शिव ओम गुप्ता |
शायद यही कारण है कि दोनों को अपना राजनीतिक वजूद ढूंढने के लिए मीडिया के कैमरे के सामने मजबूरन आना पड़ता है, लेकिन मीडिया से दूर होते ही इनका राजनीतिक वजूद फिर गायब होने लगता है और फिर वजूद की तलाश में दोनों नये हथकंडों का इस्तेमाल कर मीडिया कैमरे पर प्रकट हो जाते है।
केजरीवाल मीडिया के कैमरों के सामने बनाई कृत्रिम छवि से हीरो बन गये और दिल्ली के मुख्यमंत्री तक बन गये वरना केजरीवाल का वास्तविक चरित्र और चेहरा पिछले 100 दिनों में सभी देख और सुन चुके है और समझ भी गये हैं कि असली केजरीवाल कैमरे के आगे नहीं, पीछे बैठता है।
ठीक यही बात राहुल गांधी के साथ है। राहुल की राजनीतिक वजूद से सभी वाकिफ है, लेकिन कैमरे पर उनकी छवि तराशने के लिए राहुल को मीडिया में मुंह दिखाई के लिए बैंकाक की छुट्टी छोड़ गरीब के घर जाना पड़ता है।
समझ नहीं आता कि हमारे ऊपर ये कैसे आभासी और कैमरे वाले नेता थोपे जा रहें हैं, जिनका वजूद और चरित्र कैमरे पर कुछ और हकीकत में कुछ और ही है।
मीडिया को अब अपनी भूमिका समझनी होगी, क्योंकि वास्तविक तस्वीर दिखाने का दावा करने वाली मीडिया अब खुद आभासी होती जा रही है।
मीडिया को स्व-नियमन करना होगा और नेताओं की 'कैमरे के आगे और कैमरे के पीछे' दोनों तस्वीरों को जनता को दिखाना होगा ताकि फिर कोई केजरीवाल जैसा बहरुपिया मीडिया की तस्वीर से अपनी तकदीर न बना सके।
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