शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

मीडिया वाहियात ही नहीं, बचकाना हो गई है!

यह मीडिया का क्या बेवकूफियाना है, जो केजरीवाल पार्टी नहीं संभाल पा रहा है, दिल्लीवालों को मूर्ख बनाकर सीएम की कुर्सी पर बैठकर एक-एक कर अपने ही पार्टी नेताओं को किनारे लगा रहा है, उसको पीएम पद की उम्मीदवारी के समक्ष रखना बचकाना ही नहीं, वाहियात कहा जा सकता है!

किसी को अब शंका नहीं है कि केजरीवाल जैसे व्यक्ति को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने में मीडिया प्रोपेगेंडा ने महत्वपूर्ण योगदान किया, डर है कि अगर ऐसा जारी रहा तो मीडिया अपनी बची-खुची विश्वसनीयता भी खो देगा।

#Kezriwal #AAP #Media #Agenda #Sting

रविवार, 29 मार्च 2015

विराट कोहली कहीं अगला विनोद कांबली तो नहीं?

यह विराट कोहली कहीं अगला विनोद कांबली तो नहीं निकलेगा, जिसमें अब कोई शक की गुंजाइश नहीं बची है? 

कांबली भी बहुत ही धाकड़ और विस्फोटक बल्लेबाज था, लेकिन खूबसूरत गर्लफ्रेंड/बीवी की दीवानगी ने उसे नकारा बना दिया वरना सचिन-कांबली की करिश्माई जोड़ी को कौन भूल सकता है?

हालांकि गर्लफ्रेंड/ बीवी के दीवानों की हमारे इतिहास में लंबी फेहरिस्त है! इनमें महाकवि कालीदास और तुलसीदास की कथा सर्वोपरि है।

काश! कोहली की दशा कांबली जैसी न हो? और अनुष्का में तुलसीदास और कालीदास की पत्नियों की रुह समा जाये ताकि भारतीय टीम का एक होनहार बल्लेबाज को सुरक्षित बचाया जा सके, आमीन!
#ViratKohli #AnushkaSharma #LoveAffair #WC2015 #Controversy #Girlfriend

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

केजरीवाल का दंभ और अह्म आया सामने, सहयोगियों को कहा साला और कमीना!

वाह रे केजरीवाल! एक आडियो स्टिंग में अह्म और दंभ से भरे केजरीवाल पार्टी नेता व सहयोगी योगेंद्र यादव, प्रो.आंनद कुमार, प्रशांत भूषण को कमीनपंथी की पदवी से नवाज रहें हैं और उन्हें कमीना और साला कहते हुए लात मारकर पार्टी से बाहर निकालने की बात कह रहें हैं।

यह क्या कर लिया दिल्लीवालों, ये किसे चुन लिया है आपने, जो इतना बड़ा दंभी और तमीजदार है कि गली के गुंडों की तरह बर्ताव कर रहें हैं! दिल्लीवालों आपने तो भस्मासुर को अपने सिर पर ही बिठा लिया है!

देखिये जी न्यूज पर देखिये केजरीवाल के बोल-

ये आम आदमी पार्टी है या मछली बाजार?

ये आम आदमी पार्टी है या मछली बाजार, जिसे देखो बोली लगा रहा है कितने में और कैसे बिके केजरीवाल? 

हालांकि मैं शुरू से जानता था कि यह पार्टी नहीं, एक ऐसे लोगों का समूह है जो चिकनी-चुपड़ी बातों से राजनीति नहीं, खुद को दुरूस्त करने आये थे और दूसरे की थाली में ज्यादा घी देखकर बिलबिला रहें हैं?

धन्य है दिल्ली की जनता, क्योंकि अब 5 साल तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता! क्योंकि 49 दिनों का ट्रेलर देखने के बाद 5 साल वाला फिल्म देखने के लिए जनता खुद जिद करके थियेटर में घुसीे है?

#Kezriwal #aap #YogendraYadav #PrashantBhushan #5SaalKezriwal

मंगलवार, 24 मार्च 2015

जय हो लोकतंत्र, आईटी एक्ट धारा-66A की दर्दनाक मौत!

जिस नेता के खिलाफ बोलना हो, दिल खोलकर लिखिये और बोलिये, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की उस धारा को ही रद्द कर दिया है, जिसको आधार बनाकर देश के खिलंदड़ टाइप के नेता अपना बचपना दिखाते रहे थे, जय हो लोकतंत्र!

गौरतलब है सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा -66A को पूरी तरह से रद्द कर दिया है, यानी अब सोशल मीडिया पर किसी भी नेता पर टिप्पणी करने पर किसी की गिरफ्तारी नहीं हो सकेगी।

याद होगा, अभी हाल ही में सपा के बड़के और भड़काऊ बयीनों वाले नेता ने एक 13 वर्षीय लड़के की गिरफ्तारी इसलिए करवा दी थी, क्योंकि उसने आजम खां के खिलाफ सोशल मीडिया में चल रहे एक बयान को महज शेयर किया था!

#ITAct #66A #SupremeCourt #RightToExpression

रविवार, 22 मार्च 2015

क्या आप वहीं करते हैं जो दिल कहता है, जिसकी जरुरत होती है?

मैं तो वहीं करता हूं जो जरूरत से जुड़ी होती है या जिसमें पर दिल आ जाये, वह नहीं करता जिसकी जरुरत नहीं या जिसमें दिमाग लगाना पड़े?

हालांकि मैंने देखा है कि लोग बाग देखा-देखी और दूसरों की नकल में अपनीं अधिकांश ऊर्जा और धन खर्च कर देते हैं।

मसलन, युवक-युवतियां सिगरेट, अल्कोहल और फैशन की लत दिलों और जरुरतों से नहीं, बल्कि देखा-देखी, नकल, फैशन और टशन के लिए पाल बैठते हैं?

लेकिन रिकॉर्ड कहते हैं कि 90 फीसदी युवक-युवतियां सिगरेट, अल्कोहल और फैशन को अपनी जिंदगी में दिल और जरुरत से शामिल नहीं करते, बल्कि टशन और नकल के कारण शामिल करते हैं, जबकि 5 फीसदी लोग फस्ट्रेशन और 5 फीसदी आनुवांशिकी इस नशे के शिकार होते हैं!
#Addiction #Fashion #Nicotine #Alcohol

गुरुवार, 19 मार्च 2015

Industry doesn't entertain such jerk who love to called himself a journalist?

I really fed up media, Not journalism? Media don't does job pro people, its only attached with pro market, its attached with pro benefit, not pro problem of India or people?

No No...its not true? that my eye opened now? after 10 years journey of journalism?

My eyes were open since joined this journey but don't want to make such immature statement from beginning of career, but now I'm OK with my statements.

Someone who want to change the world and wanna work for betterment for country, there were no place for them.

Because industry called media doesn't allow and entertain such jerk who love to called himself a journalist.

मंगलवार, 17 मार्च 2015

किसको मूर्ख बना रहीं हैं सोनिया गांधी एंड पार्टी?

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के दामाद रॉबर्ट वाड्रा ने कौड़ियों के भाव किसानों की जमीन हथिया ली, वो सोनिया आज किसानों की जमीन के लिए मोर्चा ले रहीें हैं? ये तो वहीं बात हुयी कि सौ चूहे खाकर बिल्ली निकली हज को?

सोनिया जी, देश की जनता ने पिछले 10 वर्षों के यूपीए सरकार में आपके और आपके दामाद के किसान प्रेम और उनके प्रायोजित कार्यक्रम खूब देखे है!

ओ भाई, क्यों बेवजह दोबारा जनता को याद दिला रहे हो, जनता को दोबारा याद आ गया तो कांग्रेस और साथ खड़ी सभी विपक्षी पार्टियों का आने वाले चुनावों में हाल बुरा होना तय होयेगा?

क्योंकि कांग्रेस के साथ खड़ी अधिकांश पार्टियां यूपीए सरकार में सहयोगी रहीं है और कांग्रेस के 10 वर्षों के पाप की पूरी भागीदार रहीं हैं?
#UPA #Congress #Scam #RobertVadra #LandScam

भूमि अधिग्रहण विधेयक के भरोसे चुनावी भूमि तलाशने में जुटा पूरा विपक्ष !

भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ संसद से राष्ट्रपति भवन तक मार्च करने वाले कांग्रेस और समूची विपक्षी पार्टियों की जमात विधेयक के लिए नहीं, बल्कि अपने वजूद के लिए सड़कों पर जद्दोजहद को मजबूर हैं?

विधेयक के विरोध में शामिल पार्टियां पिछले 10 वर्षों से देश को लूट कर खा गई कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की हिस्सा रहीं हैं।

बात चाहे वाम दल की करें या सपा, बसपा, आरजेडी, डीएमके और टीएमसी हो, सभी यूपीए सरकार के साथ गठबंधन में रहीं हैं, जो विरोध में मजबूरन इसलिए शामिल हुयीं हैं ताकि राज्यों में मोदी लहर को रोका जा सके।

जदयू की समस्या भी यही है ताकि निकट बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को किसान विरोधी बताकर किसानों का वोट हासिल किया जा सके?

सवाल है कि क्या भूमि अधिग्रहण विधेयक सचमुच किसान विरोधी है या लुट-पुट चुकी कांग्रेस व अन्य दल देश को गुमराह करके अपना उल्लू साधने की कोशिश कर रहीं हैं?

कांग्रेस और तमाम विपक्षी पार्टियों की यह लड़ाई और मार्च देश के उन किसानों के लिए कम खुद के वजूद के लिए अधिक है, क्योंकि जिस विधेयक को लेकर पार्टियां नूराकुश्ती कर रहीं हैं, अधिकांश किसानों को इसकी समझ ही नहीं है!

#LAB #LandAccusationBill #भूमिअधिग्रहणविधेयक 

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

I support banning such video viewing who spreads negativity!

I support government for banning of such documentary for public broadcast because the ban on 'India's daughter' documentary was an approach to restrict a voice of brutal face of criminals mind towards society for optimistic world.

You never be a good parents to allow your kids to watch negativity of life, parents can educate them via two way communication but freely and publicly broadcasting such negativity to everyone not positive approach.

An vedio viewing impacts are always greater then word and an immature mind will hurt hugely via negativity propaganda beyond our expectations.

Government are parents of country and they have all right to take decision and serve banned like parents, be lives in democracy..so raise your voice but don't justify yourself on sake of mass.

#BBC #Documentory #Ban #Nirbhaya #Rape #Government #Media

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

हमें लोक लुभावन नहीं, प्रगति सूचक बजट मिला है, शुक्रिया प्रभु!

रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने ऐतिहासिक रेल बजट पेश किया है। फस्ट्रेटेड विपक्ष को छोड़ दें तो पहली बार ऐसा रेल बजट पेश हुआ है, जो लोकप्रिय और परंपरागत बजट से जुदा है।

रेल बजट 2015 एक प्रगति सूचक और संकेतक बजट है, जिसमें कोई लोक-लुभावन घोषणाएं नहीं की गई हैं, बल्कि बुनियादी विकास और सुरक्षा को प्रमुखता दी गयी है।

वरना घोषणाएं तो प्रत्येक रेल बजट में रेल मंत्री करते आये हैं, लेकिन कितनों पर अमल हुए इसका किसी के पास हिसाब नहीं है।

ज्यादा दूर नहीं, पिछले 20 वर्षों में नयी ट्रेन चलाने की गयी घोषाणाओं को उठा कर देखेंगे तो पायेंगे कि रेल मंत्रियों द्वारा घोषित नयी ट्रेनों में से 1 फीसदी ट्रेनें भी ट्रैक तक भी नहीं पहुंची?

क्या आप ऐसी फिजूल घोषणाओं के आदी हो चुके है, जिसमें सिर्फ घोषणाएं हों, काम हो न हो?

भई, क्या आप घर बना कर फ्रीज, टीवी और कूलर खरीदते हैं या घर बनने से पहले खरीद लाते हैं और उसे बाहर छोड़ देते हैं?

नि: संदेह रेल बजट 2015 एक ऐतिहासिक बजट है, जिससे न भारतीय रेल में मजबूत आयेगी, बल्कि जैसा रेल हम चाहते हैं, उस ओर रेल कदम बढ़ायेगी!

लोकप्रिय और परंपरागत रेल बजट भारतीय रेल को गर्त में ही ले जाता, ऐसा नहीं करके देश को बचा लिया आपने ,शुक्रिया प्रभु!

#रेलबजट #सुरेशप्रभु #RailBudget #SureshPrabhu 

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

स्मार्टसिटी की अवधारणा विकास की एक प्रक्रिया है!

स्मार्टसिटी की अवधारणा विकास की एक प्रक्रिया है और चरणबद्ध तरीके से इसमें बिना किसी व्यवधान के होते रहना चाहिए। 

स्मार्टसिटी और बुलेट ट्रेन की अवधारणा को इसी तरह से लेना चाहिए जो व्यवहारिक ही नही, आवश्यक भी है, क्योंकि विकास हमेशा उत्तरोत्तर होता है और समानान्तर विकास की परिकल्पना बेमानी है कि जब सब एक समान हो जायेंगे तब आगे बढेंगे या कुछ नया करेंगे।

मसलन, हम मोबाइल फोन का आविष्कार तब तक ना करें, जब तक टेलीफोन सबके घर न पहुंचा दें , ऐसा सोचना और उसको मूर्तिरुप देना मूर्खतापूर्ण है।

सच्चाई यह है कि आज मोबाइल के आविष्कार ने टेलीफोन को एंटीक बना कर रख दिया है। ठीक इसी तरह स्मार्टसिटी की अवधारणा उतनी ही मौजू है, जितनी झुग्गी को तोड़कर फ्लैट निर्माण करना है ।

स्मार्टसिटी की अवधारणा का यह मतलब यह नहीं कि विकास गडमड्ड हो जायेगा, ऐसा सोचेंगे तो एअरप्लेन पर यात्रा मुश्किल हो जाती और हम बैलगाड़ी से चल रहे होते?

स्मार्टसिटी की परिकल्पना को विकास की तरह देखना चाहिए, जैसे औद्योगिक विकास के लिए ऩयी तकनीकी और कलपुर्जों को साथ लेकर चलना पड़ता है, वैसे ही स्मार्टसिटी को देखना चाहिए| एक साधारण उदाहरण से समझिए-

एक अनपढ़ किसान अपनी दिनचर्या में ईश्वर की पूजा 24 घंटे करता है, लेकिन 8वीं पास उसका बेटा 24 घंटे में से महज 2 घंटे ही पूजा करता है और बाकी समय वह खेती किसानी के कार्य के नवोन्मेष में लगाता है जबकि अनपढ़ किसान का पोता यानी 8वीं पास बेटे का बेटा, जो शहर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है वो ईश्वर को सिर्फ कुछ सेकेंड ही दे पाता है।

अब आप कैसे कह सकते हैं कि किसान, किसान का 8वीं पास बेटा और 8वीं पास बेटे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर बेटे में से कौन भगवान का सबसे बड़ा भक्त है?

भक्ति और विकास एक दूसरे के पूरक है, इंसान भक्ति में अधिक समय तब तक देता है जब तक वह अज्ञानी है और ज्ञान ही वैयक्तिक, सामूहिक और सारगर्भित विकास के लिए जरूरी है ।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

केजरीवाल साब, मॉर्निंग वॉक ही करेंगे?

केजरीवाल साब, मॉर्निंग वॉक ही करेंगे या कुछ काम भी करेंगे? आज पूरे एक हफ्ते हो गये, लेकिन न बिजली सस्ती हुई, न फ्री वाईफाई और न ही फ्री पानी पर अभी तक कोई पहल दिखी है?

हालांकि पिछली सरकार में केजरीवाल ने एक हफ्ते में ही बिजली, पानी और घूसखोरी कम करने की घोषणायें कर चुके थे?

क्या हुआ केजरीवाल साब, दिल्लीवालों को दांत खाने वाले ही दिखाये थे या दिखाने वाले?

हालांकि अभी तो आप दिल्लीवालों को यह कह कर ठेंगा भी दिखा सकते हो कि सब सिसोदिया देख रहें हैं और वहीं जबाव देंगे, क्योंकि मेरे पास कोई मंत्रालय नहीं है।

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

जीविका कमाने के लिए पत्रकारिता ?

कभी-कभी सोचता हूं कि गलत प्रोफेशन में आ गया हूं , पत्रकारिता में भी दांव-पेंच और बनियागिरी करनी होगी तो शायद ही पत्रकारिता को बतौर करियर कभी चुनता, बनियागिरी ही करता?

पत्रकारिता भी नाप-तौल करके ही करनी थी तो बनियागिरी में क्या बुराई है, बनियागिरी में कम से कम आत्मा (जमीर) पर कोई बोझ तो नहीं रहता कि जो कर रहें हैं, वह पेशेगत सही है!

पत्रकारिता करियर में पूरे 9 वर्ष का मेरा कार्यकाल काफी संघर्षपूर्ण रहा, जहां खुद (नैतिकता) के वजूद की रक्षा-सुरक्षा के लिए कईयों को उनकी औकात भी बताई है और नौकरी को लात भी मारी है।

लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि प्रैक्टिकल होना चाहिए? चिपकना नहीं चाहिए, इससे विकास रुक जाता है? सवाल है किसका विकास?

जीविका कमाने के लिए पत्रकारिता ? विकास के लिए पत्रकारिता? दोनों में से हम किसका चुनाव करते हैं? यही पत्रकारिता की दशा और दिशा तय करने वाले हैं?

मैं तो तैयार हूं, लेकिन क्या आने वाली नई जनरेशन इससे तालमेल बिठा पायेगी, जिसे उदाहरण तलाशने के लिए गूगल बाबा की शरण लेनी पड़ेगी?

क्योंकि ऐसी प्रजाति वाले पत्रकार विलुप्त होने के कगार पर हैं और कोई हैरिटेज सिक्युरिटी स्कीम भी नहीं है?
#पत्रकारिता #जर्नलिज्म #Journalism #Journalist #Ethics #नैतिकता

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

सुना है दिल्ली में स्वाइन फ्लू टेस्ट सस्ता हो गया है ?

नाशपीटे केजरीवाल, पहले तू ये इंतजाम कर दिल्ली में स्वाइन फ्लू के संक्रमण न फैले, जो कि सबसे कम है, और दूसरा कौन सा आम आदमी 4500 रुपये टेस्ट के लिए चुका सकेगा?

सच तो यह है कि आम आदमी टेस्ट के लिए 4500 रुपये खर्च करना तो दूर , जुटाने में ही ऊपर निकल जायेगा?

बकलोल, कुछ दिन ही सरकारी कैंप लगवा कर मुफ्त टेस्ट करवा लेता? वरना कुछ तो तुम्हारे वोटर्स 4500 रुपये सुनकर ही टेस्ट नहीं करवा सकेंगे?

केजरीवाल, तू खाक आम आदमी को समझता है, तुझे अगर दिल्ली वालों में महामारी स्वाइन फ्लू के संक्रमण को रोकना ही है, तो टेस्ट को फ्री कर देता ताकि आम और खास सभी तुरंत चेक करवा सके और दिल्ली को संक्रमण से अधिक सुरक्षित रखा जा सकता था?

लेकिन तू तो लगता है संक्रमण को रोकना नहीं, संक्रमण का खौफ फैलाकर लैब ऐजेंसियों को पैसे कमाने का अवसर दे रहा है, लानत है ऐसी आम आदमी सरकार पर!

#केजरीराग #मुफ्तखोर #KezriRaag #DilliWale #Freebies

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

केजरीवाल फिर बनने चला PM, सिसोदिया को सौंपा काम!

ई का हुआ...5 साल केजरीवाल तो बस जुमला बन के रह गया? ई तो 5 साल सिसोदिया हो गया।

साला फिर केजरीवाल ने दिल्ली वालों का चूतिया काट दिया, ई ससुरा केजरीवाल CM बन के राजी नहीं, इसे तो PM ही बनना है?

सुना है ससुरे ने कौनों जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया है और सारा बोझ सिसोदिया पर लाद दिया है ..

यानी सिसोदिया दिल्ली वालों को मूर्ख बनावेगा और केजरीवाल एक बार PM बनने के लिए पूरे देश को मूर्ख बनाने निकलेगा?

बहुत तरस आ रहा है दिल्ली के मतदाताओं पर... केजरीवाल ने कैसा मूर्ख बनाया ?

केजरीवाल जानता है कि वो दिल्लीवालों को किये वादों को कभी पूरा नहीं कर पायेगा इसलिए कोई मंत्रालय नहीं लिया...ताकि ससुरे पर कोई कुछ कह नहीं पावेगा और केजरीवाल खुद भी सिसोदिया को डांट कर पल्ला झाड़ते हुए दिल्लीवालों का चूतिया काट देगा!

तो दिल्लीवालों अब तो तुम्हारी लग गई, क्योंकि जिस पर भरोसा करके आपने AAP को अपने वोट दिये थे, उसने तो हाथ धो लिए और वह PM बनने फिर दिल्ली छोड़कर निकल लिया!

#केजरीवाल #दिल्ली #Kezriwal #AAP #Delhi

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

फ्री WIFI पर दिल्लीवासियों को मिला तगड़ा झटका!

फ्री WIFI की बाट जोह रहे दिल्ली वासियों को जैसे ही पता चला कि केजरीवाल 24 घंटे में महज 30 मिनट ही WIFI फ्री देगा तो देखिये दिल्ली वालों ने कैसा ठगा हुआ महसूस किया और कैसे AAP पार्टी की खिल्ली उड़ाई और उनके वादों का कैसा मजाक बनाया है।

नीचे देखिये फेसबुक पर दी गई कुछ मजेदार टिप्पणी-

"दिल्ली में मिलेगा सिर्फ 30 मिनट फ्री Wi-Fi, उसमे
भी सिर्फ Govt की साईट खुलेगी। साला छोटी गंगा बोल के नाले में कूदा दिया बे!"

"ye to abhi shuruat hai..aage aage dekho delhi valo ki lottery lagne vali hai :p

Congratulations Delhi walo, "C#utiya" kata hai :P"

"may AAPian  look .gov website for upcoming 800000 jobs for delhi people :P :P :P or vacany for teachers in 500 schools or how much water they consume in a day ..may also download their own cctv footage  for selfie from that 1500000 ctv camera :P :P :P"

"दिल्ली वालो की हालत जुदाई फ़िल्म के जॉनी लीवर जैसी हो गई !!
दुल्हन का घूंघट उठाते ही दुल्हन बोली " अब्बा डब्बा चब्बा"

"चार दिन पहले तक "15 लाख...15 लाख" चिल्लाने वाले  टोपी वाले  अब "15 लाख CCTV, 10 लाख पक्के मकान, और 8 लाख नौकरियां" सुनकर ऐसे बिलबिलाता उठते हैं जैसे उन पर किसी ने पेट्रोल डाल दिया हो ...."

"ye toh chutzpa ho gaya..! koi nai aadat daal lo this is the first one , many more to come."

"WiFi 30min, Paani 15 min Bijlee 5 min aurEntertainment 5 saal!!!! # 5saalkejribawal"

"dehli walon kejriwal tumhari keh ke lega :p"

"अभी तीस मिनट के लिए फ्री वाईफाई दे रहे हैं केजरीवाल, कल को ये भी कह सकते हैं कि मुफ्त पानी सिर्फ g.... धोने के लिए ही मिलेगा।"

"ab AAPtards ki topi par likha hoga-"मुझे चाहिए सम्पूर्ण वाई फाई"!"

"U-Turn No 1......many more to follow"

"Voting for AAP was subject to Delhiwala's risk... Please you should have read the documents (manifesto)before voting."

"Ye afwaah kaun uda raha hai...ki ghar ki chhat par jhaadu latkaane se free WiFi network milega."

"yeh lulz ho gaya dilliwalo ke sath, lekin party toh abhi suru huyi hai :D"

"Dear Aaptards, Wifi Ke baare me suna? Hahaha... kejru tum sabko C bana gaya.. #BellMuft"

"Ohh...ni de re kya koi b FREE thngz... :/ m toh dilli shift hone soch ri thi..o_O awww me. :/ :("

"Sab ko milga free me.. baba ji ka thullu.. :D"

"जिसको wifi फ़्री करना है वो जाके अपनी भैंस चराए !! :D"

"Hahaha...yeh toh 22 karat waale offer jaisi baat hogayi..
Socha 22 Karat Gold, aur mile 22 Carrots (Gajar)"

"Delhiwalas maze hain tumhare #5SaalJhelo"

"haha , lo ji aur vote karo free free free ke chakkar mein.. mila baba ji ka thullu :D"

"Ab to koi opposition v nai hai kon bachayega dlhiwalo ko ye sb torture se.....democracy ko autocracy me badal diya dlhiwalo ne.."

"Ye to hona he tha.
Waise ye adhuri khabar hai puri khabar ye hai ki.
1).Free pani milega sirf hath dhone k liye.
2).Bijali bhi free milega but sirf mobile charge karne k liye."

"C.M is angain bcome C.A
Kajriwal Condition Apply."

"Yeh toh shurwat hai dekh aage aage kaise Chutiya banata hai"

"I hope they don't give water also like this. Thirty minutes water or stay dry all day!  Aap cheat")

"Dilliwalo ye toh LOL 😁 ho gaya"

"Bhai logon itne me toh irctc ki site khulegi bhi nahi."

"अब दिल्ली की हालत उस लड़की की तरह हो गयी है, जिसे एक बेरोज़गार लड़के ने चाँद तारों के सपने दिखा कर ब्याह तो कर लिया....पर घर लाके बता रहा है कि..."......सब कुछ लाऊंगा बेबी अगर पापा पैसे देंगे तो.."
http://indianexpress.com/article/cities/delhi/aap-proposes-wifi-access-across-delhi/

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

हम तो ऐसे हैं भैय्या?

दिल्ली चुनावों का सबसे अच्छा विश्लेषण वाशिंगटन पोस्ट ने किया है, अख़बार ने लिखा है की भारत की जनता मुफ्त में हर चीज पाना चाहती है, यही कारण है की भारत में इतनी बेकारी और गरीबी है।

अखबार ने आगे लिखा है, अच्छा है कि अमेरिका में अभी यह ट्रेंड शुरू नही हुआ वरना अमेरिका दिवालिया हो जायेगा ?

अखबार के मुताबिक जैसे यूपी में एक पार्टी ने मुफ्त में लैपटॉप और सिर्फ १००० रुपये यानी आठ डालर महीने देने का वायदा करके बम्पर जीत हासिल की, तमिलनाडु में एक पार्टी में जूसर मिक्सर ग्राइंडर देकर जीत हासिल की!

अखबार कहती है कि लेकिन जनता को सोचना चाहिए कि कोई भी पार्टी यह अपने पार्टी फंड से नही बल्कि सरकारी फंड से ही देती है जो जनता के टैक्स से ही आता है!

अखबार रिपोर्ट कहती है कि यदि सरकारी खजाने से बांटे गये मुफ्त पैसे विकास कार्यो में खर्च होते तो आज भारत बहुत आगे होता?

"आप" से हारने के लिए चुनाव लड़ रही थी बीजेपी?

मुझे लगता है बीजेपी दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए नहीं लड़ रही थी और वह महज लड़ाई दिखाने के लिए लड़ाई का माहौल तैयार कर रही थी?

पार्टी केजरीवाल के संदर्भ में हमेशा से ही ढीली रही, वरना चुनाव में देरी, ऐन वक्त रणनीति में बदलाव और प्रचार कैंपेन में निगेटिविटी बीजेपी और मोदी-अमित शाह की शैली कभी रही नहीं है?

दिल्ली विधानसभा के इस चुनाव में पार्टी भली भांति से दिल्ली में ऐसे टर्न आउट की संभावना चाहती थी और उसने वोटरों को पुकारा तो जरूर पर ललचाया नहीं? यही नहीं, बीजेपी ने केजरीवाल को जानबूझ कर अंडरडॉग की तरह पेश किया? हर वो निगेटिव प्रचार-प्रसार किया जिससे केजरीवाल के प्रति जनता का ऑटोमेटिक जुड़ाव पैदा हो और हुआ!

बीजेपी ने चुनाव रणनीति और कैंपेन में जितनी तब्दीली दिल्ली विधानसभा चुनाव में की है, ऐसे उदाहरण विरले ही देखने में मिलता है? चुनाव घोषणा पत्र की विजन डॉक्युमेंट इनमें से एक है?

मतलब..बीजेपी ने लड़ाई में बने रहने के लिए साम, दाम, दंड और भेद सारे इस्तेमाल किये, लेकिन चुनाव हारने के सारे इंतजाम पहले ही कर दिये थे। (अब सवाल है कि आखिर बीजेपी चुनाव हारना क्यों चाहती थी ? इसकी चर्चा अगले लेख में करेंगे!)

क्योंकि दिल्ली की जनता ने मोदी को अंडरडॉग बनाये जाने की दशा में लोकसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 7 सीटें जितवा कर दी थी, ठीक वैसे ही मंसूबे बीजेपी ने केजरीवाल के लिए तैयार किया और केजरीवाल अब दिल्ली के सीएम बनने जा रहें हैं!

आप खुद देखेंगे, यह लैंडस्लाइड जीत केजरीवाल की नहीं ,जनता की है, जो केजरीवाल को हर हाल में सीएम बनना चाहती थी?

वरना कौन कह सकता था कि केजरीवाल एंड पार्टी 70 विधानसभा सीट में से 67 सीट जीत सकेंगे, बकवास भले कोई कर ले? हालांकि बीजेपी इतनी बुरी हार वहीं चाहती थी, लेकिन जनता का जनादेश ऐसे ही मिलता है, उन्हें याद है उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर अकल्पनीय 73 सीटों पर जीत?

कांग्रेस को छोड़िये, निर्दलीय तक को भी वोट नहीं देना, दिल्ली का एग्रेशन ही है कि कोई चांस नहीं लेना था और लैंडस्लाइड जीत बताता है कि उन्होंने किस शिद्दत से केजरीवाल को वोट किया है?

केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के जो खिलंदड़े टाइप के नेता हैं अगर इस जीत को अपनी जीत मानने की भूल करते हैं तो उनके और उनकी पार्टी के लिए यही 5 साल कब्रगाह भी साबित हो जा़येगा?

जाहिर है जीत पर इतराने से बेहतर है कि जीत की खुमारी से केजरीवाल एंड पार्टी के नेता निकले और ईमानदारी और मेहनत से दिल्ली को किये वादों को पूरा करने में सर्वस्व लगा दें ,क्योंकि वोटर किसी का सगा नहीं होता?

 #AAP #Kezriwal #Delhipoll #BJP #Modi

दिल्ली छोड़, अब पंजाब को जीतेगी आम आदमी पार्टी ?

आम आदमी पार्टी के बड़बोले नेता और कविराज कुमार विश्वास का कहना है कि पार्टी पंजाब विधानसभा का चुनाव भी लड़ेगी? 

ऐसे चाल-चरित्र के चलते पूरे देश की जनता ने लोकसभा चुनाव में पार्टी को पूरी तरह से नकार दिया था और अभी एक चुनाव जीते नहीं कि कुमार विश्वास जैसे छिछले (नेता?) कड़ाही में पड़े पकौड़े की तरह फूलने लग गये?

कविराज जी, दिल्ली की जनता ने साम्राज्य विस्तार के लिए वोट नहीं दिया है, अब भौकाल का काम गया, काम करो, जिसके लिए जनता ने सबको छोड़कर तुम्हारी पार्टी को मौका दिया है।

याद रखो...जो मुफ्त का सब्जबाग दिल्ली की जनता को तुम लोगों ने दिखाया है उसको पूरा करना पड़ेगा, वो कैसा पूरा करना है उसकी सोचो, पंजाब का चुनाव अभी दूर है?

पहले दिल्ली में किये वादे पूरी करके दिखाओ फिर कहीं और की सोचो? कुछ सांस ले लो...मियां कुमार विश्वास, बयान देने और गाली देने का वक्त निकल चुका है, अब काम करो वरना जनता आती है?
  #AAP #Kezriwal #DelhiPoll #BJP #Congress #KumarBiswas

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

Kezriwal will exposed if not able to fulfill his promises!

AAP leader Arvind Kezriwal will exposed early if he get chance to form government again and whoever voted him will shouted first if he failed to fulfill his proposed promises.

Kezriwal make lots of false promises in his election campaign that can't be fulfill under limited power and budget of Delhi territory, Because Delhi are not state, and such things people couldn't understand.

Although, It is the basic interest of democracy that such government early go down as rise who doesn't have vision. So chill out...see whatever happened at 10 February and have ready to taste of D-Democracy.

Delhi voted neither Modi nor Kezriwal ?

Delhi voters not listened Modi nor Kezriwal, they listen own and his/her soul, And voting formula was PM for Modi , CM for Kezriwal.

If you remember, In 2013 assembly election Delhi voters given support to AAP by this formula and AAP won 28 seat in debut.

Its fact, almost 90℅ youth voters are supporter of Modi who voted Kezriwal last election because youth wants modi rule center and Kezriwal rule Delhi.

Therefore don't think about Kezriwal magic behind 67 seat victory over 70 assembly seat. These figure happened only the sake of Delhi voters specific choice.

It was a stupidity to give statement, "Its defeat of Modi or BJP ? You can call this  tranmendous victory of Democracy, who runs by public and rule by public.

If anyone recall his memory they found the answer would be right!

Kezriwal himself quoted this formula in his first election campaign through own party website, where they literally wrote, "Modi for PM and Kezriwal for CM?"(Later party deleted this after controversy)

पब्लिक सिंपैथी से हीरो बने केजरीवाल?

कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने नकारात्मक प्रचार-प्रसार के जरिये मोदी कोे हरसंभव रोकने की कोशिश की और मोदी लगातार पब्लिक सिंपैथी मिलती गई और वो प्रधानमंत्री बन गये!

लेकिन बीजेपी ने कुछ नहीं सीखा और केजरीवाल के खिलाफ नकारात्मक प्रचार-प्रसार के जरिये केजरीवाल को हरसंभव रोकने की कोशिश की और केजरीवाल को भी पब्लिक सिंपैथी हासिल हो गई और वे अब मुख्यमंत्री बन जायेंगे?

सवाल यह है कि महज 9 महीनों में बीजेपी यह कैसे भूल गई कि बीजेपी को अपार जन समर्थन मोदी के खिलाफ लगातार नकारात्मक प्रचार-प्रसार से मिला था, जो उन्होंने केजरीवाल के खिलाफ वहीं करके सूद समेत वापस लौटा दिया ?

यानी बीजेपी नहीं समझी कि नकारात्मक प्रचार-प्रसार का लाभ पब्लिक सिंपैथी के रुप में विरोधी पार्टी को ही मिलता है, जैसा मोदी को मिला था!

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

तथाकथित पत्रकारों ने लूट ली पार्टी, सदमें में केजरीवाल?

7 फरवरी, 2015 यानी आज की एक बात बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ी कि दिल्ली विधानसभा का चुनाव आम आदमी पार्टी ही लड़ रही थी या कोई और?

क्योंकि एग्जिट पोल के नतीजों पर तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों का समूह केजरीवाल एंड पार्टी की तुलना में कुछ ज्यादा ही खुमारी में दिखी, जबकि टीवी स्क्रीन की विंडो से झांक रहा कोई भी AAP नेता नतीजों से उतना उछलता-कूदता नहीं दिखा जितना तथाकथित पत्रकार बिरादरी उछल रही थी...

यकीन न हो तो किसी भी नामी-गिरामी पत्रकार की फेसबुक-टि्वटर अकाउंट और टाइम लाइन पर मुंह मार आइये, सबूत वहीं बिखरे पड़े हैं!

क्या भाई, क्या चल रहा है सब? पत्रकारिता तो गिरवी नहीं रख दी आप लोगों ने, गिरेबां झांक लो अपने-अपने? या फिर राजनीति में प्रवेश का इंतजाम हो रहा है, लाइक-आशुतोष, लाइक आशीष खेतान ?

एक बात तो समझ में आती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पत्रकार बिरादरी को वो तवज्जों नहीं देते है, जैसा तवज्जों उन्हें पिछली सरकारों (कांग्रेस सरकार) में पाने की आदत मिली है? हो सकता है इससे पत्रकारों का एक तबका नाराज हो?

क्योंकि यह सार्वजनिक सच है कि दिल्ली में मोदी सरकार बनने के बाद तथाकथित नामी-गिरामी पत्रकारों की इज्जत पर बट्टा लगा है, वो इसलिए कि मोदी पत्रकारों को अधिक मुंह नहीं लगाते हैं और विदेशी दौरों पर भी उन्होंने पत्रकारों को मुफ्त की सैर पर रोक लगा दी है?

कहीं ये तो नहीं, कहीं वो तो नहीं और कहीं वैसा तो नहीं, अरे नहीं कही ऐसा तो नहीं, जिससे पत्रकार पत्रकारिता की साख पर रिवेंज का खेल तो नहीं खेल रहें हैं?

वरना बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना टाइप हमारे वरिष्ठतम पत्रकार क्यों झुम रहे होते? कुछ तो गड़बड़ है, वैसे- कब है १० फरवरी हैं, कब है १० फरवरी?

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

दिल्ली देखो, केजरीवाल को किसका मिल रहा है साथ?


1-ममता बनर्जी, जिसके आधे से अधिक सांसद 24,000 करोड़ रुपये के सारदा चिटफंड घोटाले में गिरफ्तार हो चुके हैं!

2-सीपीएम नेता प्रकाश करात, जिनकी राजनीति बांटो और राज करो की है, पश्चिम बंगाल जिसके शासन काल में गर्त में चला गया, क्योंकि ये भी केजरीवाल की तरह धरना और हड़ताल प्रधान नेता हैं!

3-नीतीश कुमार - इन्हें तो अभी भूले नहीं होंगे, जो केजरीवाल की तरह मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने के सपने के लिए राज्य की जनादेश और भावनाओं को लात मार दिया था!

4- मुलायम यादव- उत्तर प्रदेश में पिछले ढाई वर्ष के शासन काल की हालत किसी से छिपी नहीं है, बलात्कार, हत्या और अराजकता अखिलेश सरकार में कैसे बढ़ा है, सभी जानते है और महिला सुरक्षा पर मुलायम की सोच तो आपको याद ही होगी,  "लड़कों से गलतियां हो जाती है?"

ये हैं केजरीवाल के समर्थक नेता? सोचिए, ऊपर के इन चारो नेताओं का साथ केजरीवाल को क्यों मिला?

भई, इनकी कुंडली कहीं न कहीं एक है, ये चारो नेता स्वार्थी, अराजक, धरनेबाज, घोटालेबाज है और प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले ही नेता हैं? इनका विकास और देश की तरक्की से कुछ लेना देना नहीं है बस अपना विकास और तरक्की ही इनका प्रमुख एजेंडा है?

उदाहरण के लिए, नीतीश कुमार ने बिहार का मुख्यमंत्री पद छोड़कर मुलायम और लालू का दामन इसलिए पकड़ लिया, क्योंकि नीतीश प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं?

ममता बनर्जी लोक सभा चुनाव और बाद में मोदी विरोधी इसलिए बनी हुई हैं, क्योंकि उन्हें भी प्रधानमंत्री बनना है?

मुलायम यादव ने उत्तर प्रदेश को भले ही पुत्तर प्रदेश बना दिया है, लेकिन प्रधानमंत्री न बन पाने की कसक दिन रात उन्हें परेशान करती है और अभी तो उन्होंने महागठबंधन भी खड़ा किया है, महज प्रधानमंत्री बनने के लिए, जो प्रदेश नहीं संभाल सके वे देश संभालने का सपना देख रहें हैं?

एक लाइन में कहें तो केजरीवाल के समर्थक नेताओं में काफी समानताएं है, जो राजनीति में तकरीबन एक जैसी राय रखते हैं और ठीक भी है, भई दो स्वभाव के लोग एक साथ थोड़े ही बैठेंगे ?

अब दिल्ली की जनता आप खुद ही तय कीजिए कि केजरीवाल को वोट देकर दिल्ली को पश्चिम बंगाल बनाना है या बिहार बनाना है अथवा उत्तर प्रदेश ?

 #AAP #Kezriwal #DelhiPoll #BJP #KiranBedi #NitishKumar #MamtaBenerjee #MulayamYadav #SardaScam

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

AIB रोस्ट के विरोधी खुलेआम कबीरा रस लेकर गाते है?

मुझे #AIB roast पर मचा घमासन निहायत ही बेतुका लगता है, कोई भी ग्रुप में एक बंद कमरे में बैठकर बिना किसी को एक्सप्लॉइट किये कैसे भी भाषा में बात व मजाक कर सकता है, खुलेआम सड़क पर तो ऐसा कुछ नहीं किया गया, प्रोग्राम का लाइव प्रसारण तो नहीं किया गया? 

"कबीरा " का नाम सुना है आपने, जो होलिका दहन के बाद गाया जाता हैं,  किसी को मालूम है क्या होता है कबीरा?

#कबीरा, ऐसा लोक गाना है जिसे होली त्योहार में होलिका दहन और बाद में नशे और भांग में धुत लोगों की टुकड़ी खुलेआम गली - गली के हर परिवार के मुंह पर ऐसी - ऐसी कच्ची-पक्की गालियां देते हैं कि शर्म से चेहरा लाल हो जाती है, लेकिन उसे सामाजिक मान्यता है,  तो AIB पर दोहरा मापदंड क्यों, संस्कृति बिगड़ने का रोना क्यों?

#AIB रोस्ट तो फिर भी ठीक है, जो बंद कमरे में की गई, जिसे लाइव भी नहीं दिखाया गया, फिर हाय तौबा क्यों?

#AIB रोस्ट शो के वीडियो यू ट्यूब पर डाले जाने का विरोध क्यों हो रहा है, जबकि 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी अवैध अकाउंट के जरिये पोर्न फिल्में दबाकर देख रहें हैं, उसका क्या?

#AIBRousterControversy #KaranJohar #ArjunKapoor #RanveerSingh
#Kabira 

क्या मोदी सरकार से आहत हैं न्यूज चैनल कारोबारी?

शिव ओम गुप्ता
अनायाश ही ऐसा भरोसा होता जा रहा है कि खासकर ब्रॉडकॉस्ट मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के लगातार विस्तार से आहत ही नहीं, छटापटा सी रही है? 

मैं वजहों में नहीं जाते हैं , लेकिन टीवी मीडिया एक और राज्य में बीजेपी की सरकार बनता नहीं देखना चाहती है और केजरीवाल के पक्ष में एक एजेण्डा बनाने में मर-खप रही है, जो कतई मीडिया का काम नहीं है, और अगर है भी तो सबसे निचले दर्जे का काम है!

टीवी की घबड़ाहट और छटपटाहट की कई वजहें यहां गिनाई जा सकती हैं, जिनमें प्रमुख हैं मुद्दों की कमी और  24x7 का समाचार चैनल?

मीडिया धंधे (जगत) से जुड़े कई बड़े तबकों का मानना है कि अगर दिल्ली में भी मोदी नीत बीजेपी की सरकार बन गई तो समाचार चैनलों का सारा मसाला खत्म हो जायेगा अथवा समाचार चैनल्स बिना चीनी की फीकी चाय होकर रह जायेंगी?

शायद इसलिए ज्यादातर टीवी मीडिया सीधे-सीधे दिल्ली में बीजेपी को हारती हुई और केजरीवाल की पार्टी को जीतते हुए बतलाने को मजबूर हैं?

क्यों? सवाल अच्छा है, क्योंकि मोदी के सत्ता में आते ही जिस तरह से मीडियाकर्मियों की आवभगत में कमी आई है, वैसा पहले कभी किसी भी सरकार के कार्यकाल में नहीं हुआ?

दूसरे, मोदी के दिल्ली पधारने के बाद से ही मीडिया की विभिन्न मंत्रालयों की मलाई खाने और मसालेदार खबरें पाने के स्रोत भी सूखते गये है!

क्योंकि मोदी खुद ही नहीं, अपने सभी मंत्रालयों के मंत्रियों को भी मीडिया से एक निश्चित दूरी और पत्रकारों से निकटता कम रखने की सलाह दी है, जिससे टीवी मीडिया का पसंदीदा और प्रिय न्यूज बीट "मसाला न्यूज" बुलेटन से पूर्णतया विलुप्त हो चुका है!

मसालेदार खबरों का टीवी मीडिया में ऐसा नाता है कि जैसे जल बिन मछली,  लेकिन  मोदी के बाद चैनलों  में मसालेदार खबरों का ऐसा टोटा है कि टीवी पत्रकार ही नहीं, टीवी चैनलों के मालिक भी हैरान-"परेशान हैं कि करे तो क्या करें?

ऐसे में केजरीवाल को मोदी से ऊपर बताने और दर्शाने का खेल हो रहा है, और देखा जाये तो यह टीवी मीडिया की मजबूरी भी है!

भई, हर प्रदेश में मोदी नीत बीजेपी की सरकार सत्ता में आ गई तो धंधा तो चौपट हुआ समझो? भाई मसालेदार खबर कैसे मिलेंगे?

क्योंकि ज्यादातर टीवी न्यूज चैनलों का कारोबार ही मलाईदार और मसालेदार खबरों पर चलता है, क्योंकि भारतीय न्यूज चैनल विकास और सकारात्मक खबरों से नहीं चलती हैं, इन्हें हर पल मसालेदार ब्रेकिंग न्यूज चाहिए, जिसे सेन्सेनलाइज करके परोसा जा सके और ज्यादा से ज्यादा टीआरपी हासिल किया जा सके!

इन सब के बीच में पत्रकारिता और नौतिकता तेल लेने जाती है तो जाये तेल लेने, इनकी बला से!

छोटा सा उदाहरण-एबीपी न्यूज चैनल-नील्सन ने 26 जनवरी, 2015 के दिल्ली सर्वे में कुल 70 विधानसभा सीटों पर किए तथाकथित सर्वे के आधार पर बीजेपी को 37-40 सीटों पर जीतने का अनुमान किया और क्रमश: आप और कांग्रेस को दूसरी और तीसरी पार्टी घोषित किया!

लेकिन 2 फरवरी ,2015 को किये दूसरे सर्वे में एबीपी-निल्शन सर्वे में बीजेपी को दूसरे नंबर ढकेल दिया गया और आप पार्टी को पहले नंबर पर ठेल दिया,  एबीपी-निल्शन ने आप पार्टी को 39-42 सीट और बीजेपी को 29 सीटों पर सिमटने का शिगूफा छोड़ दिया!

लेकिन 2 फरवरी ,2015 को किये एबीपी-निल्शन सर्वे में से एक बात दर्शकों से बेहद ही चतुराई से छुपा ली गई,  वो यह कि 2 फरवरी के सर्वे में दिल्ली विधानसभा के केवल 35 सीटों पर सर्वे किये गये और 35 सीटों के आधार पर ही आप पार्टी को 39-42 सीटें दे दी गई और बीजेपी की सीटें घटाकर 29 कर दी गई?

समझिये, एबीपी-निल्शन और ऐसे ही उन तमाम न्यूज चैनलों के सर्वे की ही तरह, जो निजी हितों के लिए दिल्ली की जनता को गुमराह कर रहें हैं और संविधान के चौथे स्तंभ का जनाजा निकाल रहें हैं!

#TvMedia #AAP #Kezriwal #DelhiPoll #BJP #KiranBedi #Modi #MediaEthics 

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

फर्जीवाड़े से नाराज हुआ केजरीवाल का मजबूत वोटर वर्ग!

आम आदमी पार्टी के हवाला और मनी लांन्ड्रिंग कारनामे से केजरीवाल को उन वोटरों से हाथ धोना पड़ेगा, जिनके बलबूते केजरीवाल दिल्ली की कुर्सी पर बैठने का सपना देख रहे थे!

 2 करोड़ रुपये के फर्जी वाड़े का सर्वाधिक नुकसान केजरीवाल को हुआ है, क्योंकि फर्जी वाड़े वाली सारी कंपनियां उन्‍हीं के मजबूत वोटरों की झुग्गी-झोपड़ी में स्थित है,  जहां पर पिछले दो दिनों से रिपोरेटरों ने खाक छानी है?

इससे केजरीवाल के मजबूत वोट वर्ग काफी नाराज हुए है और केजरीवाल के खिलाफ हो गए हैं और कह रहें हैं कि केजरीवाल ने उनकी इज्जत उछाल दी है!

क्योंकि जिन पतों पर फर्जी कंपनियों के नाम दर्ज है, वहाँ रह रहे मकान मालिक रिपोरेटरों के सवालों से आहत हैं और बेहद अपमानित महसूस कर रहें हैं, क्योंकि मीडिया वाले उनसे 50 लाख रुपये का हिसाब पूछ रहें हैं? 

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

देश के लिए विध्वंशकारी है केजरीवाल की राजनीति!

केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में ऐसी गंध फैला दी है कि राजनीति में सुचिता और नौतिकता जो बची है वो भी चौपट हो जायेगी।

किसी भी देश के राजनीतिकों में वसूल और नैतिक मूल्‍य खत्म हो जाये तो उस देश का पतन भी शुरू हो जाता है, जैसा कि पड़ोसी मुल्क में हुआ है,  जहां की जनता राजनीतिकों और दहशतगर्दों के बीच हमेशा बंटी रहती है और देश बर्बाद हो जाता है?

कुछ ऐसी ही तरह की राजनीति केजरीवाल टाइप का मकौड़ा कर रहा है,  वह दिन दूर नहीं जब भारतीय राजनीति में भी सुचिता और नौतिकता खत्म हो जायेगी,  जिसके दोषी और जिम्मेदारी सिर्फ देश के वोटर्स होंगे।

हमारे देश में राजनीतिक कैसे भी हों,  लेकिन उनमें लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमी है। भारतीय इतिहास की अब तक सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दलों में सुचिता और नौतिकता हमेशा जिंदा रहती हैं, लेकिन केजरीवाल ने ऐसी अराजक, झूठ और आरोपों वाली राजनीति शुरू की है जो नौतिकता और वसूलों आधारित राजनीति को ध्वस्त कर रही है ।

भारतीय लोकतंत्र और भारतीय राजनेताओं (जिनमें AAP को छोड़कर सभी पार्टियां शामिल हैं) की एक खूबसूरती और पहचान रही है कि चुनाव में मिली हार को स्वीकारने में वे देर नहीं लगाते, भले ही किसी पार्टी की सरकार 10 वर्ष या 15 वर्ष सत्ता में क्यों न रही हो,  साफगोई से हार स्वीकार करते हैं और सत्ता छोड़कर चुनाव जीतने वाले दूसरे दल को सत्ता सौंप देते है!

लेकिन केजरीवाल की अराजक और नौतिकता विहीन राजनीति को देख सुनकर डर लगता है कि अगर राजनीति से नौतिकता और सुचिता खत्म हो गई तो भारत और पड़ोसी मुल्क की राजनीति में अंतर खत्म हो जायेगा?

अब देश की जनता को तय करना है कि वो कैसा देश और राजनीतिक चाहते है, क्योंकि केजरीवाल की राजनीति में नौतिकता, सुचिता और वसूल छोड़कर कर सब-कुछ है, चुनाव आपको करना है कि आपको कैसा देश चाहिए?

क्योंकि केजरीवाल की राजनीतिक गंदगी देश में ऐसा जहर फैला रही है, जिससे कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रह पायेगा!

सत्ता पाने के लिए,  वोट पाने के लिए और मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए केजरीवाल भारतीय राजनीति में ऐसे बीज रोप रहा है, जिसमें निराधार झूठ, आरोप और छल  हैं, जो देश को गर्क में ही ले जायेगा!

सोचिये,  अगर राजनीति में नौतिकता, सुचिता, वसूल और शर्म खत्म हो गई तो भारतीय राजनीति का कैसा विद्रूप चेहरा हो सकता है, जो भारत को पाकिस्तान भी तब्दील कर सकता है?

पाकिस्तानी राजनेताओं की हैसियत कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है, वहां की जनता पार्टियों को वोट तो जरुर देती है लेकिन देश की बागडोर कई लोगों के हाथ में बंटी रहती है?

तो कैसा देश चाहते है आप? अराजक पसंद और झूठ फैलाकर राजनीति करने वाले केजरीवाल की राजनीति नि:संदेह देश के लिए विध्वंशकारी है, निर्णय वोटर्स को करना है, क्योंकि देश के वोटर्स ही देश का मुस्तकबिल बनाते है, चाहे वो अच्छा हो या बुरा?

#केजरीवाल #AAP #KEZRIWAL #DelhiPoll

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

कांग्रेसी क्यों भस्मासुर की तरह व्यवहार कर रहें हैं?

कांग्रेसी नेता उस भस्मासुर की तरह व्यवहार कर रहें हैं जो खुद को ही अंतत:भस्म कर लेता है। मोदी सरकार के विरोध वो जो कुछ भी करते हैं वो उनके खिलाफ जाते हैं।

कांग्रेस के एक से एक बुद्धजीवी नेता ऐसे फस्ट्रेशन वाले मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं जो फिजूल हैं, उनकी बातें सुनकर ऐसा लगता है कांग्रेसी नेताओं ने भस्मासुर वाला हाथ खुद के सिर पर रख लिया हो और पूरी तरह से भस्म होने को तैयार हैं ?

सच कहूं तो कांग्रेस मुक्त भारत के लिए कोई और कांग्रेसी नेता ही काफी जिम्मेदार हैं, इन्हें किसी और की जरूरत ही नहीं है!

मतलब, क्या बोलना चाहिए, किस पर बोलना चाहिए इसकी भी अक्ल नहीं है। राहुल गांधी (पप्पू) कह रहें हैं कि अमेेरिकी - भारत संबंध केवल मोदी की पर्सनल पीआर करते हैं, हद है पप्पूगिरी की,  तो भाई तू भी कर लेता?

उधर, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अमेेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा को बराक कहने पर लोग रो-गा रहें हैं। भई, दो राष्ट्र प्रमुखों का अपना कंफर्ट लेबल है तो वो कैसे भी बात करेंगे उन्हें तय करने दें!

बराक ओबामा के तीन दिवसीय दौरे में हजार अच्छी बातें और करार हुई, लेकिन ये उसकी बातें नहीं करेंगे, क्योंकि इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करनी पड़ेगा, लेकिन ऐसा न करके कांग्रेसी नेता फिजूल की बातें कर रहे हैं, जो गैर जरूरी ही नहीं, वाहियात भी है!

#Congress #NAMO #Modi #Obama

आचार संहिता का लगातार उलंघन: केजरीवाल का कोई स्केप प्लॉन तो नहीं है?

केजरीवाल लगातार चुनावी आचार संहिता का उलंघन कर रहे हैं, "पैसा सबसे लो और वोट AAP को दो" के खिलाफ शिकायत होने के बावजूद केजरीवाल नहीं रुके और दूसरे दिन भी लोगों से यही बात दोहराई!

अभी दिल्ली बीजेपी की मुख्यमंत्री उम्मीदवार किरण बेदी को अवसरवादी* और खुद को ईमानदार* ठहराने वाले पोस्टर बतलाते हैं कि केजरीवाल आसन्न पराजय से भयभीत तो जरूर हो गया है और लगातार चुनाव आयोग की अवमानना कर रहा है!

कहीं केजरीवाल भागने की फिराक में तो नहीं है,  क्योंकि लगातार चुनाव आयोग चेतावनी दे रहा है और केजरीवाल लगातार मनमानी कर रहा है और आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रहा है?

आज एक बार फिर चुनाव आयोग ने केजरीवाल को आचार संहिता उलंघन करने के लिए चेतावनी दी है? क्या यह केजरीवाल का स्केप (Escape plan) प्लॉन है, जिससे उसकी उम्मीदवारी रद्द हो सके और वह दूसरों पर आरोप लगाकर किनारे लग सके?

हालांकि अराजक केजरीवाल से ऐसी उम्मीद की जा सकती है, उदाहरण सबके सामने है! चाहे पीएम की कुर्सी के सीएम की कुर्सी छोड़कर बनारस भागना हो अथवा पिछले गणतंत्र दिवस पर धरने पर बैठना और खुद अराजक बताना हो?

आइए, देखते हैं आगे होता है क्या? इतना तो पक्का है केजरीवाल नहीं मानने वाला, क्योंकि अराजकता और भागना दोनों केजरीवाल के स्वभाव में है!

नि:संदेह केजरीवाल के लक्षण बता रहे हैं कि वो भागेगा और नहीं भागा तो अराजकता लगातार जारी रखेगा, परीक्षा यहाँ चुनाव आयोग की होगी कि वो कितने क्षमाशील और सहनशील होते हैं?

चूंकि केजरीवाल को दोनों में लाभ होगा! उसकी चिट भी सही और पट भी सही होगी, भई छोड़कर भागने के लिए कोई तो बहाना होना चाहिए,  हैं जी!

#केजरीवाल #दिल्लीचुनाव #पराजय #AAP #Kezriwal #DelhiPoll #BJP #EC

हाजमा खराब हो गया है तो पखाना चले जाएं प्लीज?

पिछले तीन दिनों बड़ी ही ऊहापोह में रहा, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खासकर सोशल मीडिया में लिखी गयी टिप्‍पड़ी तलाशने में बड़ी ही माथा-पच्ची में बीता।

हालाँकि कुछ खास नहीं मिला, क्योंकि लोगों को कहने को कुछ मिला नहीं,  क्योंकि पीएम मोदी न केवल नागरिक एटमी डील साइन करवा ने सफल रहे बल्कि सब कुछ उम्मीद से बेहतर ही जा रही है।

लेकिन नकारात्मक प्रवृत्ति के लोग कहां मानने वाले? अजी पेट में मरोड़ में जो है! खबर है लोगों को पीएम मोदी की जोधपुरी जैकेट मे प्रिंटेट नाम और अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा की चिउन्गम से राहत मिली है?

वामपंथी और चरमपंथियों विचारधारा टाइप के लोग इसमें अधिक सक्रिय हैं, जिन्हें पिछले तीन दिनों से कुछ लिखने-कहने को मनमुताबिक कोई मैटेरियल नहीं नसीब हुआ था?

मत पूछो, अब आलम यह है कि फेसबुक-टिवटर में पू-पो और फुस्स - फस्स की दुर्गंध इस कदर फैली हुई है कि हालत खराब है!

भाई लोगों हाजमा खराब हो गया है तो पखाना चले जाओ, सोशल मीडिया और हमें प्लीज बख्श दो!

#मोदी #मीडिया #फेसबुक #Modi #Media #Facebook #Fart

सोमवार, 26 जनवरी 2015

बेटे को 5 साल तो दे दो ताकि...

शादी जिंदगी का एक पड़ाव है और हर एक की जिंदगी का महत्व पूर्ण हिस्सा भी है, लेकिन इसमें की गई जल्दबाजी दो जिंदगी को अनाश्यक दुश्वारियों में ढकेल देती है,  जिसके फलस्वरूप मानसिक और शारीरिक बीमारियां जन्म लेते हैं,  जैसे-समय पूर्व बाल झड़ना,  बालों की सफेदी और चिड़चिड़ापन एवं तोंद निकलना प्रमुख हैं।

बात निकलेगी तो दूर तक जायेगी?

सच कहूं तो मैं चाहता भी यही हूँ, क्‍योंकि हमारा समाज युवकों की शादी को लेकर बेहद लालायित और दीवाने होते हैं।

गांव - जवार, नाते-रिश्ते और आस-पड़ोस के कुंवारे लड़के और लड़कियां इनकी आँखों को खटकते हैं, युवक की नौकरी लग चुकी हो तो जैसे इनकी छाती पर साँप लोटने लग जाते हैं कि फलाने उसकी शादी क्यों नहीं कर रहें?

कुछ नहीं तो ७५ रिश्ते खुद लेकर पहुँच जायेंगे(नेकी कर दरिया में डाल शैली में) और तब तक बेचैन रहते हैं जब तक शादी की चेन न बंधवा दें!

ये तो रही सामाजिक बात अब कुछ वास्तविक हो लेते हैं- माने, हम-आप बोझ उठाने से पहले खुद की बोझ उठा पाने की क्षमता का परीक्षण जरूर करते हैं, लेकिन शादी से पहले युवक की जिम्मेदारियों के उठा पाने की क्षमता के परीक्षण के लिए वक्त क्यों नहीं दे पाते?

भैय्या,  नौकरी सरकारी हो या निजी(प्राइवेट),  दोनों नौकरियों को करने,  सीखने और पारंगत होने में वक्त तो लगता है? सीधे कहूं तो नौकरी पा लेना और नौकरी करना आना में जमीं - आसमां का अंतर होता है?

युवक की नौकरी देखी, मोटी तनख्वाह देखी और ढूँढने-बताने लगे रिश्ते,  कहीं रिश्ता हाथ से निकल न जाये,  फिर चाहे शादी के बाद वो ही युवक मां-बाप के हाथ से ही क्यों न निकल जाए?

नौकरी लगते ही शादी होने से युवकों को दोहरी जिम्मेदारी का भार झेलना पड़ता है, प्राइवेट नौकरी है तो उसे नौकरी बचाये रखने के लिए नियोक्ता की जरुरी - गैर-जरुरी सभी शर्तों के साथ नौकरी करनी होगी।

जबकि सरकारी नौकरी वाले युवक को नौकरी के शुरू के २ साल तो डिपॉर्टमेंट के अपर-सब ऑर्डिनेट और लोअर-सब ऑर्डिनेट को समझने, झेलने और गुस्से से बचने में नौकरी करनी पड़ती है, जिसका गुस्सा वह अपनी पत्नी पर निकालेगा, क्योंकि वह पत्नी की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए ही सारे शोषणों को झेल रहा है, ऐसे में युवक या तो पत्नी का पति रह सकेगा अथवा मां-बाप का बेटा?

युवक नि:संदेह पत्नी की सुनेगा तो 'जोरू का गुलाम'और मां-बाप की सुनेगा तो 'दूध पीता बच्चा' कहलाता है? इसीलिए वह मां-बाप के हाथ से निकल जाता है और दुनिया कहती है कि युवक नाकारा निकला?

वैसे, कई बिरले जोरू का गुलाम और दूध पीछा बच्चा टैग को सीरियसली ले लेते हैं और बीच (मध्यम मार्ग) का रिश्ता निकलने की कोशिश करते हैं तो मां-बाप और पत्नी दोनों ओर से हमला जिंदगी भर झेलने को अभिसप्त होते हैं,  जिससे वे जल्दी ही मानसिक रोगी भी बन जाते हैं!

चूंकि मां-बाप को शादी के बाद भी वही आज्ञाकारी बेटा चाहिए और शादी के बाद पत्नी को भी आदर्श पति चाहिए, लेकिन 'आज्ञाकारी' और 'आदर्श पति' के दोराहे से गुजरता युवक हमेशा यही सोचता है कि काश! कोई हाइवे होता,  जहाँ से निकल भागता पर वह नहीं निकल पाता,  क्यों? वो तो आपको भी पता ही है! ⛄🍼

एक क्षेत्रिय अखबार का अनुभव: जैसे आत्मा बिना शरीर!

पिछले कुछ एक दिन एक क्षेत्रिय अखबार के दफ्तर में गुजरा, अनुभव बेहद ही खराब रहा?

हालांकि ऐसी आशंका ही नहीं, भरोसा भी था कि कुछ ऐसा ही नजारा मिलेगा और हुआ भी ऐसा!

मैंने देखा, क्षेत्रिय अखबारों के दफ्तरों में पत्रकारिता और पत्रकारिए धर्म दोनों के मायने जुदा होते हैं, मतलब यह है कि क्षेत्रिय अखबार में काम करने वाले पत्रकार सरोकारी और नैतिक पत्रकारिता से उतने ही दूर रहते हैं जैसे ?

क्षेत्रिय अखबारों की प्राथमिकता और प्रसांगिकता भी समझ से परे होते हैं, बिल्कुल मैकेनिकल? क्योंकि उनका झुकाव जन सरोकार से हमेशा इतर होता है और उनके कलम और कॉलम प्राय: जरूरतंमंदों के लिए नहीं, बल्कि वैयक्तिक जरुरतों के लिए अधिक जगह घेरते हैं।

मैंने यह महसूस ही नहीं किया बल्कि व्यक्तिगत रूप से देखा भी है, और सोच रहा हूँ कि ऐसे क्षेत्रिय पत्रकार साथी कैसे सरोकारी पत्रकारिता करते होंगे जब वो स्थानांतरित होकर राजधानी में पहुंचते होंगे?

हालांकि पत्रकारिता भी अब कॉरपोरेट और कारोबारी हो चली है, लेकिन आत्मा अभी यहां जिंदा है और उन्मुखता भी उसी ओर दिखती है पर क्षेत्रिय पत्रकारिता और पत्रकारों में विचित्र बीज रोपे जाते हैं, जो अफसोस जनक है।

मैंने हमेशा क्षेत्रिय स्तर की पत्रकारिता से दूरी बनाये रखने की कोशिश की और भविष्य में चाहूंगा कि क्षेत्रिय पत्रकारों में पत्रकारिए धर्म को विकसित करने के लिए एक ऐसी संस्था बनाये जो नौकरी से पूर्व एक क्रैश कोर्स के जरिए पत्रकारिता के छात्रों में सरोकारी पत्रकारिता की गुण धर्म विकसित कर सके !

मोदीजी एक नियामक संस्था जरूरी है?

मैं चाहता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी एक ऐसी निगरानी और नियामक संस्था विकसित करें जो रोजमर्रा की जरूरत की सामग्रियों की बिक्री दरों की निगरानी और नियमन का कार्य संभाले!

क्योंकि दुकानदार घटती लागत के बावजूद बढ़ाई कीमतों को वापस लेने से कतराते हैं जबकि जरुरी चीजों के मूल्‍यों में मामूली वृद्धि से भी कीमत बढ़ाने से गुरेज नहीं करते?

जरूरत है एक ऐसी स्वतंत्र नियामक संस्था की जो बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध सामग्रियों की कीमतों की मनमानी पर रोक लगाए और लागत के आधार पर उनकी बिक्री सुनिश्चित करे और चरणबद्ध तरीकों से उनके मुनाफे की सीमा का निर्धारण भी करे!

पिछले 7-8 माह में देश की खुदरा और थोक मूल्‍यों की महंगाई दरों में निरंतर गिरावट दर्ज हुई है बावजूद इसके दुकानदार पुराने बढ़ाये मूल्‍यों पर ही सामानों की बिक्री कर रहें हैं और घटती महंगाई दरों का लाभ अकेले दुगना-चौगुना करके डकार रहें है,  जिन्हें आज रोकने वाला कोई नहीं है?

मोदी सरकार को ऐसे सभी दुकानदारों पर नकेल कसने के लिए एक नियामक संस्था विकसित करनी चाहिए, जिससे दुकानदारों की मनमानी मुनाफाखोरी बंद हो और घटती महंगाई दरों का लाभ आम लोगों को भी हो?

जो समोसे 6 रुपये में दुकानदार बेचते थे उन्होंने महंगाई के नाम पर समोसे की कीमत बढ़ाकर 10 रुपये प्रति तो कर दिये, लेकिन महंगाई दरों में जारी गिरावट के बाद भी आज वे समोसे 10 रुपये में ही बेच रहे है,  इनकी मनमानी कौन रोकेगा ?

कौन इन्हें घटती लागतों के बीच चीजों की कीमतों में कमी लाने के लिए रेगुलेट करेगा,  क्योंकि अभी तक कोई ऐसी संस्था वजूद में ही नहीं है, जो इन्हें लागत के मुताबिक चीजों की कीमतों के घटाने-बढ़ाने और स्थिर  रखने की कोशिश कराती दिखती हो?

#महंगाई #कीमत #दर #नियामक #संस्था #Inflation #Regularlybody #ModiGovernment #NarendraModi #NAMO

फेमनिस्ट या लंबरदार : कोई आईना दे दो भाई!

वो जो अपने घरों में पत्नी को बगैर वेतन की नौकर और बेटी को बोझ मानते/समझते हैं, ऐसे लोग आजकल फेमनिस्ट के लंबरदार बने फिर रहे हैं? 

प्रधानमंत्री मोदी के पत्नी त्याग पर मुंह खोलने वाले ऐसे घड़ियालों को नहीं पता है कि दुनिया ऐसे दर्जनों हैं, जिन्होंने सामाजिक और धार्मिक हितों के लिए स्वैच्छिक   रुप से ऐसा रास्ता चुना, जिसको बाद में ने केवल मान्यता मिली बल्कि सिरोधार्य किया गया!

लेकिन क्षणिक चर्चा में आने के लिए अथवा महज विरोध के लिए विरोध करने वाले बुद्धिहीनों पर केवल तरस ही क्या जा सकता है, क्यों?

क्योंकि इनकी सुनते तो राजसी ठाठ-बाट और पत्नी यशोधरा को छोड़कर भागे तत्कालीन राजा सिद्धार्थ सूली पर चढ़ा दिये जाते,  भगवान बुद्ध बनना तो दूर की बात थी!

क्योंकि सिद्धार्थ तो गृहस्थ आश्रम में भी प्रवेश कर चुके थे और तो और पत्नी के साथ - साथ उनपर एक बच्चे की जिम्मेदारी भी थी?

मैं यहाँ तुलना नहीं कर रहा हूँ, बस कुछ लोगों को आईना दिखाने की कोशिश कर रहा हूं, शायद किसी को अपनी सही शक्ल दिख जाये!

अधिक ज्ञान चाहिए तो नीचे क्लिक कर लें-🔌
http://www.palpalindia.com/2015/01/18/awesome-Gautama-Buddha-Enjoyment-yoga-meditation-news-in-hindi-india-83553.html

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

कांग्रेस काल में 9000 मुस्लिमों ने किया धर्मान्तरण, तब कहां थी मीडिया?

केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी का 2012 में वहां की विधानसभा में दिए बयान के मुताबिक वर्ष 2006 से 2012 के बीच केरल में कुल 7,000 से अधिक लोगों को धर्म परिवर्तन के जरिए मुसलमान बनाया गया, लेकिन कोई भी नेशनल चैनल्स ने चर्चा तो छोड़ो, टिकर भी देना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज मीडिया चैनल्स ने ऐसी मछली बाजार लगा रखी है कि दिमाग का दही कर दिया।

क्या मीडिया पर सवाल नहीं उठने चाहिए कि क्या वह अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा रही है या महज हंगामा खड़ा करना ही अब मीडिया का मकसद रह गया है?

क्या केन्द्र में आई बीजेपी (मोदी सरकार) के खिलाफ मीडिया का इसे साजिश नहीं करार नहीं देनी चाहिए?

क्योंकि वर्ष 2006 से वर्ष 2009 के बीच मनमोहन सरकार के दौरान कुल 9000 लोगों ने धर्मान्तरण किया, जिनमें 2000 से अधिक लोगों ने मुस्लिम धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म स्वीकार किया था पर तब ना तो नेताओं ने कुछ बोला और ना तथाकथित ज़िम्मेदार मीडिया ने कोई चर्चा (हो-हल्ला) की थी?

यही नहीं, पूरे नॉर्थ-ईस्ट में मिशनरीज ने पैसे और अन्य लालचो़ं के धोखे से पूरे के पूरे हिंदू आबादी को ईसाई बनाती जा रही है, मीडिया इस पर भी चुप है,  क्यों?

नॉर्थ-ईस्ट ही क्यों, देश भर के अलग अलग हिस्सों में भी ऐसा ही हो रहा है लेकिन मीडिया वहां इतनी गंभीर नहीं,  क्योंकि वहां मसाला नहीं है?

पूरे नॉर्थ-ईस्ट में राशन कार्ड जैसी चीज़ों के लिए हर वर्ष हजारों हिन्दू जबरन ईसाई बनाने जाते हैं पर मीडिया कान में तेल डालकर सोई रहती है,  क्योंकि नॉर्थ-ईस्ट की खबरों में ज्यादा माइलेज नहीं होता है?

मीडिया देश का एजेंडा तय करती है,  लेकिन मीडिया एकतरफा रिपोर्टिंग करती है इसका सुबूत सबके सामने है!

यह बात सौ फीसदी सच है कि गरीबी,  तंगहाली और लालच में आकर अधिकांश धर्म परिवर्तन की ओर बढ़ने की सोचते हैं, जिसके लिए जितनी जिम्मेदारी सरकारें हैं उससे अधिक जिम्मेदार तथाकथित मीडिया है!

क्या मीडिया तमाशबीन नहीं हो गईं हैं,  जो दिनभर के तमा़शाई खबरों का मज़मा लगाती है और उन्हीं खबरों को मुद्दा वे एजेंडा बनाती है, जिसमें अधिक विवाद व दर्शक मिलते हैं!

अब देश की जनता और दर्शकों को तय करना होगा कि वो कितनी जिम्मेदार है और वह मीडिया के चोचलों और झांसों से कैसे निपटेगी?

देश के दर्शकों को मीडिया को अब बताना ही होगा कि वह न्यूज चैनल या न्यूज पेपर मनोरंजन के लिए नहीं, मसाले के लिए नहीं, बल्कि देश का हाल जानने के लिए और खबर जानने के लिए करती है,  क्योंकि मनोरंजन थे लिए सैकड़ों चैनल हैं और हाथ में रिमोट है!

ऐसा तरीके से ही मीडिया को उसकी  जगह दिखाई जा सकेगी और तभी मीडिया देश की बुनियादी मुद्दों को उठाएगी और मसालों को छोड़ विकास को एजेंडा बनाना शुरू करेगी ?

नॉर्थ-ईस्ट में संघ परिवार एकल विद्यालय के जरिए लाखों हिन्दुओं को मिशनरीज के चंगुल से बचाने का काम करती है, लेकिन मजाल है किसी मीडिया ने निष्पक्ष होकर उस पर रिपोर्टिंग करने कोशिश की हो?

हालांकि हम दर्शक भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितनी की मीडिया? क्योंकि हम खुद मसालेदार खबरों के आदी हो चुके हैं?

अब हम जब मसाला देखेंगे और देश की अन्य खबरों पर नहीं रुकेंगे तो टीआरपी के लिए हमें वैसी ही खबरे परोसी जाएंगी,  जहां आपका रिमोट रूक जाता है?

दर्शक कल से मसालेदार खबरों से नजरें फिराना शुरू करके सिर्फ और सिर्फ न्यूज देखना शुरू कर दें तो देश के विकास और  समस्याओं से जुडी खबरें हिट होनी शुरू हो जाएंगी और न्यूज चैनलों से मसालेदार  खबरें खुद-ब-खुद गायब होने लगेंगी!

तो मीडिया को सबक सिखाना शुरू कीजिए और उसे मजबूरी कीजिए कि आप न्यूज चैनल समाचार सुनने और देखने के लिए देखते है, हंसने, गुदगुदाने और मनोरंजन के लिए नहीं, क्योंकि मनोरंजन के लिए आपके पास काफी विकल्प है और हाथ में रिमोट है!

दर्शक अगर कल से न्यूज चैनल पर हो रहे तमाशों का बहिष्कार करना शुरु कर दें और तमा़शाई खबरों के शुरू होते ही चैनल बदल लें तो मजबूरन चैनल्स सुधारना शुरू कर देंगे, करके देखिए... ये आपका हक भी है और जिम्मेदारी भी, जय हिंद!

मर्दो के इज्जत कारोबार में आया रिशेसन?

मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करती हैं कि इज्जत सिर्फ लड़कियों की ही क्यों होती है? या लड़कों की भी कोई इज्जत होती होगी?

क्योंकि मर्द (लड़के) प्राय: अपनी तथाकथित इज्जत की शेखी महिला पर शासन करके व उसे मन मुताबिक प्रतिबंधित करके ही कमाता आया है?

लेकिन अब जब लड़कियां खुद की रक्षा-सुरक्षा करने के लिए इंडिपेंडेंट हुई जा रहीं हैं तो लड़कों (मर्दो) के तथाकथित इज्जत का क्या होगा? वो इज्जत, जो मर्द महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर अब तक कमाते रहें हैं?

अब मर्दों के दंभ का क्या होगा? जो ये मानते आए हैं कि उनके बिना महिलाओं का वजूद कुछ नहीं है?

क्योंकि आज की इंडिपेंडेंट महिलाएं खुद अपनी इज्जत की सुरक्षा के लिए मर्दों की ओर नहीं देख रहीं!

तो क्या महिला की इज्जत बचाकर इज्जत कमाने वाले कारोबारी मर्द अब बेरोजगार हो जाएंगे? मतलब जब  लड़कियां इंडिपेंडेंट होंगी तो मर्द बेरोजगार ही नहीं, बल्कि इज्जतविहीन हो जाएंगे?

क्योंकि लड़कियां इंडिपेंडेंट हो रहीं है और इज्जत का कारोबार मर्दों के हाथों से छिनता जा रहा है, तो बड़ा सवाल है कि अब लड़के क्या करेंगे?

क्योंकि लड़कों (मर्दों) की अपनी कोई इज्जत तो होती नहीं है? मर्दों की इज्जत तो घरों की उन बेरोजगार महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा से जुड़ी होती है, जो मर्दों के लिए सुबह-शाम खाना पकाती है और दिन-रात सेवा में जुटी रहती हैं?

भारतीय घरों के हर एक मर्द को इज्जत बचाने के कारोबार पर जन्मसिद्ध अधिकार है! पति-पत्नी की रक्षा (पहरा) करता है, फिर पिता-बेटी की रक्षा करता है और भाई- बहन की रक्षा करता है?

बहुत बड़ा है यह इज्जत बचाने का कारोबार, लेकिन अब जब ये कारोबार ही नहीं बचेगा तो मर्दों का फर्स्ट्रेट होना स्वाभाविक ही है!

क्या भाई! कारोबार भी छीन लोगे और बोलने भी नहीं दोगे? अब लड़कियों के जींस पहनने और उनके मोबाइल उपयोग पर प्रतिबंध को मर्दों का डैमज कंट्रोल मान लीजिए और ऑनर किलिंग को साइड इफैक्ट!

मर्दों (लड़कों) की इज्जत नहीं होती है, इसका प्रमाण किसी भी भारतीय घर में मिल जाएगा?

यह किसी भी भारतीय घर में लड़कियों और लड़कों की परवरिश में साफ साफ नजर आता है, लड़का बाहर से कितना भी मुंह काला करके आए हमारे समाज व परिवार में उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता?

लेकिन उसी घर की लड़की को स्कूलिंग के आगे की पढ़ाई इसलिए छोड़नी पड़ जाती है, क्योंकि लड़की की इज्जत का सवाल है?

मीडिया में और मीडिया की नौकरी, दोनों जुदा बातें हैं?

पत्रकारिता होती थी या होती रहती है अथवा होती होगी के बीच कड़ी है पत्रकारिता की जाती है?

इसका सच-उसका सच, मेरा सच-तेरा सच, पहला सच-आखिरी सच, और जरुरी सच-गैर जरूरी सच के दोराहे पर खड़े हम हमेशा यूटर्न लेने को मजबूर होते है कि पहला सच किसका दिखाएं इसका या उसका?

सबके अपने गढ़े हुए सच हैं और उन सचों के वर्जनों में वेराइटी भी मौजूद है, बोलो क्या खरीदोगे...बस रिमोट बाजू में रख दो...टीआरपी का सवाल है बाबू?

किस सच से लाभ है, किससे हानि? यह तय करके ही सच उजागर किया जाएगा, क्योंकि सच की ना ही गुंजाइश है और ना ही सच कभी प्रोडक्टिव कारोबार रहा है, क्योंकि जल्दी चुक (खत्म) जाता है? मतलब 'जितनी सच से दूरी-उतनी तरक्की पूरी'

सच से किसको लोभ और लाभ है भला, कहते भी हैं कि अगर झूठ से किसी की जान बचती है तो वो सच के बराबर है, शायद इसीलिए झूठ का कारोबार ही मीडिया और पत्रकारिता का मूल मंत्र बन गया है!

भई, सच से किसका भला हुआ आज तक? हममें से 90 फीसदी अपनी पूरी जिंदगी झूठ के सहारे जीेते है और सच से दूर, जितना दूर हो सके भागते रहते है...और कोई झटके देकर सच का सच और झूठ का झूठ बतलाता भी है तो भी हम नहीं मानते कि दुनिया गोल है, क्योंकि हम लंबी सोच में प्राय: लंबे जो रहते है!

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

पत्रकारिए धर्म के बदलते-सिमटते पैमाने?

ये कहां आ गए हम, सरे राह चलते-चलते...
पत्रकारिए बिडंबना दिल्‍ली में रहने वाले 28 वर्षीय विकास को एक साल पहले जब एक प्रतिष्‍ठित हिन्‍दी चैनल में बतौर प्रशिक्षु नौकरी मिली तो माथे से बेरोजगारी का कलंक हटने से विकास काफी प्रसन्‍न था। दूसरी तरफ सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ने का जोश हिलोरे मार रहा था। बगैर पल गवांए विकास लड़ाई में उतर जाना चाहते थे। पर ये क्‍या हुआ।

अभी पत्रकारिता में कुछ ही दिन बीते थे कि अचानक विकास साहब का कथित पत्रकारिता से ही मोहभंग हो गया। उम्र ढल जाए कि इससे पहले आज विकास एक सरकारी नौकरी ढूंढने में मशगूल है ताकि बाकी की जिंदगी शांति से अपनी शर्तों पर जी सकें।

दिल ढूंढता है फिर वहीं यह हकीकत किसी एक युवा पत्रकार की नहीं, बल्‍कि हर उस युवा पत्रकार की है, जो वास्‍तविकता से परे इस पत्रकारिता की काली कोठरी में खिंचे चले आ रहे हैं। फिर तो ग्‍लैमर, पैसा और साथ में समाजसेवा के गढ़े हुए मानकों को कंठस्‍थ करके ही उस कोठरी से बाहर निकलते हैं, लेकिन वो युवा पत्रकार जिनके सपने चकनाचूर हो गए, जब ग्‍लैमर, पैसा और समाजसेवा के गढ़े इन तीनों मानकों में से एक भी हाथ में नहीं पाता। तो उस पर क्‍या बीतती है, समझा जा सकता है। ग्‍लैमर, पैसा और पत्रकार चलिए बात ग्‍लैमर से ही शुरू करते हैं, आप समझाइए।

मौजूदा दौर के समाचार पत्रों और चैनलों की भीड़ में आज कितने युवा पत्रकार प्रभाष जोशी, प्रणय राय और विनोद दुआ जैसे बड़े नाम बन पाऐंगे। प्रभाष जोशी उस समय के पत्रकार रहें हैं जब अखबार सामाजिक सरोकारों से जुड़े मिशनों के लिए बिकते थे न कि बांबे स्‍टॉक एक्‍सचेंज में अपने शेयर होल्‍डरों की संख्‍या बढ़ाने के लिए, जैसा आज है।

रही बात प्रणय राय, दीपक चौरसिया और पुण्‍य प्रसून बाजपेयी जैसे गिनती के पत्रकारों की, तो ये भारतीय टीवी पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार रहे हैं जब टीवी पत्रकारिता के नाम पर समाचार चैनलों के एक दो ही विकल्‍प रहा करते थे।

दौर-ए-जहन्‍नुम लेकिन क्‍या आज टीआरपी और मसाला खबरों की भीड़ में कोई अंगदी पैर जमाने की गल्‍ती कर पाएगा, अपने आपको इन्‍हीं की तरह मजबूती से स्‍थापित कर पाएगा। मान लिया कोई फैंटम बन भी गया तो इस बात की गारंटी नहीं है कि दफ्तर उनकी सेवाओं को कब समाप्‍त कर दे और उनके स्‍टार-दम को अर्श से फर्श पर दे मारें।

एक टीवी चैनल से धोखा खा चुके पुण्‍य प्रसून बाजेपयी जो पुराने खिलाड़ी थे बगैर छीछालेदर के निबट गए, लेकिन वहीं अगर कोई नया खिलाड़ी होता तो उसे दूसरे संस्‍थानों में नौकरी पाने में कितने तलवे घिसने पड़ते, भुक्‍तभोगी युवा समझ चुके हैं।

दम है जान है फिर भी हैरान हैं एक संस्‍थान में सभी तो हीरो बन नहीं सकते, आखिर रोटी और रोजी का सवाल है जिसके लिए समझौते पर तैयार होना लाजिमी है। वह पहले अपना तन काला करता है फिर मन काला होने देता है यहीं नही धन कमाने के लिए कुछ भी कहने-सुनने के लिए तैयार भी है।

मतलब तन मन धन सारे काले करने के बाद भी असुरक्षा और अनिश्‍चितता की भंवर में उसे डूबना ही है। बतलाइए दम और जान के बगैर इंसान तो चल नहीं सकता एक पत्रकार ही चल पाता है क्‍योंकि झटके से स्‍टार्ट और बदं होने वाले ऐसे मशीनी पत्रकार पेट्रोल तब तक पाते है जब तक वे मालिक के मनमुताबिक चलते है वरना मशीन बंद तो पेट्रोल बंद। यही दस्‍तूर है मशीनीकरण का। बुरा मत मानिएगा।

का करूं सजनी भाए ना कॉलम

भई दिल्‍ली और मुंबई जैसे मीडिया केंद्रों में जिंदगी जीने के लिए आप बेहद कंजूसी से भी पैसा खर्च करेंगे तो 8 से 10 हजार का भट्ठा बैठ जाएगा।

 बावजूद इसके ऐसे सैकड़ों युवा पत्रकार इस विचित्र सी दुनिया में आपको विचरण करते दिख जाऐंगे जो समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में 4 से 8 हजार में ड्यूटी बजाने को तत्‍पर दिख जाऐंगे।

यहीं नहीं कितने तो ऐसे है जो महीनों इस आस में मुफ्त में ही सेवाएं दे रहे हैं कि कब बुलावा आ जाए और बेड़ा पार लगे। कई युवा पत्रकार तो ऐसे भी है जिन्‍हें बावजूद नौकरी के खुद का खर्चा चलाने के लिए घर से पैसे मंगाने पड़ रहें हैं।

खुद की जिम्‍मेदारी उठाने में काले हो चुके ऐसे पत्रकार को करियर के चार-पांच साल बाद जब घर-बार और शादी-विवाह की जिम्‍मेदारी निभानी का भार आता है तो वह जद्दोजहद करता दिखता है। ऐसे में बहन की शादी या माता-पिता की बीमारी के इलाज जैसी अगर कोई बड़ी पारिवारिक जिम्‍मेदारी ऊपर आ गई तो कल्‍पना ही कंपा देती है।

व्‍यथा की कथा मैं आपको एक पत्रकार दोस्‍त के बारें में बताता हूं जिनकी शादी को पिछले तीन साल से ज्‍यादा हो चुके हैं और वे चाहते हुए अगले दो साल तक बच्‍चा पैदा नही करना चाहते। उनका कहना है कि जब वेतन बढेगा या कोई अच्‍छी नौकरी मिलेगी तभी वे इस बारे में सोचेंगे।

 रजिस्‍ट्रार ऑफ न्‍यूज पेपर ऑफ इंडिया के आंकड़ो मुताबिक यूं तो देश में चार हजार से ज्‍यादा हिन्‍दी पत्र-पत्रकाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन हिन्‍दी मीडिया बाजार में राज करने वाले गिनती के दो चार नामी संस्‍थानों को छोड़ बाकी लागत ही नहीं निकाल पा रहें है तो पत्रकारों को तनख्‍वाह कहां से देंगे, और अगर कोई लागत निकाल रहें हैं तो वे गुलाम पत्रकारों के शोषण से कमा रहे हैं।

 ऐसे में दो चार हिंदी मीडिया संस्‍थान बुर्जुवा बनने में तनिक भी लज्‍जा महसूस नहीं कर रहे हैं और हम मार्क्‍स के सर्वहारा मजदूरों की तरह अपना सब कुछ हार रहे हैं। मरता क्‍या ना करता मजदूर रूपी पत्रकार सैंकड़ों हैं और नौकरी दस-बीस।

अब ऐसे में इन संस्‍थानों की ओर से सस्‍ता श्रम क्‍यों नहीं खरीदा जाएगा। यह ऐसा बाजार है जहां बाजार में खड़े गधों और घोड़ों की कीमत बराबर लगती है। ऐसा समाजवाद शायद ही कहीं देखने को मिले। अंग्रेजी

 मीडिया संस्‍थान में पिछले तीन साल से काम करने वाले और हिन्‍दी संस्‍थान में पिछले दस-बीस साल से काम करने वाले के वेतन में अंतर देख कर आसानी से समझ सकते हैं कि स्‍थिति कितनी भयावह है।

प्रत्‍येक वर्ष सरकारी और कुकुरमुत्‍ते मीडिया संस्‍थान लाखों की संख्‍या में डिग्रियां रेवड़ियों की तरह बांट रही हैं। लेकिन रोजगार देने वाले संस्‍थानों की स्‍थिति जस की तस बनी हुई है। लाइन में लगे रहे नंबर आए तो उतर जाओ और जितना नहा सको नहा आओ, वरना नंबर आने का इंतजार करो।

 यहां अंग्रेजी पत्रकारिता की कर्मठता बताने के लिए रीतिकालीन कवि बनने की कोशिश नहीं की जा रही है बल्‍कि सिर्फ वास्‍तविकता की चादर पर लगे धब्‍बों को दिखाने की कोशिश की जा रही है।

मनी है तो ठनी है आज वैश्‍विक बाजार होने के कारण अंग्रेजी पत्रकारों के पास ढेरों विकल्‍प हैं। ऐसे में अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों को प्रतिस्‍पर्धा में आगे आने के लिए कुशल पत्रकारों की जरूरत है और हिन्‍दी पत्रकारों से कहीं अच्‍छा वेतन देकर वे ऐसे अंग्रेजी पत्रकारों की सेवाएं भी ले रहे हैं।

यह बात किसी भी हिन्‍दी और अंग्रेजी पत्रकार के पास उपस्‍थित बुनियादी और आर्थिक संसाधनों को देखकर स्‍वत: ही लगाया जा सकता है। जबकि इसके उलट हिन्‍दी संस्‍थानों में अनुवाद, पेज मेकिंग से लेकर रिर्पोटिंग तक सभी का एक ही आदमी से कराए जाते हैं। लेकिन हालात जस के तस है। बुनियादी और आर्थिक संस्‍थानों की कमी है और उम्र थोड़ा बढ़ जाने पर इधर-उधर भागने का कोई विकल्‍प भी जारी है। बाजार में गिनती के चार लाला की दुकान है एक से बचोगे तो दूसरा नोचेगा। क्‍या करेगा भईया

ऐसे में आप किसी हिन्‍दी पत्रकार से कैसे अपेक्षा कर सकते है कि वह प्रेसविज्ञप्‍ति छापने पर पैसे न ले या गिफ्ट पाकर किसी कंपनी का पीआर और पब्‍लिसिटी करने से बचे, प्रशासनिक धांधलियों से बचे, या रोज एक टाइम का खाना प्रेस कांफ्रेंस के दौरान खाते दिख जाए।

इन्‍हें टोकने का आपको कोई अधिकार नहीं है। क्‍योंकि पेट सबको पालना है। सबको अपने बच्‍चों को डीपीएस में पढ़ाना है। सबको ब्रांडेड कपड़े पहनने है। कोई समझाए ना अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को निभाने के लिए ही नौकरी के एवज में पैसे की दरकार हर कोई करता है।

 कुछ हिन्‍दी मीडिया संस्‍थान बहुत अच्‍छा पैसा दे रहे हैं। लेकिन ऐसे हिन्‍दी मीडिया संस्‍थानों की संख्‍या इक्‍का-दुक्‍का ही है। जिनमें से आधे मूल रूप अंग्रेजी मीडिया संस्‍थानों की उपज है।

दूसरे ऐसे संस्‍थान ज्‍यादा पैसा देने पर काम की जगह खून पी रहें हैं। जिनमें मुख्‍य तौर पर हिन्‍दी टीवी संस्‍थान शामिल है, जहां प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति से औसतन 12 से 14 घंटे काम करवाया जा रहा है। अब अगर कोई आदमी 24 घंटे में से 12 घंटे काम करेगा, 7 से 8 घंटे सोएगा, 2-3 घंटे ऑफिस आने-जाने में बरबाद करेगा तो फिर वो इंसान क्‍यों है, मशीन ही बन जाए क्‍योंकि 7-8 घंटे का आराम तो मिल की मशीनों को भी मिल जाता है।

जिंदगी मौत ना बन जाए संभलो यारों लाख बुरे हालातों के बावजूद आज भी युवा पत्रकारों की एक ऐसी खेप है जो इस इंडस्‍ट्री में सरोकारों की ज्‍वाला को लेकर आती है। भंयकर रचनात्‍मकता से ओत-प्रोत ये लोग हिन्‍दी मीडिया के वर्तमान में सबसे ज्‍यादा प्रताड़ित होने का कारण ये स्‍वयं है क्‍योंकि ये हिन्‍दी पत्रकारिता के उस इतिहास को पढ़ कर पत्रकार बनने चले है जो आजादी और वंचितों की लड़ाई से भरी पड़ी है।

लेकिन भईया माहौल बदल गया है। कलम की ताकत लाला की दुकान हो गई है। जिससे ज्‍यादा मुनाफा होगा, वही छपेगा। लेकिन ये बात इन पत्रकारों की समझ में ही नहीं आती है। क्‍योंकि इन्‍होंने पत्रकारिता के वसूलों और धर्म को गले जो लगा बैठे हैं। अब इस तरह की लड़ाई लड़ने चलोगे तो राह में कंकड़-पत्‍थर तो जरूर मिलेंगे, हां वो सुकूंन की गांरटी अब नहीं दी जा सकती है।

ना समझे तो अनाड़ी हो बाजारवाद को अभी तक नहीं समझे हैं तो अनाड़ी तो हो ही, जल्‍दी नहीं चेते तो पनवाड़ी की दुकान भी खोलनी पड़ सकती है। अब आपका पत्रकारिए धर्म आपसे चाहता है कि आप गरीबी और विकास से जूझ से रहे बुंदेलखंड और विदर्भ के वर्तमान हालातों पर स्‍टोरी करो, लेकिन टीआरपी की मांग है कि राखी सावंत का स्‍वयंवर, करीना की बिकनी, आमिर के ऐट एब्‍स जैसी खबरें। जिसे देखते ही दर्शकों की दीदे टीवी चैनल पर अटक के रह जाए। तो वहीं खबरें चलेंगी, जिससे टीआरपी रेट बढ़े, आपने भले ही बढ़िया पैकेज बनाया हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

हिन्‍दी अखबारों का भी यही हाल है। आधा समय अंग्रेजी खबरों के अनुवाद में बीतता है तो आधा पेज मेकिंग में, थोड़ी बहुत रिर्पोटिंग जो होती भी है, उसमें रिर्पोटर को संस्‍थान की सोच, औद्योगिक और राजनैतिक घरानों से संबंधों की मर्यादा, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों से मिलने वाले विज्ञापनों का लिहाज रखना पड़ता है।

 ऐसे में पत्रकार और मीडिया संस्‍थान के आदर्श में एक गहरा अंतर हो जाता है। जिसका परिणाम या तो अवसादग्रस्‍त पत्रकार नौकरी छोड़ देता है अथवा मीडिया संस्‍थान उसे खुद बाहर का रास्‍ता दिखा देती है। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों की खबर करते समय अगर मुकदमेबाजी या अपराधियों से पंगा लेना पड़ा तो वो भी आपके जिम्‍मे।

सबसे बड़ा रुपैया वैसे गलती मीडिया संस्‍थानों की भी नहीं है। भई आगे रहने का सारा खेल टीआरपी और सर्कुलेशन के मत्‍थे है। चटक-मटक नहीं दिखाऐंगे, नहीं छापेंगे तो टीआरपी और सर्कुलेशन कैसे बढ़ेगा। दर्शक और पाठक भी तो यही पढ़ना और देखना चाहता है। या यह भी कह सकते हैं कि हम दर्शक को जागरूक ही नहीं करना चाहते, मुनाफा जो लक्ष्‍य है।

काश ऐसा हुआ होता मुझे ऐसा लगता है पत्रकारिता के पतन का कारण हमारे देश का देर से आजाद होना है। सोचिए देश अगर सही तरीके से 1857 में ही आजाद हो जाता, तो जल्‍दी विकास होता, जल्‍दी बाजारवाद आता। और विकास के शुरूआती दौर में मीडिया संस्‍थानों की ऊल-जुलूल सामाग्री को पढ़कर, देख कर दर्शक और पाठक अब तक उकता चुके होते और आज इस समय हमारे पास जागरूक पाठक और दर्शकों की एक बहुत भारी खेप होती। जो विकास की खबरों में ही रूचि लेती।
ऐसे में खबरें भी विकास के मुद्दों के लिए ही होती और वे पत्रकार भी खुश रहते जो सामाजिक सरोकारों की लड़ाई के लिए ही पत्रकारिता का रास्‍ता चुनते हैं।

अंगूर खट्टे हैं, चखने को नहीं मिले तो चीखे केजरीवाल!

कहते हैं कि आदमी की औकात उसकी बोल-बच्चन से पता चला जाता है! 

सुना है आजकल अरविंद केजरीवाल चंदा मांगने दिल्ली से दूर अमेरिका प्रवास पर हैं, जहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रॉक स्टार स्वागत पर पूरा भारत ही नहीं,  जहां - जहां भारतीय बसते हैं सीना चौड़ा हो गया था! 

लेकिन केजरीवाल साब को जब अमेरिका में वैसा स्वागत समारोह तो छोड़ो कोई पूछ-तवज्जो तक नहीं मिला तो अमेरिका में अपनी औकात दिखाते हुए उन्होंने उल्टी कर दी है। 

बोले, " प्रधानमंत्रियों को मनोरंजन के लिए विदेश यात्राएं नहीं करनी चाहिए" 

इसे ही कहते हैं आदमी की औकात, जिसकी फितरत जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव पर बदलने में देरी नहीं लगती है। 

राजनीतिक में उठा-पटक तो ठीक है, लेकिन ऐसी बेहूदगी तो एक सामान्य नागरिक भी नहीं करेगा और फिर  जनाब केजरीवाल तो देश की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिशें पाल रखी थी! 

प्रधानमंत्री देश का प्रधानमंत्री होता है और विदेश में भारतीय नागरिक ही अपने देश के प्रधानमंत्री का मजाक बनाएगा तो बाहर देश की साख पर बट्टा नहीं  लगेगा? 

धिक्कार है केजरीवाल तुम पर! थोड़ी बहुत जो साख जो बची थी वो भी खत्म कर दी तुमने,  तुमने खुद पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है! 

आओ बेटा, अमेरिका से चंदा लेकर लौटो दिल्ली और मांगना दिल्ली से वोट... इस बार जनता चांटे नहीं, जूते-चप्पल से स्वागत करेगी! 

भरोसा नहीं तो पढ़िए नवभारत टाइम्स की पूरी स्टोरी-
http://navbharattimes.indiatimes.com/world/america/pms-shouldnt-go-abroad-for-entertainment-value-arvind-kejriwal/articleshow/45433374.cms

शादी क्या लड़की की जिंदगी से ज्यादा जरुरी है?

बेटी की शादी की जल्दबाजी हर मां-बाप को रहती है, जिसको वो अपनी जिम्मेदारी से अधिक मर्यादा से जोड़कर अधिक देखते हैं,  ऐसा क्यों?

काफी पड़ताल के बाद पता चला कि लड़कियों की शादी के दौरान मां-बाप वैयक्तिक व सामाजिक सुख अधिक तलाशते हैं बजाय विवाहित लड़की के सुख के!

मां-बाप लड़की के सुख के साधनों का इंतजाम दहेज और पैसे के जरिए तो कर सकते हैं,  लेकिन लड़की  की सुखों का क्या?

लड़की मां-बाप की बात मानें तो गुणवान, चरित्रवान और शीलवान और इनकार तो कर ही नहीं सकती और करने की कोशिश भी करती है तो हजार मसले हो जाऐंगे कि लड़की बेशर्म है, बददिमाग है और हाथ से निकल गई है।

मुद्दा है कि लड़कियों की शादी में मां-बाप का हस्तक्षेप कितना जरुरी है? और शादी के लिए लड़की की रजामंदी कितनी जरुरी है?

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि मां-बाप शादी से पहले बेटी की पसंद-नापसंद जानने के अलावा अमीर-गरीब के तराजू भी किनारे रख दें?

कहने का मतलब है कि बेटी की शादी किसी ऐसे होनहार, ईमानदार और मेहनती लड़के के साथ करने की कोशिश  कर सकते हैं, जिसके पास शादी  से पहले बंगला, गाड़ी और बैंक बैलेंस की  शर्तें ना लागू हो?

हर एक मां-बाप शादी के बाद बेटी को सुखी देखना चाहता है,  शायद यही वजह है कि मां-बाप बेटी की शादी के लिए दहेज बेटी के जन्म से ही जुटाना शुरू कर देते हैं, अब ये धन बेटी की मनपसंद लड़के से हुई अरेंज शादी के बाद बेटी-दामाद के भविष्य में भी सहायक ही नहीं अमूल्य साबित हो सकते हैं!

ऐसी शादियों से दो बातें बिल्कुल पक्की हो जाएंगी। पहला, दहेज अपराध शून्यता की ओर अग्रसर हो जाएंगे। दूसरा,  घरेलू हिंसा में तेजी से सुधार संभव होगा, लिख के ले लो!

सब कुछ कूंए में डाल, चला केजरीवाल CM बनाने?

पारंपरिक देसी नेताओं की नूराकुश्ती से दिल्ली को मुक्त कराने के लिए जन आंदोलन छोड़कर मजबूरी में राजनीति में आने वाले अरविंद केजरीवाल अब सत्ता ही नहीं,  मुख्यमंत्री पद के भी लालची हो चले हैं?

यही तो बात है... पारंपरिक नेता ही तो नहीं थे केजरीवाल,  जिसपर भरोसा करके लोगों ने केजरीवाल  को वोट  किया था!

क्योकि.. वो तो जन आंदोलन से निकले-उबले और हारे आम आदमी थे...जिन्हें मजबूरी में चुनाव में उतरना पड़ा था...

केजरीवाल खुद कहा करते थे कि क्योंकि बाकी सभी पार्टियों  के नेता चोर थे, झूठे थे और भ्रष्टाचारी थे, इसलिए वो  राजनीति  में  कूदे और पार्टी  बनाई?

लेकिन राजनीति में आते ही केजरीवाल खुद उसी खांचे में ट्रॉंसफॉर्म हो गए...और लालच और वोट के लिए वही करने लगे जैसे सभी देसी नेता करते हैं,  फिर हम क्यों दे तुम्हें वोट केजरीवाल?

सारा दुख और अफसोस तो इसी बात का है कि एक जन आंदोलन से निकला आदमी महज सत्ता के लिए वहीं सब कर रहा है जिनको गाली देकर वो खुद चुनाव में कूदने की मजबूरी बता रहा था?

#kezriwal #AAP #Delhi #AssemblyPoll

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कांग्रेस के बाद AAP पार्टी भी डूब गई तो क्या होगा?

मीडिया जगत में काम कर चुके एक पीढ़ी के कुछ पत्रकारों ने लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान अपनी पेशेगत निष्पक्षता और ईमानदारी को गिरवी रख तत्कालीन सरकार के पक्ष में और पीएम मोदी के विरुद्ध  माहौल तैयार करने में अपनी एड़ी-चोटी की जोर लगा रखी थी, लेकिन नतीजा शून्य रहा!

उनमें से कुछ चेहरे तो बाकायदा सामने भी आए और हम उनकी फजीहत भी देख चुके हैं, लेकिन शेष बचे ऐसे कई चेहरे अभी और भी हैं, जो मृत्यु की ओर उन्मुख कांग्रेस को छोड़ आम आदमी का समर्थन में नारे लगाते अभी भी देखे जा सकते हैं!

ये लोग आपकी आंखों के सामने रोज होते हैं टीवी की बहसों में, चैनल कोई भी बदल लो?

आपको इन्हें पहचानने में जरा भी दिमाग लगाने की जरुरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि  ये लोग इतनी फर्स्ट्रेशन में हैं कि बहस के दौरान बेसिरपैर की बातों से मुद्दे को व्यक्तिगत बना लेते हैं और ऐसे दलील देते हैं कि एंकर ही नहीं, प्रोड्युसर भी सोचने लगते हैं कि मुद्दा और एजेंडा क्या था, जिस पर वो बहस कर रहे थे?

क्योंकि उपरोक्त पीढ़ी के पत्रकार जब टीवी पर बहस करते हैं तो मुद्दे और एजेंडे कुछ भी हो, सब पीछे छोड़ अपनी पूरी एनर्जी मोदी सरकार के खिलाफ बोलने व उसकी कमियां निकालने में झोंकने लगते हैं!

फर्स्ट्रेशन इसकी नहीं है कि मोदी सरकार अच्छा कर रही है या बुरा कर रही है, बल्कि फर्स्ट्रेशन इस बात का है कि
कांग्रेस के बाद AAP पार्टी भी डूब गई तो उनका भविष्य क्या होगा?

मतलब, पत्रकारिता भी गई और राजनीति में पैर पसारने का मौका भी हाथ न आया यानी ना माया मिली ना राम!

शुक्रिया! पूजा-आरती, तुमने लड़कों को पीड़ित बना दिया?

चलो, एक बार मान भी लें कि #रोहतक की #दबंग लड़कियों ने बस की सीट के लिए लड़कों की पिटाई की होगी और जबरन #वीडियो भी बनाया होगा.. तो?

याद कीजिए, एक वो दौर जब #हरियाणा में हर दिन लड़कियों से #बलात्कार की खबरें अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियां में होती थीं और हम सोचते थे कि लड़के कितने जंगली और खूंखार होते होंगे?

लेकिन रोहतक की पूजा और आरती की कहानी बता रही है कि इन दोनों ने सड़कों पर चल रहें लड़कों के बीच कैसा खौफ भर दिया है, लड़के बलात्कार के बारे में सोचना तो छोड़ो, जान बचा कर भागने को मजबूर दिखाई दे रहें हैं?

नि:संदेह यह एक सामाजिक बदलाव है, जिसमें #पुरुष सत्तात्मक #समाज में पहली बार पुरुष को (लड़का) पीड़ित और निर्दोष के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है...यह पुरुषों के लिए हास्यास्पद है, लेकिन स्त्री समुदाय के लिए गर्व का विषय है!

यह घटना एक बेहतर सामाजिक बदलाव का द्योतक है, जिसे महिलाओं की स्थिति-परिस्थिति और उनके सुनहरे भविष्य का परिचायक कहा जा सकता है!

पहली बार ऐसा हुआ है जब लड़के गिड़गिड़ा रहें हैं और लड़कियां छाती चौड़ी करके धौंस जमाती हुई देखी जा रहीं हैं वरना किसी ने देखा था ऐसा नजारा?

टीवी चैनलों का पूरा का पूरा फ्रेम बदला हुआ है, जहां पीड़ित फ्रेम में पहले लड़कियां होती थीं वहां अब लड़के खड़े हैं और जहां लड़के खड़े होते थे आज उक्त फ्रेम में दबंग लड़कियां खड़ी हैं!

क्या नजारा है, अद्भुत-अविस्मरणीय! यह घटना अब उन सभी लड़कियों को हिम्मत देगा कि कमजोर और लाचार होकर #अत्याचार सहने के बजाय अब वो भी लड़कों को मुंहतोड़ जबाव दे सकती हैं और लड़कों को उनकी जगह दिखा सकती है!

मैं पूजा और आरती का स्वागत करता हूं और चाहता हूं कि देश की हर लड़की पूजा और आरती से प्रेरित होकर हर छेड़छाड़ और #शोषण का #प्रतिरोध करें और लड़कों के अक्ल को ठिकाने लगाए!

दो राय नहीं कि पूजा और आरती देश के लिए एक प्रेरणा बन कर उभरी हैं और दोनों ने अपने बूते लड़कों की पिटाई करके उन सभी लड़कियों को यह संकेत और संदेश दिया है कि लड़कों की #टीजिंग और #छेड़छाड़ का जबाव दिया जा सकता है!

तो लड़कियों आगे बढ़ो और हल्ला बोल दो उन लड़कों पर जो आपको अब तक परेशान करते आ रहें है या तंग करने की मंशा से आगे-पीछे मंडरा रहें है!

शुक्रिया! पूजा और आरती, तुमने जो किया है उससे पूरी नारी जगत का उत्थान और बदलाव जरूर होगा...एक बार और धन्यवाद!

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

बचपन के दिन....

बचपन के दिन और बचपन की बातें

बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
न खर्चे की चिंता न पैसे की यारी
वो गिल्ली, वो डंडा, वो बैल की सवारी। 
टोली, ठिठोली और हवा हवाई बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें। 
पड़ोसी की चाय और हलवाई की दुकान 
वो चुस्की वो मुस्की, और भौजी की मुस्कान 
भरी दुपहरी और इश्क के ठहाके 
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।
सावन की रिमझिम और रसभरी बातें
जलेबी से मीठे हर रिश्ते् हर नाते
शाम की बैठक की बाटी और चोखे
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें
खेतों की मेड़ों से खलिहानों का दौर
गोरकी की चक्कर में सवरकी से बैर
भुलाए न भूले वो नहरियां के गोते
बहुत याद आती हैं वो बेफि‍क्री रातें
बचपन के दिन और बचपन की बातें
बहुत याद आती हैं वो बेफिक्री रातें।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

क्यों नहीं खौलता युवा खून


बढ़ते भ्रष्टाचार और लोकतंत्र पर हो रहे लगातार हमलों को देख कर युवा लीडर खामोश क्योंट है, क्यों वो चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देख रहा है। आखिर इन सवालों के जबाव तलाशने की जहमत कोई क्योंो नहीं उठाना चाह रहा। आश्यआर्च होता है कि संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता महात्मां गांधी जी के मूक बंदर से ही इतने प्रेरित क्योंा हैं। युवा सांसद भ्रष्टांचार की सड़ांध पर तो मूक रहते है, लेकिन सुनने और देखने में इन्हेंं कोई आपत्ति नहीं है, शायद मजा आता हो।  अफसोसजनक बात यह है कि इन बंदरों को युवाओं का पैरोकार बताया जाता है, लेकिन इनका खून देश में फैले भ्रष्टारचार और कदाचार पर नहीं खौलता, क्यों कि मुंह खोलने का इन्हें  आदेश नहीं है। हालांकि तमाशा देखने और दिखाने की इनको छूट है। माननीय राहुल गांधी जी का तमाशा पिछले कई वर्षों से लगातार से आप देख ही रहे हैं। पूरा देश केंद्रीय सरकार द्वारा प्रायोजित भ्रष्टाहचार की दलदल में फंसा बास मार रहा है, लेकिन राहुल गांधी जी यहां मूक रहते हैं, क्योंमकि इसका कोई पोलिटिकल माइलेज नहीं है शायद। लेकिन उत्तरर प्रदेश में भ्रष्टांचार के मुद्दे पर बोलने और खून खौलाने के लिए उन्हेंू पूरी आजादी है।  यहां तक कि उन्हें  यहां कानून का उलंघन करके भी बोलने और घेराबंदी करने की इजाजत उनके आकाओं द्वारा दे दी जाती है, लेकिन वो लोकतांत्रिक तरीके से भ्रष्टातचार के विरोध में जुटे हजारों लोगों को बेदर्दी से आधी रात में खदेड़ने से नहीं हिचकिचाते हैं, तुर्रा यह है कि उन्होंटने यह कार्रवाई लॉ एंड आर्डर के खतरे से निपटने के लिए किया।   आखिर क्योंक, यह बात किसी को परेशान नहीं करती है। उत्तदर प्रदेश में भ्रष्टायचार और अपराध के विरोध में राहुल गांधी गांवों और खलिहानों तक के चक्क्र लगा रहे हैं, लेकिन वहीं राहुल गांधी केंद्र सरकार द्वारा लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर किए गए हमलों और निरीह जनता पर आधी रात में लाठी भांजे जाने पर चुप्पीव साथ लेते हैं, इस चुप्पीध की वजह शायद आप समझ ही गए होंगे।  राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री बनने की कतार में खड़े हैं, उन्हें  सोच समझ कर कीचड़ उठाना होगा और सोच समझ कर उसे सही जगह पर फेंकना होगा, ताकि राजनीतिक फायदा मिल सके। इसलिए मजबूरन सब कुछ देखने, सुनने और समझने के बावजूद, वो चुप रह जाते हैं।  अब खुद पर कीचड़ फेंककर वो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक तो नहीं पहुंच सकते। इसलिए वो उत्तिर प्रदेश सरकार पर मजबूरन कीचड़ उछाल रहे हैं, जिससे उनको और उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा मिल सके।  राहुल की निगाह उत्तसर प्रदेश में होने वाले 2012 के विधानसभा चुनाव पर है और भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाकर उनका वोट हासिल करना है ताकि विधानसभा चुनाव में पार्टी का कद बढ़ सके। पता नहीं, माननीय राहुल गांधी जी को जनता इतनी बेवकूफ क्योंि नजर आती है। राहुल इतनी जल्दीम बिहार की पराजय को भूला चुके हैं क्याब। अमेठी को छोड़कर शायद ही राहुल गांधी को कोई ठीक से जानता है, क्योंहकि कलावती जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं, जहां राहुल गांधी बगले झांकते हुए नज़र आते हैं। अब ऐसे युवा पूरे देश का नेतृत्वह कैसे करेंगे। वर्तमान समय में, संसद में 60 से अधिक सांसद युवा श्रेणी में आते हैं, जिनकी उम्र 30 से 40 वर्ष के बीच है। लेकिन किसी भी युवा सांसद में  लोकतांत्रिक हमलों और भ्रष्टांचार के विरोध में आवाज उठाने का दम नहीं हैं। पक्ष-विपक्ष में बैठे निर्वाचित युवा सांसदों द्वारा अभी तक एक भी ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे लगे कि वो सचमुच युवा नेता है अथवा युवाओं का प्रतिनिधित्व  करते हैं। युवा सांसदों का खून क्योंे नहीं खौलता, इसका कारण समझ में आता है, लेकिन क्या  आपको पता है कि इसकी असली वजह क्या  है। वजह साफ है उचित युवा भागीदारी। संसद में निर्वाचित होकर आए अधिकांश युवा नेता, वंशवाद की उपज है, इनमें से अधिकांश युवा सांसदों को अपने देश की मिट्टी की असली महक तक नहीं मालूम है। ऐसे युवा लीडर जनता की जरूरतों के लिए नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिए जनता की कुटियाओं का दौरा करते हैं। जब तक इन कुटियों से लीडर नहीं निकलेंगे, यह तमाशा जारी रहेगा।  पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए कुलीन वर्ग के कुछ गंवार और अवसरवादी युवाओं को इसलिए टिकट थमाते हैं ताकि उनसे तात्काालिक लाभ मिल सके और यही मानसिकता लगभग भारत के सभी उच्चक शिक्षण संस्थाेनों में भी नजर आता है। माना जाता है कि महाविद्यालयों की कैंपस राजनीति एक संस्थाक के सुचारू संचालन को बेहतर बनाती है और यहां के माहौल युवाओं की राजनीतिक और नेतृत्वो कौशल को तेज करते हैं।  छात्र आज भी उदासीन प्रशासनों और गुंडो के बीच दबा हुआ महसूस करता है। यही कारण है कि होनहार युवा राजनीति में आने से कतराते हें, जिनसे युवाओं को उबारना जरूरी है, ताकि उन्हेंब मुख्यसधारा में लाया जा सके और देश को एक बेहतर नेतृत्वब हासिल हो सके।