रविवार, 24 मई 2015

स्कूलिंग: महंगी ही नहीं, चलताऊ भी हो गई है?

शिव ओम गुप्ता
मां-बाप के खून-पसीने की कमाई का अधिकांश हिस्सा आजकल बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो जाता है, क्योंकि चमकदार पब्लिक स्कूलों की प्रतिमाह की मोटी फीस, यूनिफॉर्म और प्रत्येक वर्ष के कॉपी-किताब के खर्चों के बोझ इतने अधिक होते हैं कि उनकी कमर टूट जाती है!

बावजूद इसके पब्लिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई के नाम पर सिर्फ और सिर्फ रोबोट ही बनाया जा रहा है जबकि बच्चों को होम वर्क के नाम पर महज रटने वाला तोता बनाया जा रहा है, जिस कारण बच्चों में मानवीय और नैतिक मूल्यों का तेजी से पतन हो रहा है!

नि:संदेह आज बच्चों को ऐसे स्कूलिंग की जरूरत है, जहां सभी बच्चों को एक मानक फीस में आधुनिक सुविधाओं से युक्त शिक्षा उपलब्ध कराई जा सके। क्योंकि अच्छी शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह जहां-तहां उग आए पब्लिक स्कूल्स बच्चों के मां-बाप का केवल आर्थिक बल्कि मानसिक शोषण कर रहें हैं।

हालात यह है कि पब्लिक स्कूल हर सत्र में बच्चों के किताबों के पब्लिकेशन बदल देते हैं, जिससे स्कूल्स महज कमाई और व्यवसाय के केंद्र में तब्दील होकर रह गये हैं। यही कारण है कि स्कूलों के पैसे उगाही वाले तमाम प्रपंचों से बच्चों का भविष्य ढूंढ़ने निकले मां-बाप का वर्तमान के साथ-साथ भविष्य भी असुरक्षित रहती है।

कैसी हो स्कूलिंग?

हमें यहां पश्चिमी स्कूलों का अनुकरण कर लेना चाहिए, जहां प्री स्कूल से लेकर हायर सिकेंडरी तक के बच्चों की किताबें स्कूलों में कभी नहीं बदलती है, जिससे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर मां-बाप को प्रतिवर्ष अवाश्यक पैसे नहीं खर्च करने पड़ते हैं।

इससे पैरेंट्स को प्रति वर्ष एक ही स्कूल में पढ़ने वाले अपने बच्चों के लिए नई किताबें नहीं खरीदनी पड़ेंगी।

यहीं नहीं, प्रति वर्ष के किताबों को सुरक्षित रखने और बच्चों को किताबों के बोझ से बचाने के लिए क्लास की किताबें स्कूल में सुरक्षित रखी जानी चाहिए। इससे बच्चों के बैग भी भारी नहीं होंगे और किताबें भी वर्ष भर सुरक्षित रहेंगी, जो दूसरे बच्चों के काम आ सकेंगी।

निजी स्कूलों द्वारा इस प्रक्रिया को अपनाने से बच्चों को अनावश्यक वजन से मुक्ति भी मिलती है और मौजूदा पास आउट बच्चों की किताबें अगले वर्ष दूसरे बच्चों के काम आ सकती हैं। इससे पैरेंट्स को बच्चों के लिए हर वर्ष किताबें खरीदने से मुक्ति भी मिल जायेगी।

हालांकि सरकारी स्कूलों में संचालित पाठ्य-पुस्तकों के साथ यह सुविधा अभी भी जरूर थीं, जहां मां-बाप पास आउट बच्चों की पुरानी किताबें ले लिया करते थें, लेकिन सरकारी स्कूलों में गिरते पढ़ाई के स्तर से गरीब भी अब अपने बच्चों को महंगे पब्लिक स्कूलों में भेजने को मजबूर हैं।

सवाल वाजिब है। सभी पैरेंट्स बच्चों के बेहतर भविष्य व शिक्षा-दीक्षा के लिए महंगे पब्लिक स्कूलों की ओर ही आकर्षित होते है, लेकिन सरकारी पहल से निजी स्कूलों के उपरोक्त पैसे कमाऊं पैतरों पर अंकुश लगाया जा सकता है।

मसलन, एक सर्कुलर के जरिये सरकार को पहल करके देश -राज्य के सभी निजी पब्लिक स्कूलों में एक मानक फी स्ट्रकचर लागू कराना चाहिए और प्रति वर्ष स्कूलों में संचालित होने वाले किताबों के प्रकाशन में मनमाने बदलाव को रोकना चाहिए अथवा पैरेन्ट्स को बच्चों के किताबों की खरीदारी से अलग ही रखना चाहिए।
यानी, सरकार को सभी निजी स्कूलों को व्यवस्था देनी चाहिए कि सभी निजी स्कूल्स ही किताबें बच्चों को उपलब्ध कराये और किताबें स्कूल में रोजाना जमा करायी जायें, जिसके लिए स्कूल्स मासिक फी ले सकते हैं।

और बच्चों को होमवर्क के लिए बैग्स में सिर्फ नोट बुक लाने का निर्देश होना चाहिए। इससे बच्चों के मानसिक और शारीरिक दबावों में कमी लाई जा सकेगी।

इस प्रक्रिया के निजी स्कूलों में लागू किये जाने निजी स्कूलों की निरंकुशता पर लगाम लगेगी और हर तबके के मां-बाप पढ़ाई के अनावश्यक बोझ से भी बचाये जा सकेंगे।

यही नहीं, ऐसे सर्कुलर से पर्यावरण सुरक्षा में भी अच्छी मदद मिलेगी। मसलन, किताबें कम छपेंगी, तो पेड़ों का दोहन कम होगा। वरना प्रति वर्ष किताबों के प्रकाशन बदलने से लाखों क्विंटल किताबें रद्दी हो जाती है।

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