकिन राहुल गांधी जी यहां मूक रहते हैं, क्योंमकि इसका कोई पोलिटिकल माइलेज नहीं है शायद। लेकिन उत्तरर प्रदेश में भ्रष्टांचार के मुद्दे पर बोलने और खून खौलाने के लिए उन्हेंू पूरी आजादी है।  यहां तक कि उन्हें  यहां कानून का उलंघन करके भी बोलने और घेराबंदी करने की इजाजत उनके आकाओं द्वारा दे दी जाती है, लेकिन वो लोकतांत्रिक तरीके से भ्रष्टातचार के विरोध में जुटे हजारों लोगों को बेदर्दी से आधी रात में खदेड़ने से नहीं हिचकिचाते हैं, तुर्रा यह है कि उन्होंटने यह कार्रवाई लॉ एंड आर्डर के खतरे से निपटने के लिए किया।   आखिर क्योंक, यह बात किसी को परेशान नहीं करती है। उत्तदर प्रदेश में भ्रष्टायचार और अपराध के विरोध में राहुल गांधी गांवों और खलिहानों तक के चक्क्र लगा रहे हैं, लेकिन वहीं राहुल गांधी केंद्र सरकार द्वारा लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर किए गए हमलों और निरीह जनता पर आधी रात में लाठी भांजे जाने पर चुप्पीव साथ लेते हैं, इस चुप्पीध की वजह शायद आप समझ ही गए होंगे।  राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री बनने की कतार में खड़े हैं, उन्हें  सोच समझ कर कीचड़ उठाना होगा और सोच समझ कर उसे सही जगह पर फेंकना होगा, ताकि राजनीतिक फायदा मिल सके। इसलिए मजबूरन सब कुछ देखने, सुनने और समझने के बावजूद, वो चुप रह जाते हैं।  अब खुद पर कीचड़ फेंककर वो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक तो नहीं पहुंच सकते। इसलिए वो उत्तिर प्रदेश सरकार पर मजबूरन कीचड़ उछाल रहे हैं, जिससे उनको और उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा मिल सके।  राहुल की निगाह उत्तसर प्रदेश में होने वाले 2012 के विधानसभा चुनाव पर है और भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाकर उनका वोट हासिल करना है ताकि विधानसभा चुनाव में पार्टी का कद बढ़ सके। पता नहीं, माननीय राहुल गांधी जी को जनता इतनी बेवकूफ क्योंि नजर आती है। राहुल इतनी जल्दीम बिहार की पराजय को भूला चुके हैं क्याब। अमेठी को छोड़कर शायद ही राहुल गांधी को कोई ठीक से जानता है, क्योंहकि कलावती जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं, जहां राहुल गांधी बगले झांकते हुए नज़र आते हैं। अब ऐसे युवा पूरे देश का नेतृत्वह कैसे करेंगे। वर्तमान समय में, संसद में 60 से अधिक सांसद युवा श्रेणी में आते हैं, जिनकी उम्र 30 से 40 वर्ष के बीच है। लेकिन किसी भी युवा सांसद में  लोकतांत्रिक हमलों और भ्रष्टांचार के विरोध में आवाज उठाने का दम नहीं हैं। पक्ष-विपक्ष में बैठे निर्वाचित युवा सांसदों द्वारा अभी तक एक भी ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे लगे कि वो सचमुच युवा नेता है अथवा युवाओं का प्रतिनिधित्व  करते हैं। युवा सांसदों का खून क्योंे नहीं खौलता, इसका कारण समझ में आता है, लेकिन क्या  आपको पता है कि इसकी असली वजह क्या  है। वजह साफ है उचित युवा भागीदारी। संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता, वंशवाद की उपज है, इनमें से अधिकांश युवा सांसदों को अपने देश की मिट्टी की असली महक तक नहीं मालूम है। ऐसे युवा लीडर जनता की जरूरतों के लिए नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिए जनता की कुटियाओं का दौरा करते हैं। जब तक इन कुटियों से लीडर नहीं निकलेंगे, यह तमाशा जारी रहेगा।  पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए कुलीन वर्ग के कुछ गंवार और अवसरवादी युवाओं को इसलिए टिकट थमाते हैं ताकि उनसे तात्काालिक लाभ मिल सके और यही मानसिकता लगभग भारत के सभी उच्चक शिक्षण संस्थाेनों में भी नजर आता है। माना जाता है कि महाविद्यालयों की कैंपस राजनीति एक संस्थाक के सुचारू संचालन को बेहतर बनाती है और यहां के माहौल युवाओं की राजनीतिक और नेतृत्वो कौशल को तेज करते हैं।  छात्र आज भी उदासीन प्रशासनों और गुंडो के बीच दबा हुआ महसूस करता है। यही कारण है कि होनहार युवा राजनीति में आने से कतराते हें, जिनसे युवाओं को उबारना जरूरी है, ताकि उन्हेंब मुख्यसधारा में लाया जा सके और देश को एक बेहतर नेतृत्वब हासिल हो सके।