शिव ओम गुप्ता |
उनकी अक्ल का पता नहीं पर मोहतरमा शक्ल से बेहद आकर्षक व सुंदर थीं, लेकिन शादीशुदा थी। नई-नई शादी हुई थी शायद?
पतिदेव दिल्ली में ही किसी प्राईवेट कंपनी में कार्यरत थे और मोहतरमा भी नौकरी तलाश रहीं थीं, ऐसा उनकी हाव-भाव और अदा और अंदाज से साफ मालूम पड़ जाता था। दोनों साथ-साथ मेरे ही पड़ोस के कमरे में शिफ्ट हुए थे।
जो लोग मुझे जानते हैं, वो अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं अजनबियों से घुलने-मिलने में बहुत ही समय लेता हूं, अब वो चाहे लड़की हो या लड़का, कोई फर्क नहीं पड़ता, मतलब कोई जेंडर भेदभाव नहीं!
उस दरम्यान कई बार ऑफिस को निकलते और ऑफिस से वापस आते वक्त हम एक दूसरे से बात भले ही नहीं करते थे मगर नजरों से सवाल-जबाव हो जाया करते थे, लेकिन मौखिक बातचीत बिल्कुल नही?
न उन्होंने कभी पहल की और मैं तो पहल करता ही नहीं, चाहे एक नहीं, कई बरस बीत जाये। खैर एक महीने के अंतराल बाद एक दिन मोहतरमा ने सुबह-सुबह ही मेरे दरवाजे पर दस्तक दिया!
मैं अमूमन दरवाजे पर दस्तक को पसंद नहीं करता हूं, इसीलिए मकान मालिक को रुम रेंट वक्त से पहले दे आता हूं। फिर भी अगर कोई दरवाजा पीटता है तो बिना दरवाजा खोले ही निपटाने की कोशिश करता हूं ।
खट-खट की आवाज कई बार आई तो पूछ बैठा, " कौन?
आवाज आई , "मैं...मैं आपके पड़ोस में रहती हूं। मैंने दरवाजा खोला तो देखा सामने पड़ोस वाली मोहतरमा खड़ी थीं और मुझसे मेरा मोबाइल फोन मांग रहीं थी। शायद कोई एमरजेंसी कॉल करना था उनको?
उन्होंने बताया कि उनका फोन काम नहीं कर रहा है और उन्हें जरूरी कॉल करना है? मैंने फोन उठाकर दिया, लेकिन मोहतरमा को मेरे सामने ही बात करनेे की छूट दी और बात खत्म होते ही और जैसे ही उन्होंने फोन वापस दिया, मैंने दरवाजा बंद कर लिया।
यह बात आई-गई हो गई और इस बात को कुल 3 महीने बीत गये! न उन्होंने शुक्रिया कहा और न मैंने धन्यवाद किया!
मैं ऐसा ही हूं। जबरदस्ती के रिश्तों में जुड़ना पसंद नहीं है, क्योंकि आजकल के रिश्ते बहुआयामी हो गये हैं, लोग भैय्या बोलकर जिंदगी की नैया तक डूबो देते हैं, लेकिन मेरी आदत बुरी है, यह अवसर न मैं लेता हूं और न ही किसी को देना पसंद करता हूं।
वीकेंड में एक बार फिर मोहतरमा ने दरवाजा खटखटाया और अंदर से बाहर आया और दरवाजा खोला तो सामने मोहतरमा खड़ी थी।
मोहतरमा मुझसे फिर कुछ मांगने की इच्छा लेकर आईं थी, लेकिन इस बार लगा लक्ष्य भिन्न था। वो मेरे फ्लैट के अंदर की रखी व्यवस्थित चीजों को बड़े कौतुहल से लगभग घूरते हुये देख रहीं थी।
और फिर एकाएक मोहतरमा ने एक साथ दो सवाल उछाल दिये, " आप अकेले रहते हैं? आप क्या करते हैं?
परिचय पूरी होेने के बाद मोहतरमा वापस चलीं गईं और मैंने दरवाजा फिर पीटकर बंद कर लिया।
नि:संदेह मोहतरमा ने पूरे 6 महीने तक एक ही बिल्डिंग में पड़ोस में रहते हुये मेरे बारे में खूब रिसर्च कर लिया था और मुझसे किसी भी प्रकार की खतरे की आशंका और संभावना नहीं होने के प्रति आश्वश्त थीं?
अब आते-जाते, उठते-बैठते मोहतरमा से संवाद शुरु होने लगा और उनके पतिदेव भी मुझसे बातचीत करने की कोशिश करने लगे। हालांकि पतिदेव भी शुरू में संवाद में आशंकित ही रहे।
स्थिति यह हो गई कि अब मेरी टीवी और फ्रिज आधी उनकी हो गई थी और मैं भी अब दरवाजे बंद करना भूल जाता था, क्योंकि मोहतरमा जब चाहे दरवाजा खटखटाने की आदी हो गईं थी।
मैं भी खुश था वीकेंड पर दिन अच्छा गुजरने लगा था। क्योंकि वीकेंड महसूस करने के लिए मल्टीप्लेक्स में घटिया फिल्मों का अनावश्यक फस्ट्रेशन बंद हो गया था।
मोहतरमा भी खुश थीं, मैं भी खुश था और मोहतरमा के पतिदेव भी खुश थे और हम एक परिवार की तरह अगले 3 महीने रहे, बस मेरे और महिला के रिश्ते परिभाषित नहीं थे, जिसको लेकर उनके पतिदेव तो कभी-कभी मोहतरमा भी हिचक जाती थीं!
एक दिन अचानक फ्रिज से दूध निकालते समय मोहतरमा ने बात छेड़ने की अंदाज में न चाहते हुये बोलीं, "आपको मैं भैय्या बोलूं तो बुरा तो नहीं लगेगा?
मैं सवाल सुनकर बेचैन नहीं हुआ और उल्टा पूछ बैठा, क्यों क्या हुआ? पतिदेव ने कुछ कहा क्या?
मोहतरमा मुस्कराई और बोली, "नहीं ऐसा कुछ नहीं है, फिर भी अगर...मतलब हम भाई-बहन ही हुये न?
मैं गहरे सोच में पड़ गया? मोहतरमा जाने को हुईं तो मैंने रोक लिया। तुम कहती तो ठीक है, लेकिन ये आज तुम्हें क्यों सूझी?
मैंने आगे कहा, "तुम्हें रिश्ते को नाम देना है तो दे दो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है पर हम हमारे रिश्ते को दोस्ती भी तो कह सकते हैं, जिसमें भाई-बहन जैसी ही मर्यादा है और आगे भी रह सकती है।"
मोहतरमा अवाक थीं पर बेचैन नहीं! वे कुछ देर चुप रहीं और फिर बोली, " पर मेरा नाम तो आपको नहीं मालूम है?
मैं मुस्करा पड़ा और मोहतरमा वापस चलीं गईं। अब हम एक दूसरे को नाम से पुकारने लगे, न दीदी और न भैय्या?
मेरी पड़ोसन तो मुझसे भी वृहद सोच और नजरिये की महिला निकली और मैं समझता था कि एक महिला की दुनिया सामाजिक सरोकारों वाली रिश्तों तक ही सिमटी रहती है। लेकिन ऐसे बहुत कम लोग हैं जो नाम से इतर जहीनी रिश्तों से जुड़ने की कोशिश कर पाते हैं।
क्योंकि "एक लड़की और एक लड़का कभी दोस्त नहीं हो सकते?" जैसे जुमले महिला और पुरुष की दोस्ती की परिभाषा को कभी मर्यादित परिभाषित ही नहीं कर सकते?
इस बीच एक महीने सब कुछ ठीक रहा, लेकिन एक महीने बाद ही मोहतरमा पतिदेव के साथ गुड़गांव शिफ्ट कर गईं और सवाल छोड़ गईं कि पुरुष से महिला की दोस्ती कितनी ही मर्यादित क्यों न हो पर अग्नि परीक्षा से एक महिला को ही गुजरना पड़ता है।
....रिश्तों को शायद एक अदद सारगर्भित नाम की जरूरत होती है और बिना नाम के रिश्ते हमारे समाज में बेगानी और बेमानी होते हैं?
क्योंकि ऐसे रिश्तों का कोई वजूद नहीं है, जहां एक लड़का और लड़की सिर्फ दोस्त हों? और ऐसे रिश्ते भाई-बहन, ब्वॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड के खांचे से इतर भी स्वीकार्य और सम्मानित हो?
शायद इसीलिए... बदलते परिवेश और जीवन शैली में हमारे पुरातन समाजिक ताने-बाने में दरार उभरने लगे हैं, जहां आये दिन अवांछित रिश्ते अखबारों की सुर्खियां बनती हैं।
क्योंकि हमारे सामाजिक रिश्तों में दोस्ती कम, मजबूरी अधिक होती हैं, जिसमें इंसान छटपटाता है और बस छटपटाता है....
Women Men Relationship
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