ये कहां आ गए हम, सरे राह चलते-चलते...
पत्रकारिए बिडंबना दिल्ली में रहने वाले 28 वर्षीय विकास को एक साल पहले जब एक प्रतिष्ठित हिन्दी चैनल में बतौर प्रशिक्षु नौकरी मिली तो माथे से बेरोजगारी का कलंक हटने से विकास काफी प्रसन्न था। दूसरी तरफ सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ने का जोश हिलोरे मार रहा था। बगैर पल गवांए विकास लड़ाई में उतर जाना चाहते थे। पर ये क्या हुआ।
अभी पत्रकारिता में कुछ ही दिन बीते थे कि अचानक विकास साहब का कथित पत्रकारिता से ही मोहभंग हो गया। उम्र ढल जाए कि इससे पहले आज विकास एक सरकारी नौकरी ढूंढने में मशगूल है ताकि बाकी की जिंदगी शांति से अपनी शर्तों पर जी सकें।
दिल ढूंढता है फिर वहीं यह हकीकत किसी एक युवा पत्रकार की नहीं, बल्कि हर उस युवा पत्रकार की है, जो वास्तविकता से परे इस पत्रकारिता की काली कोठरी में खिंचे चले आ रहे हैं। फिर तो ग्लैमर, पैसा और साथ में समाजसेवा के गढ़े हुए मानकों को कंठस्थ करके ही उस कोठरी से बाहर निकलते हैं, लेकिन वो युवा पत्रकार जिनके सपने चकनाचूर हो गए, जब ग्लैमर, पैसा और समाजसेवा के गढ़े इन तीनों मानकों में से एक भी हाथ में नहीं पाता। तो उस पर क्या बीतती है, समझा जा सकता है। ग्लैमर, पैसा और पत्रकार चलिए बात ग्लैमर से ही शुरू करते हैं, आप समझाइए।
मौजूदा दौर के समाचार पत्रों और चैनलों की भीड़ में आज कितने युवा पत्रकार प्रभाष जोशी, प्रणय राय और विनोद दुआ जैसे बड़े नाम बन पाऐंगे। प्रभाष जोशी उस समय के पत्रकार रहें हैं जब अखबार सामाजिक सरोकारों से जुड़े मिशनों के लिए बिकते थे न कि बांबे स्टॉक एक्सचेंज में अपने शेयर होल्डरों की संख्या बढ़ाने के लिए, जैसा आज है।
रही बात प्रणय राय, दीपक चौरसिया और पुण्य प्रसून बाजपेयी जैसे गिनती के पत्रकारों की, तो ये भारतीय टीवी पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार रहे हैं जब टीवी पत्रकारिता के नाम पर समाचार चैनलों के एक दो ही विकल्प रहा करते थे।
दौर-ए-जहन्नुम लेकिन क्या आज टीआरपी और मसाला खबरों की भीड़ में कोई अंगदी पैर जमाने की गल्ती कर पाएगा, अपने आपको इन्हीं की तरह मजबूती से स्थापित कर पाएगा। मान लिया कोई फैंटम बन भी गया तो इस बात की गारंटी नहीं है कि दफ्तर उनकी सेवाओं को कब समाप्त कर दे और उनके स्टार-दम को अर्श से फर्श पर दे मारें।
एक टीवी चैनल से धोखा खा चुके पुण्य प्रसून बाजेपयी जो पुराने खिलाड़ी थे बगैर छीछालेदर के निबट गए, लेकिन वहीं अगर कोई नया खिलाड़ी होता तो उसे दूसरे संस्थानों में नौकरी पाने में कितने तलवे घिसने पड़ते, भुक्तभोगी युवा समझ चुके हैं।
दम है जान है फिर भी हैरान हैं एक संस्थान में सभी तो हीरो बन नहीं सकते, आखिर रोटी और रोजी का सवाल है जिसके लिए समझौते पर तैयार होना लाजिमी है। वह पहले अपना तन काला करता है फिर मन काला होने देता है यहीं नही धन कमाने के लिए कुछ भी कहने-सुनने के लिए तैयार भी है।
मतलब तन मन धन सारे काले करने के बाद भी असुरक्षा और अनिश्चितता की भंवर में उसे डूबना ही है। बतलाइए दम और जान के बगैर इंसान तो चल नहीं सकता एक पत्रकार ही चल पाता है क्योंकि झटके से स्टार्ट और बदं होने वाले ऐसे मशीनी पत्रकार पेट्रोल तब तक पाते है जब तक वे मालिक के मनमुताबिक चलते है वरना मशीन बंद तो पेट्रोल बंद। यही दस्तूर है मशीनीकरण का। बुरा मत मानिएगा।
का करूं सजनी भाए ना कॉलम
भई दिल्ली और मुंबई जैसे मीडिया केंद्रों में जिंदगी जीने के लिए आप बेहद कंजूसी से भी पैसा खर्च करेंगे तो 8 से 10 हजार का भट्ठा बैठ जाएगा।
बावजूद इसके ऐसे सैकड़ों युवा पत्रकार इस विचित्र सी दुनिया में आपको विचरण करते दिख जाऐंगे जो समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में 4 से 8 हजार में ड्यूटी बजाने को तत्पर दिख जाऐंगे।
यहीं नहीं कितने तो ऐसे है जो महीनों इस आस में मुफ्त में ही सेवाएं दे रहे हैं कि कब बुलावा आ जाए और बेड़ा पार लगे। कई युवा पत्रकार तो ऐसे भी है जिन्हें बावजूद नौकरी के खुद का खर्चा चलाने के लिए घर से पैसे मंगाने पड़ रहें हैं।
खुद की जिम्मेदारी उठाने में काले हो चुके ऐसे पत्रकार को करियर के चार-पांच साल बाद जब घर-बार और शादी-विवाह की जिम्मेदारी निभानी का भार आता है तो वह जद्दोजहद करता दिखता है। ऐसे में बहन की शादी या माता-पिता की बीमारी के इलाज जैसी अगर कोई बड़ी पारिवारिक जिम्मेदारी ऊपर आ गई तो कल्पना ही कंपा देती है।
व्यथा की कथा मैं आपको एक पत्रकार दोस्त के बारें में बताता हूं जिनकी शादी को पिछले तीन साल से ज्यादा हो चुके हैं और वे चाहते हुए अगले दो साल तक बच्चा पैदा नही करना चाहते। उनका कहना है कि जब वेतन बढेगा या कोई अच्छी नौकरी मिलेगी तभी वे इस बारे में सोचेंगे।
रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर ऑफ इंडिया के आंकड़ो मुताबिक यूं तो देश में चार हजार से ज्यादा हिन्दी पत्र-पत्रकाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन हिन्दी मीडिया बाजार में राज करने वाले गिनती के दो चार नामी संस्थानों को छोड़ बाकी लागत ही नहीं निकाल पा रहें है तो पत्रकारों को तनख्वाह कहां से देंगे, और अगर कोई लागत निकाल रहें हैं तो वे गुलाम पत्रकारों के शोषण से कमा रहे हैं।
ऐसे में दो चार हिंदी मीडिया संस्थान बुर्जुवा बनने में तनिक भी लज्जा महसूस नहीं कर रहे हैं और हम मार्क्स के सर्वहारा मजदूरों की तरह अपना सब कुछ हार रहे हैं। मरता क्या ना करता मजदूर रूपी पत्रकार सैंकड़ों हैं और नौकरी दस-बीस।
अब ऐसे में इन संस्थानों की ओर से सस्ता श्रम क्यों नहीं खरीदा जाएगा। यह ऐसा बाजार है जहां बाजार में खड़े गधों और घोड़ों की कीमत बराबर लगती है। ऐसा समाजवाद शायद ही कहीं देखने को मिले। अंग्रेजी
मीडिया संस्थान में पिछले तीन साल से काम करने वाले और हिन्दी संस्थान में पिछले दस-बीस साल से काम करने वाले के वेतन में अंतर देख कर आसानी से समझ सकते हैं कि स्थिति कितनी भयावह है।
प्रत्येक वर्ष सरकारी और कुकुरमुत्ते मीडिया संस्थान लाखों की संख्या में डिग्रियां रेवड़ियों की तरह बांट रही हैं। लेकिन रोजगार देने वाले संस्थानों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। लाइन में लगे रहे नंबर आए तो उतर जाओ और जितना नहा सको नहा आओ, वरना नंबर आने का इंतजार करो।
यहां अंग्रेजी पत्रकारिता की कर्मठता बताने के लिए रीतिकालीन कवि बनने की कोशिश नहीं की जा रही है बल्कि सिर्फ वास्तविकता की चादर पर लगे धब्बों को दिखाने की कोशिश की जा रही है।
मनी है तो ठनी है आज वैश्विक बाजार होने के कारण अंग्रेजी पत्रकारों के पास ढेरों विकल्प हैं। ऐसे में अंग्रेजी मीडिया संस्थानों को प्रतिस्पर्धा में आगे आने के लिए कुशल पत्रकारों की जरूरत है और हिन्दी पत्रकारों से कहीं अच्छा वेतन देकर वे ऐसे अंग्रेजी पत्रकारों की सेवाएं भी ले रहे हैं।
यह बात किसी भी हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकार के पास उपस्थित बुनियादी और आर्थिक संसाधनों को देखकर स्वत: ही लगाया जा सकता है। जबकि इसके उलट हिन्दी संस्थानों में अनुवाद, पेज मेकिंग से लेकर रिर्पोटिंग तक सभी का एक ही आदमी से कराए जाते हैं। लेकिन हालात जस के तस है। बुनियादी और आर्थिक संस्थानों की कमी है और उम्र थोड़ा बढ़ जाने पर इधर-उधर भागने का कोई विकल्प भी जारी है। बाजार में गिनती के चार लाला की दुकान है एक से बचोगे तो दूसरा नोचेगा। क्या करेगा भईया
ऐसे में आप किसी हिन्दी पत्रकार से कैसे अपेक्षा कर सकते है कि वह प्रेसविज्ञप्ति छापने पर पैसे न ले या गिफ्ट पाकर किसी कंपनी का पीआर और पब्लिसिटी करने से बचे, प्रशासनिक धांधलियों से बचे, या रोज एक टाइम का खाना प्रेस कांफ्रेंस के दौरान खाते दिख जाए।
इन्हें टोकने का आपको कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि पेट सबको पालना है। सबको अपने बच्चों को डीपीएस में पढ़ाना है। सबको ब्रांडेड कपड़े पहनने है। कोई समझाए ना अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए ही नौकरी के एवज में पैसे की दरकार हर कोई करता है।
कुछ हिन्दी मीडिया संस्थान बहुत अच्छा पैसा दे रहे हैं। लेकिन ऐसे हिन्दी मीडिया संस्थानों की संख्या इक्का-दुक्का ही है। जिनमें से आधे मूल रूप अंग्रेजी मीडिया संस्थानों की उपज है।
दूसरे ऐसे संस्थान ज्यादा पैसा देने पर काम की जगह खून पी रहें हैं। जिनमें मुख्य तौर पर हिन्दी टीवी संस्थान शामिल है, जहां प्रत्येक व्यक्ति से औसतन 12 से 14 घंटे काम करवाया जा रहा है। अब अगर कोई आदमी 24 घंटे में से 12 घंटे काम करेगा, 7 से 8 घंटे सोएगा, 2-3 घंटे ऑफिस आने-जाने में बरबाद करेगा तो फिर वो इंसान क्यों है, मशीन ही बन जाए क्योंकि 7-8 घंटे का आराम तो मिल की मशीनों को भी मिल जाता है।
जिंदगी मौत ना बन जाए संभलो यारों लाख बुरे हालातों के बावजूद आज भी युवा पत्रकारों की एक ऐसी खेप है जो इस इंडस्ट्री में सरोकारों की ज्वाला को लेकर आती है। भंयकर रचनात्मकता से ओत-प्रोत ये लोग हिन्दी मीडिया के वर्तमान में सबसे ज्यादा प्रताड़ित होने का कारण ये स्वयं है क्योंकि ये हिन्दी पत्रकारिता के उस इतिहास को पढ़ कर पत्रकार बनने चले है जो आजादी और वंचितों की लड़ाई से भरी पड़ी है।
लेकिन भईया माहौल बदल गया है। कलम की ताकत लाला की दुकान हो गई है। जिससे ज्यादा मुनाफा होगा, वही छपेगा। लेकिन ये बात इन पत्रकारों की समझ में ही नहीं आती है। क्योंकि इन्होंने पत्रकारिता के वसूलों और धर्म को गले जो लगा बैठे हैं। अब इस तरह की लड़ाई लड़ने चलोगे तो राह में कंकड़-पत्थर तो जरूर मिलेंगे, हां वो सुकूंन की गांरटी अब नहीं दी जा सकती है।
ना समझे तो अनाड़ी हो बाजारवाद को अभी तक नहीं समझे हैं तो अनाड़ी तो हो ही, जल्दी नहीं चेते तो पनवाड़ी की दुकान भी खोलनी पड़ सकती है। अब आपका पत्रकारिए धर्म आपसे चाहता है कि आप गरीबी और विकास से जूझ से रहे बुंदेलखंड और विदर्भ के वर्तमान हालातों पर स्टोरी करो, लेकिन टीआरपी की मांग है कि राखी सावंत का स्वयंवर, करीना की बिकनी, आमिर के ऐट एब्स जैसी खबरें। जिसे देखते ही दर्शकों की दीदे टीवी चैनल पर अटक के रह जाए। तो वहीं खबरें चलेंगी, जिससे टीआरपी रेट बढ़े, आपने भले ही बढ़िया पैकेज बनाया हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
हिन्दी अखबारों का भी यही हाल है। आधा समय अंग्रेजी खबरों के अनुवाद में बीतता है तो आधा पेज मेकिंग में, थोड़ी बहुत रिर्पोटिंग जो होती भी है, उसमें रिर्पोटर को संस्थान की सोच, औद्योगिक और राजनैतिक घरानों से संबंधों की मर्यादा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मिलने वाले विज्ञापनों का लिहाज रखना पड़ता है।
ऐसे में पत्रकार और मीडिया संस्थान के आदर्श में एक गहरा अंतर हो जाता है। जिसका परिणाम या तो अवसादग्रस्त पत्रकार नौकरी छोड़ देता है अथवा मीडिया संस्थान उसे खुद बाहर का रास्ता दिखा देती है। इसके अलावा सामाजिक सरोकारों की खबर करते समय अगर मुकदमेबाजी या अपराधियों से पंगा लेना पड़ा तो वो भी आपके जिम्मे।
सबसे बड़ा रुपैया वैसे गलती मीडिया संस्थानों की भी नहीं है। भई आगे रहने का सारा खेल टीआरपी और सर्कुलेशन के मत्थे है। चटक-मटक नहीं दिखाऐंगे, नहीं छापेंगे तो टीआरपी और सर्कुलेशन कैसे बढ़ेगा। दर्शक और पाठक भी तो यही पढ़ना और देखना चाहता है। या यह भी कह सकते हैं कि हम दर्शक को जागरूक ही नहीं करना चाहते, मुनाफा जो लक्ष्य है।
काश ऐसा हुआ होता मुझे ऐसा लगता है पत्रकारिता के पतन का कारण हमारे देश का देर से आजाद होना है। सोचिए देश अगर सही तरीके से 1857 में ही आजाद हो जाता, तो जल्दी विकास होता, जल्दी बाजारवाद आता। और विकास के शुरूआती दौर में मीडिया संस्थानों की ऊल-जुलूल सामाग्री को पढ़कर, देख कर दर्शक और पाठक अब तक उकता चुके होते और आज इस समय हमारे पास जागरूक पाठक और दर्शकों की एक बहुत भारी खेप होती। जो विकास की खबरों में ही रूचि लेती।
ऐसे में खबरें भी विकास के मुद्दों के लिए ही होती और वे पत्रकार भी खुश रहते जो सामाजिक सरोकारों की लड़ाई के लिए ही पत्रकारिता का रास्ता चुनते हैं।